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Friday, November 8, 2013

Minaro ke virodhi swiss neta ne keya islam kabool



मीनारों के विरोधी स्विस नेता ने
किया इस्लाम कबूल
स्विट्जरलैंड में मस्जिदों के मीनारों का विरोधी, प्रसिद्ध नेता एवं स्विस मिल ट्री के इन्सट्रक्टर डेनियल स्ट्रेच(Daniel Streich)जो मीनारों की मुखालफत का झण्डा उठाये हुआ था ने इस्लाम कबूल कर लिया है। वही पहला नेता था जिसने स्वीटजर्लेंड में मस्जिदों ताले लगाने और मीनारों पर पाबन्दी लगाने की मुहिम छेडी थी। उसने अपनी इस इस्लाम विरोधी आन्दोलन को देश- भर में फैलाया था। लोगों से मिलकर उनमें इस्लाम के विरूद्ध नफरत की बीज बोये और
मस्जिदों के गुम्बद और मीनारों के लिखाफ आम जनता को खडा कर रहा था।
परन्तु आज वह इस्लाम की सिपाही बन चुका है। इस्लाम के विरोध ने उसे इस्लाम के इतना निकट कर दिया कि वह इस्लाम कबूल किये बगैर न रह सका और अब अपने किये पर इतना शर्मिन्दा है और अब वह स्वीटजर्लेंड में युरोप की सबसे सुन्दर मस्जिद बनाना चाहता है।
दिलचस्प बात यह है कि स्वीटजर्लेंड में इस समय मीनारों वाली केवल चार मस्जिदें हैं और डेनियल स्ट्रेच पांचवीं मस्जिद की बुनियाद रखना चाहता है। उनकी तमन्ना है कि वह दुनिया की सबसे सुन्दर मस्जिद बना सकें और अपने उस गुनाह की तलाफी कर सकें जो उन्होंने मस्जिदों की विरूद्ध जहर फैला कर किये हैं। वह स्वयं अपने आरम्भ किये आन्दोलन के विरूद्ध भी आन्दोलन चलाना चाहते हैं। हालाँकि स्वीटजर्लेंड में मीनार पर पाबन्दी अब कानूनी हेसियत पा चुकी है।
इस्लाम की सबसे बडी खूबी यही है कि विरोध से इसका रंग अधिक निखरकर सामने आता है। नफरत से भी जो इसका अध्ययण करता है वह उसको अपना बना लेता है। जितना इसका विरोद्ध किया जाए उतनी ही शक्ति से इस्लाम उभरकर सामने आता है। आज युरोप में इस्लाम बहुत तेजी से फैल रहा है जिन इलाकों में जितनी कडाई से इस्लाम के विरूद्ध प्रोपगेंण्डा होरहा है वहां उतनी ही तेजी से इस्लाम कबूल किया जा रहा है। युरोप में सभी जानना चाहते हैं कि इस्लाम को आतंक के साथ क्यूँ जोडा जाता है फिर वह अध्ययण करते हैं ऐसा ही इस नेता के साथ हुआ । डेनियल स्टेच मीनारों के विरोध और इस्लाम
दुशमनी में कुरआन मजीद का अध्ययण किया जिससे इस्लाम को समझ सके। तब उसके दिमाग में केवल इस्लाम धर्म में कीडे निकालना था। वह इस्लाम में
मीनारों की हकीकत भी जानना चाहता था ताकि मीनार मुखलिफ आन्दोलन में शक्ति डाल सके और मुसलमानों और मीनारों से होने वाले खतरों से स्वीटजर्लेंड की जन्ता का खबरदार कर सके लेकिन हुआ इसका उल्टा। जैसे-जैसे वह कुरआन और इस्लामी शिक्षाओं का अध्ययण करता गया, वह उसके दिल और दिमाग पर छाते गये।
उसके दिल और दिमाग से गुनाह और बुत-परस्ती की तह हटती गयी। न उसे तीन खुदाओं पर विश्वास न रहा। डेनियल स्टेच का कहना है कि वह पहले पाबन्दी से बाईबिल पढा करता था और चर्च जाया करता था लेकिन अब वह कुरआन पढता है और पांचों समय की नमाज अदा करता है। उसे इस्लाम में जिन्दगी के तमाम सवालात का जवाब मिल गया जो वह ईसाइयत में कभी नहीं पा सकता था। वह जो सुन्दर मस्जिद युरोप में बनाना चाहते हैं उसके लिए कुछ दौलतमन्दों ने उनकी साहयता करने का वचन दिया है लेकिन साथ ही यही भी कह दिया कि इस्लाम की महानता के लिए मीनारों और गुम्बदों के सहारे की आवश्यकता नहीं है। मुल्क का कानून मीनारों पर ही पाबन्दी लगा सकता है दिल और दिमाग पर नहीं।

Sunday, October 13, 2013

इस्लाम आतंक या आदर्श?

जब मुझे सत्य का ज्ञान हुआ  
कई साल पहले दैनिक जागरण में श्री बलराज बोधक का लेख ' दंगे क्यों होते हैं?' पढ़ा, इस लेख में हिन्दू-मुस्लिम दंगा होने का कारण क़ुरआन मजीद में काफिरों से लड़ने के लिए अल्लाह के फ़रमान बताये गए थे.लेख में क़ुरआन मजीद की वह आयतें भी दी गयी थीं.
इसके बाद दिल्ली से प्रकाशित एक पैम्फलेट ( पर्चा ) ' क़ुरआन की चौबीस आयतें, जो अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश देती हैं.' किसी व्यक्ति ने मुझे दिया. इसे पढने के बाद मेरे मन में जिज्ञासा हुई कि में क़ुरआन पढूं. इस्लामी पुस्तकों कि दुकान में क़ुरआन का हिंदी अनुवाद मुझे मिला. क़ुरआन मजीद के इस हिंदी अनुवाद में वे सभी आयतें मिलीं, जो पैम्फलेट में लिखी थीं. इससे मेरे मन में यह गलत धारणा बनी कि इतिहास में हिन्दू राजाओं व मुस्लिम बादशाहों के बीच जंग में हुई मार-काट तथा आज के दंगों और आतंकवाद का कारण इस्लाम है. दिमाग भ्रमित हो चुका था.इस भ्रमित दिमाग से हर आतंकवादी घटना मुझे इस्लाम से जुड़ती दिखाई देने लगी.
इस्लाम, इतिहास और आज कि घटनाओं को जोड़ते हुए मैंने एक पुस्तक लिख डाली ' इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास ' जिसका अंग्रेजी अनुवाद 'The History of Islamic Terrorism' के नाम से सुदर्शन प्रकाशन,सीता कुंज,लिबर्टी गार्डेन,रोड नंबर 3, मलाड (पशचिम) मुंबई 400 064 से प्रकाशित हुआ.
मैंने हाल में इस्लाम धर्म के विद्वानों ( उलेमा ) के बयानों को पढ़ा कि इस्लाम का आतंकवाद से कोई सम्बन्ध नहीं है. इस्लाम प्रेम सदभावना व भाईचारे का धर्म है.किसी बेगुनाह को मारना इस्लाम के विरुद्ध है। आतंकवाद के खिलाफ़ फ़तवा भी जरी हुआ है।
इसके बाद मैंने क़ुरआन मजीद में जिहाद के लिए आई आयतों के बारे में जानने के लिए मुस्लिम विद्वानों से संपर्क किया,जिन्होंने मुझे बताया कि क़ुरआन मजीद कि आयतें भिन्न -भिन्न तत्कालीन परिस्तिथियों में उतरीं। इसलिए क़ुरान मजीद का केवल अनुवाद ही देखकर यह भी देखा जाना ज़रूरी है कि कौनसी आयत किस परिस्तिथियों में उतरी तभी उसका सही मक़सद पता चल पाएगा ।
साथ ही ध्यान देने योग्य है कि क़ुरआन इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्लल्लाहु  अलैहि व सल्लम ) पर उतरा गया था। अत: क़ुरआन को सही मायने में जानने के लिए पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्लल्लाहु  अलैहि व सल्लम ) कि जीवनी से परिचित होना भी ज़रूरी भी है।
विद्वानों ने मुझसे कहा -" आपने क़ुरआन माजिद की जिन आयतों का हिंदी अनुवाद अपनी किताब में लिया है, वे आयतें अत्याचारी काफ़िर मुशरिक लोगों के लिए उतारी गयीं जो अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) से लड़ाई करते और मुल्क में फ़साद करने के लिए दौड़े फिरते थे। सत्य धर्म की रह में रोड़ा डालने वाले ऐसे लोगों के विरुद्ध ही क़ुरआन में जिहाद का फ़रमान है।
उन्होंने मुझसे कहा कि इस्लाम कि सही जानकारी न होने के कारण लोग क़ुरआन मजीद कि पवित्र आयतों का मतलब समझ नहीं पाते। यदि आपने पूरी क़ुरआन मजीद के साथ हज़रात मुहम्मद ( सल्लालाहु अलैहि व सल्लम )  कि जीवनी पढ़ी होती, तो आप भ्रमित न होते ।"
मुस्लिम विद्वानों के सुझाव के अनुसार मैंने सब से पहले पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद कि जीवनी पढ़ी। जीवनी पढ़ने के बाद इसी नज़रिए से जब मन की शुद्धता के साथ क़ुरआन मजीद शुरू से अंत तक पढ़ी, तो मुझे क़ुरआन  मजीद कि आयतों का सही मतलब और मक़सद समझ आने लगा ।
सत्य सामने आने के बाद मुझे अपनी भूल का अहसास हुआ कि मैं अनजाने में भ्रमित था और इसी कारण ही मैंने अपनी किताब ' इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास ' में आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ा है जिसका मुझे हार्दिक खेद है ।
मैं अल्लाह से, पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) से और सभी मुस्लिम भाइयों से सार्वजानिक रूप से माफ़ी मांगता हूँ तथा अज्ञानता में लिखे व बोले शब्दों को वापस लेता हूं। सभी जनता से मेरी अपील है कि ' इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास ' पुस्तक में जो लिखा है उसे शुन्य समझें ।
स्वामी लक्ष्मिशंकाराचार्य
ए-1601 , आवास विकास कालोनी ,
हंसपुरम,नौबस्ता, कानपुर-208 021
भाग 1
शुरुआत कुछ इस तरह हुई कि सहित दुनिया में यदि कहीं विस्फोट हो या किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों कि हत्या हो और उस घटना में संयोगवश मुस्लमान शामिल हो तो उसे इस्लामिक आतंकवाद कहा गया।
थोड़े ही समय में मिडिया सहित कुछ लोगों ने अपने-अपने निजी फ़ायदे के लिए इसे सुनियोजित तरीके से इस्लामिक आतंकवाद कि परिभाषा में बदल दिया। इस सुनियोजित प्रचार का परिणाम यह हुआ कि आज कहीं भी विस्फ़ोट हो जाए उसे तुरंत इस्लामिक आतंकवाद घटना मानकर ही चला जाता है ।
इसी माहौल में पूरी दुनिया में जनता के बीच मिडिया के माध्यम से और पश्चिमी दुनिया सहित कई अलग-अलग देशों में अलग-अलग भाषाओँ में सैंकड़ों किताबें लिख-लिख कर यह प्रचारित किया गया कि दुनिया में आतंकवाद की जड़ इस्लाम है।
इस दुष्प्रचार में यह प्रामाणित किया गया कि क़ुरआन में अल्लाह कि आयतें मुसलमानों को आदेश देती हैं कि -वे, अन्य धर्म को मानने वाले काफ़िरों से लड़ें उनकी बेरहमी के हत्या करें या उन्हें  आतंकित ज़बरदस्ती मुस्लमान बनाएं , उनके पूजास्थलों नष्ट करें-यह जिहाद है और इस जिहाद करने वाले को अल्लाह जन्नत देगा। इस तरह योजनाबद्ध तरीक़े से इस्लाम को बदनाम करने के लिये उसे निर्दोषों कि हत्या कराने वाला आतंकवादी धर्म  घोषित कर दिया गया और जिहाद का मतलब आतंकवाद बताया गया ।
सच्चाई क्या है? यह जानने के लिये हम वही तरीक़ा अपनायेंगे जिस तरीक़े से हमें सच्चाई का ज्ञान हुआ था। मेरे द्वारा शुद्ध मन से किये गये इस पवित्र प्रयास में यदि अनजाने में कोई ग़लती हो गयी हो तो उसके लिए पाठक मुझे क्षमा करेंगे ।
इस्लाम के बारे में कुछ भी प्रमाणित करने के लिए यहाँ हम तीन कसौटियों को लेंगे ।
1- क़ुरआन मजीद में अल्लाह के आदेश
2- पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) की जीवनी
3- हज़रत मुहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) की कथनी यानी हदीस
इन तीन कसौटियों से अब हम देखते हैं कि:
[ क्या वास्तव में इस्लाम निर्दोषों से लड़ने और उनकी हत्या करने व हिंसा फैलाने का आदेश देता है?
[ क्या वास्तव में इस्लाम दूसरों के पूजाघरों को तोड़ने का आदेश देता है?
[ क्या वास्तव में इस्लाम लोगों को ज़बरदस्ती मुस्लमान बनाने का आदेश देता है?
[ क्या वास्तव में हमला करने, निर्दोषों की हत्या करने व आतंक फैलाने का नाम जिहाद है?
[ क्या  वास्तव में इस्लाम एक आतंकवाद धर्म है?
सर्वप्रथम यह बताना आवश्यक है कि हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) अल्लाह के महत्वपूर्ण एवं अंतिम पैग़म्बर हैं । अल्लाह ने आसमान से क़ुरआन को आप पर ही उतारा। अल्लाह के रसूल होने के बाद जीवन पर्यन्त 23 सालों तक आप ( सल्ल० ) ने जो किया, वह क़ुरआन के अनुसार ही किया ।
दूसरे शब्दों में हज़रत मुहम्मद ( सल्ल०) के जीवन के यह 23 साल क़ुरान या इस्लाम का व्यावहारिक रूप हैं। अत: क़ुरआन या इस्लाम को जानने का सबसे महत्वपूर्ण और आसान तरीका हज़रत मुहम्मद ( सल्ल०) की पवित्र जीवनी है, यह मेरा स्वयं का अनुभव है। आपकी जीवनी और क़ुरआन मजिद पढ़कर पाठक स्वयं निर्णय कर सकते हैं कि इस्लाम एक आतंक है? या आदर्श ।
उलमा-ए-सियर ( यानि पवित्र जीवनी लिखने वाले विद्वान  ) लिखते हैं कि- पैग़म्बर मुहम्मद सल्लालाहु अलैहि व सल्लम का जन्म मक्का के क़ुरैश क़बीले के सरदार अब्दुल मुत्तलिब के बेटे अब्दुल्लाह के घर सन् 570 ई० में हुआ । मुहम्मद ( सल्ल०) के जन्म से पहले ही उनके पिता अब्दुल्लाह का निधन हो गया था । आप ( सल्ल०) जब 6 साल के हुए, तो उनकी मां आमिना भी चल बसीं । 8 साल की उम्र में दादा अब्दुल मुत्तलिब का भी देहांत हो गया तो चाचा अबू-तालिब के सरंक्षण में आप ( सल्ल०) पले-बढ़े।
24 वर्ष की आयु में में आप ( सल्ल०) का विवाह ख़दीजा से हुआ। ख़दीजा मक्का के एक बहुत ही स्मृध्शाली व सम्मानित परिवार की विधवा महिला थीं ।
उस समय मक्का के लोग काबा की 360 मूर्तियों की उपासना करते थे । मक्का में मूर्ती का प्रचलन साम ( सीरिया ) से आया । वहाँ सबसे पहले जो मूर्ती स्थापित की गयी वह 'हूबल' नाम के देवता की थी, जो सीरिया से लाई गयी थी । इसके बाद ' इसाफ' और ' नाइला ' की मूर्तियाँ ज़मज़म नाम के कुँए पर स्थापित की गयीं । फिर हर क़बीले ने अपनी-अपनी अलग-अलग मूर्तियाँ स्थापित कीं। जैसे क़ुरैश क़बीले ने ' उज्ज़ा' की । ताइफ़ के क़बीले सकीफ़ ने ' लात ' की । मदीने के औस और  खजरज़ क़बीलों ने ' मनात '  की । ऐसे ही  वद, सुआव, यगुस, सौउफ़ , नसर , आदि प्रमुख मूर्तियाँ थीं । इसके अलावा हज़रत इब्राहीम, हज़रत इस्माईल , हज़रत ईसा आदि की तस्वीरें व मूर्तियाँ खाना काबा में मौजूद थीं ।
ऐसी परिस्तिथियों में 40 वर्ष की आयु में आप ( सल्ल० ) को प्रथम बार रमज़ान के महीने में मक्का से 6 मील की दूरी पर 'गारे हिरा' नामक गुफ़ा में एक फ़रिश्ता जिबरील से अल्लाह का सन्देश प्राप्त हुआ । इसके बाद अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद ( सल्ल०) को समय-समय पर अल्लाह के आदेश मिलते रहे । अल्लाह के यही आदेश,क़ुरआन है ।
आप ( सल्ल०) लोगों को अल्लाह का पैग़ाम देने लगे कि ' अल्लाह एक है उसका कोई शरीक नहीं । केवल वही पूजा के योग्य है । सब लोग उसी कि इबादत करो । अल्लाह ने मुझे नबी बनाया है ।  मुझ पर अपनी आयतें उतारी हैं ताकि मैं लोगों को सत्य बताऊँ, सीधी सत्य कि रह दिखाऊँ ।' जो लोग मुहम्मद ( सल्ल०) के पैग़ाम पर ईमान ( यानी विश्वास ) लाये, वे मुस्लिम अथार्त मुस्लमान कहलाये ।
बीवी खदीजा  ( रज़ि० ) आप पर विश्वास लाकर पहली मुस्लमान बनीं ।  उसके बाद चचा अबू-तालिब के बेटे अली  ( रज़ि० ) और मुंह बोले बेटे ज़ैद  व आप ( सल्ल० ) के गहरे दोस्त ( रज़ि०) ने मुस्लमान बनने के लिये " अश्हदु अल्ला इल्लाल्लाहू व अश्हदु अन्न मुहम्मदुरसुलुल्लाह " यानि " मैं गवाही देता हूँ , अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है और मुहम्मद ( सल्ल०) अल्लाह के रसूल हैं ।" कह कर इस्लाम क़ुबूल किया ।
मक्का के अन्य लोग भी ईमान  ( यानि विश्वास ) लाकर मुस्लमान बनने लगे ।  कुछ समय बाद ही क़ुरैश के सरदारों को मालूम हो गया कि आप ( सल्ल०) अपने बाप-दादा के धर्म बहुदेववाद और मूर्तिपूजा के स्थान पर किसी नए धर्म का प्रचार कर रहे हैं और बाप-दादा के दीन को समाप्त कर रहे हैं ।  यह जानकार आप ( सल्ल०) के अपने ही क़बीले क़ुरैश के लोग बहुत क्रोधित हो गये । मक्का के सारे बहुईश्वरवादी काफ़िर सरदार इकट्ठे होकर मुहम्मद ( सल्ल०) कि शिकायत लेकर आप के चचा अबू-तालिब के पास गये ।  अबू-तालिब ने मुहम्मद ( सल्ल० ) को बुलवाया और कहा-" मुहम्मद ये अपने क़ुरैश क़बीले के असरदार सरदार हैं. ये चाहते हैं कि तुम यह प्रचार न करो कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है और अपने बाप-दादा के धर्म पर क़ायम रहो ।"
मुहम्मद ( सल्ल०) ने ' ला इला-ह इल्लल्लाह ' ( अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं है ) इस सत्य का प्रचार छोड़ने से इंकार कर दिया । क़ुरैश सरदार क्रोधित होकर चले गये ।इसके बाद इन क़ुरैश सरदारों ने तय किया कि अब हम मुहम्मद को हर प्रकार से कुचल देंगे । और उनके साथियों को बेरहमी के साथ तरह-तरह स्व सताते, अपमानित करते और उन पर पत्थर बरसाते ।
इसके बाद आप ( सल्ल० ) ने उनकी दुष्टता का जवाब सदैव सज्जनता और सद्व्यवहार से ही दिया ।
मुहम्मद ( सल्ल० ) व आपके साथी मुसलमानों के विरोध में क़ुरैश का साथ देने के लिए अरब के और बहुत क़बीले थे । जिन्होंने आपस में यह समझौता कर लिया था कि कोई क़बीला किसी मुस्लमान को पनाह नहीं देगा । प्रत्येक क़बीले कि ज़िम्मेदारी थी, जहाँ कहीं मुस्लमान मिल जाएँ उनको ख़ूब मारें-पीटें और हर तरह से अपमानित करें, जिससे कि वे अपने बाप-दादा  के धर्म कि ओर लौट आने को मजबूर हो जाएँ ।
दिन प्रतिदन उन के अत्यचार बढ़ते गये । उन्होंने निर्दोष असहाय मुसलमानों को क़ैद किया, मारा-पीटा, भूखा-प्यासा रखा । मक्के कि तपती रेत पर नंगा लिटाया , लोहे की गर्म छड़ों से दाग़ा और तरह-तरह के अत्याचार किये ।
उदाहरण के लिए हज़रत यासिर ( रज़ि०) और बीवी हज़रत सुमय्या ( रज़ि० ) तथा उनके पुत्र हज़रत अम्मार ( रज़ि०) मक्के के ग़रीब लोग थे और इस्लाम क़ुबूल कर मुस्लमान बन गये थे । उनके मुस्लमान बनने से नाराज़ मक्के के काफ़िर उन्हें सज़ा देने के लिए जब कड़ी दोपहर हो जाती, तो उनके कपड़े उतार उन्हें तपती रेत लिटा देते ।
हज़रत यासिर ( रज़ि०) ने इन ज़ुल्मों को सहते हुए तड़प-तड़प कर जान दे दी । मुहम्मद ( सल्ल०) व मुसलमानों के सबसे बड़ा विरोधी अबू ज़हल बड़ी बेदर्दी से सुमय्या  ( रज़ि०) के पीछे पड़ा रहता । एक दिन उन्होंने अबू-जहल को बददुआ दे दी जिससे नाराज़ होकर अबू-जहल ने भाला मार कर हज़रत सुमय्या  ( रज़ि०) का क़त्ल कर दिया । इस तरह इस्लाम में हज़रत सुमय्या ( रज़ि० ) ही सबसे पहले सत्य की रक्षा के लिए शहीद बनीं ।
दुष्ट क़ुरैश, हज़रत अम्मार ( रज़ि०) को लोहे का कवच पहना कर धूप में लिटा देते । लिटाने के बाद मारते-मारते बेहोश कर देते ।
इस्लाम क़ुबूल कर मुस्लमान बने हज़रत बिलाल (रज़ि०), कुरैश सरदार उमैय्या के ग़ुलाम थे। उमैय्या ने यह जानकर कि बिलाल मुस्लमान बन गये हैं, उनका खाना पीना बंद कर दिया। ठीक दोपहर में भूखे-प्यासे ही वह उन्हें बहार पत्थर पर लिटा देता और छाती पर बहुत भारी पत्थर रखवा कर कहता -" लो मुसलमान बनने का मज़ा चखो।"
उस समय जितने भी ग़ुलाम,मुसलमान बन गये थे इन पर इसी तरह अत्याचार हो रहे थे। हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के जिगरी दोस्त अबू-बक्र ( रज़ि०) ने उन सब को ख़रीद-ख़रीद कर ग़ुलामी से आज़ाद कर दिया।
काफ़िर कुरैश यदि किसी मुस्लमान को क़ुरान की आयतें पढ़ते सुन लेते या नमाज़ पढ़ते देख लेते, तो पहले उसकी बहुत हंसी उड़ाते फिर उसे बहुत सताते। इस डर के कारण मुसलमानों को नमाज़ पढ़नी होती छिपकर पढ़ते और क़ुरान पढ़ना होता तो धीमी आवाज़ से पढ़ते।
एक दिन क़ुरैश काबा में बैठे हुए थे। अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद ( रज़ि०) काबा के पास नमाज़ पढने लगे, तो वहां बैठे सारे काफ़िर क़ुरैश उन पर टूट पड़े और उन्होंने अब्दुल्लाह को मारते-मारते बे-दम कर दिया।
जब मक्का में काफ़िरों के अत्याचारों के कारण मुसलमानों का जीना मुश्किल हो गया तो मुहम्मद ( सल्ल०) ने उनसे कहा: " हबशा चले जाओ"
हबशा का बादशाह नाज्जाशी ईसाई था। अल्लाह के रसूल का हुक्म पते ही बहुत से मुसलमान हबशा चले गये। जब क़ुरैश को पता चला, तो उन्होंने अपने दो आदमियों को दूत बना कर हबशा के बादशाह के भेज कर कहलवाया कि " हमारे यहाँ के कुछ मुजरिमों ने भाग कर आपके यहाँ शरण ली है। इन्होंनें हमारे धर्म से बग़ावत की है और आपका ईसाई धर्म भी नहीं स्वीकारा, फिर भी आपके यहाँ रह रहे हैं। ये अपने बाप-दादा के धर्म से बग़ावत कर एक नया धर्म लेकर चल रहे हैं, जिसे न हम जानते हैं और न आप। इनको लेने हम आए हैं।
बादशाह नाज्जाशी ने मुसलमानों से पुछा: " तुम लोग कौन सा ऐसा नया धर्म लेकर चल रहे हो, जिसे हम नहीं जानते?"
इस पर मुसलमानों की ओर से हज़रत जाफ़र ( रज़ि०) बोले-हे बादशाह! पहले हम लोग असभ्य और गंवार थे। बुतों की पूजा करते थे, गंदे काम करते थे, पड़ोसियों से व आपस में झगड़ा करते रहते थे। इस बीच अल्लाह ने हम में अपना एक रसूल भेजा। उसने हमें सत्य-धर्म इस्लाम की ओर बुलाया। उसने हमें अल्लाह का पैग़ाम देते हुए कहा:"हम केवल एक ईश्वर की पूजा करें ,बेजान बुतों की पूजा छोड़ दें, सत्य बोलें और पड़ोसियों के साथ अच्छा व्यवहार करें, किसी के साथ अत्याचार और अन्याय न करें, व्यभिचार और गंदे कार्यों को छोड़ दें,अनाथों का माल न खायें, पाक दामन औरतों पर तोहमत न लगाएं, नमाज़ पढ़ें और खैरात यानी दान दें।"
हमने उस के पैग़ाम को व उसको सच्चा जाना और उस पर ईमान यानि विश्वास लाकर मुस्लमान बन गए ।
हज़रत जाफ़र ( रज़ि०) के जवाब से बादशाह नाज्जाशी बहुत प्रभावित  हुआ। उसने दूतों को यह कह कर वापस कर दिया की यह लोग अब यहीं रहेंगे।
 मक्का में ख़त्ताब के पुत्र  उमर बड़े ही क्रोधी किन्तु बड़े बहादुर साहसी योद्धा थे । अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) ने अल्लाह से प्रार्थना की कि यदि उमर ईमान लाकर  मुस्लमान बन जाएं तो इस्लाम को बड़ी मदद मिले, लेकिन उमर मुसलमानों के लिए बड़े ही निर्दयी थे। जब उन्हें मालूम हुआ की नाज्जाशी ने मुसलमानों को अपने यहाँ शरण दे दी है तो वह बहुत क्रोधित हुए । उमर ने सोचा सारे फ़साद की जड़ मुहम्मद ही है, अब मैं उसे ही मार कर फ़साद की यह जड़ समाप्त कर दूंगा।
ऐसा सोच कर, उमर तलवार उठा कर चल दिए। रस्ते में उनकी भेंट नुएम-बिन-अब्दुल्लाह से हो गयी जो पहले ही मुस्लमान बन चुके थे, लेकिन उमर को यह पता नहीं था। बातचीत में जब नुऐम को पता चला कि उमर, अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) का क़त्ल करने जा रहे हैं तो उन्होंने उमर के इरादे का रुख़ बदलने के लिए कहा: " तुम्हारी बहन-बहनोई मुस्लमान हो गए हैं, पहले उनसे तो निबटो।"
यह सुनते ही कि उनकी बहन और बहनोई मुहम्मद का दीन इस्लाम क़ुबूल कर मुस्लमान बन चुके हैं, उमर ग़ुस्से से पागल हो गए और सीधा बहन के घर जा पहुंचे।
भीतर से कुछ पढने कि आवाज़ आ रही थी । उस समय खब्बाब ( रज़ि०) क़ुरान पढ़ रहे थे। उमर कि आवाज़ सुनते ही वे डर के मारे अन्दर छिप गए। क़ुरआन के जिन पन्नों को वे पढ़ रहे थे, उमर की बहन फ़ातिमा ( रज़ि०) ने उन्हें छिपा दिया, फिर बहनोई सईद ( राज़ी0) ने दरवाज़ा खोला
उमर ने यह कहते हुए कि "क्या तुम लोग सोचते हो कि तुम्हारे मुस्लमान बनने की मुझे खबर नहीं है?" यह कहते हुए उमर ने बहन-बहनोई   को मारना-पीटना शुरू कर दिया और इतना मारा कि बहन का सर फट गया । किन्तु इतना मार खाने के बाद भी बहन ने इस्लाम छोड़ने से इंकार कर दिया।
बहन के द्रढ़ संकल्प ने उमर के इरादे को हिला कर रख दिया । उन्होंने अपनी बहन से क़ुरआन के पन्ने दिखाने को कहा । क़ुरआन के उन पन्नों को पढ़ने के बाद उमर का मन भी बदल गया । अब वह मुस्लमान बनने का इरादा कर मुहम्मद ( सल्ल० ) से मिलने चल दिए।
उमर ने अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) से विनम्रतापूर्वक कहा: " मैं इस्लाम स्वीकार करने आया हूं। मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के आलावा कोई पूज्य नहीं है और मुहम्मद ( सल्ल० ) अल्लाह के रसूल हैं । अब मैं मुस्लमान हूं।"
इस तरह मुसलमानों की संख्या निरंतर बढ़ रही थी । इसे रोकने के लिए क़ुरैश ने आपस में एक समझौता किया । इस समझौते के अनुसार क़ुरैश  के सरदार आप ( सल्ल० ) के परिवार मुत्तलिब ख़ानदान के पास गए और कहा: : मुहम्मद को हमारे हवाले कर दो । हम उसे क़त्ल कर देंगे और इस खून के बदले हम तुमको बहुत सा धन देंगे। यदि ऐसा नहीं करोगे तो हम सब घेराव करके तुम लोगों को नज़रबंद रखेंगे । न तुमसे कभी कुछ ख़रीदेंगे,न बेचेंगे और न ही किसी प्रकार का लेन-देन करेंगे । तुम सब भूख से तड़प-तड़प का मर जाओगे ।"
लेकिन मुत्तलिब ख़ानदान ने मुहम्मद ( सल्ल०) को देने से इंकार कर दिया, जिसके कारण मुहम्मद ( सल्ल० ) अपने चचा अबू-तालिब और समूचे ख़ानदान के साथ एक घाटी में नज़रबंद कर दिए गए । भूख के कारण उन्हें पत्ते तक खाना पड़ा । ऐसे कठिन समय में मुसलमानों के कुछ हमदर्दों के प्रयास से यह नज़रबंदी समाप्त हुई ।इसके कुछ  दिनों के  बाद  चचा  अबू-तालिब चल बसे । थोड़े ही दिनों के बाद बीवी ख़दीजा ( रज़ि०) भी नहीं रहीं।
मक्का के काफ़िरों ने बहुत कोशिश की कि मुहम्मद  ( सल्ल० ) अल्लाह का पैग़ाम पहुँचाना छोड़ दें। चचा अबू-तालिब कि मौत के बाद उन काफ़िरों के हौसले बहुत बढ़ गए । एक दिन आप ( सल्ल०) काबा में नमाज़ पढ़ रहे थे कि किसी ने औझड़ी ( गंदगी ) लाकर आपके ऊपर डाल दी, लेकिन आप ने न कुछ बुरा-भला कहा और न कोई बददुआ दी ।
इसी प्रकार एक बार आप ( सल्ल० ) कहीं जा रहे थे , रस्ते में किसी ने आप के सर पर  मिटटी डाल दी । आप घर वापस लौट आए । पिता पर लगातार हो रहे अत्याचारों को सोच का बेटी फ़ातिमा आप का सर धोते हुए रोनें लगीं । आप ( सल्ल० ) ने बेटी को तसल्ली देते ही कहा: " बेटी रो मत! अल्लाह तुम्हारे बाप की मदद करेगा ।"
मुहम्मद ( सल्ल०) जब क़ुरैश के ज़ुल्मों से तंग आ गए और उनकी ज़्यादतियां असहनीय हो गयीं, तो आप ( सल्ल० ) ताइफ़ चले गए. लेकिन यहाँ किसी ने आप को ठहराना तक पसंद नहीं किया । अल्लाह के पैग़ाम को झूठा कह कर आप को अल्लाह का रसूल मानने से इंकार कर दिया ।
सक़ीफ़ क़बीले के सरदार ने ताइफ़ के गुंडों को आप के पीछे लगा दिया , जिन्होंने पत्थर मार-मार कर आप को बुरी तरह ज़ख़्मी कर दिया । किसी तरह आप ने अंगूर के एक बाग़ में छिप कर अपनी जान बचाई ।
मक्के के क़ुरैश को जब ताइफ़ का सारा हाल मालूम हुआ, तो वो बड़े खुश हुए और आप की खूब हंसी उड़ायी । उन्होंने आपस में तय किया कि मुहम्मद अगर वापस लौट कर मक्का आए तो उन का क़त्ल कर देंगे ।
आप ( सल्ल० ) ताइफ़ से मक्का के लिए रवाना हुए । हिरा नामक स्थान पर पहुंचे तो वहां पर क़ुरैश के कुछ लोग मिल गये । ये लोग आप  ( सल्ल० ) के हमदर्द थे उनसे मालूम हुआ कि क़ुरैश आप का क़त्ल करने को तैयार बैठे हैं ।
अल्लाह के रसूल अपनी बीवी ख़दीजा के एक रिश्तेदार अदि के बेटे मुतईम कि पनाह में मक्का में दाखिल हुए । चूँकि मुतईम आपको पनाह दे चुके थे, इसलिए कोई कुछ न बोला लेकिन आप ( सल्ल०) जब काबा पहुंचे, तो अबू-जहल ने आप कि हंसी उड़ाई ।
आपने लगातार अबू-जहल के दुर्व्यवहार को देखते हुए पहली बार उसे सख्त चतावनी दी और साथ ही क़ुरैश सरदारों को भी अंजाम भुगतने को तैयार रहने को कहा ।
इसके बाद अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) ने अरब के अन्य क़बीलों को इस्लाम कि और बुलाना शुरू किया इससे मदीना में इस्लाम फैलने लगा ।
मदीना वासियों ने अल्लाह के रसूल कि बातों पर ईमान ( यानि विश्वास ) लाने के साथ आप ( सल्ल० ) की सुरक्षा करने का भी प्रतिज्ञा की । मदीना वालों ने आपस में तय किया कि इस बार जब हज करने मक्का जायेंगे , अपने प्यारे रसूल ( सल्ल० ) को मदीना आने का निमंत्रण देंगे ।
जब हज का समय आया , तो मदीने से मुसलमानों और ग़ैर मुसलमानों का एक बड़ा क़ाफ़िला हज के लिए मक्का के लिए चला । मदीना के मुसलमानों  की आप ( सल्ल० ) से काबा में मुलाक़ातहुई । इनमें से 75 लोगों ने जिनमें दो औरतें भी थीं पहले से तय की हुई जगह पर रात में फिर अल्लाह के रसूल से मुलाक़ात की । अल्लाह के रसूल  ( सल्ल० ) से बातचीत करने के बाद मदीना वालों ने सत्य की और सत्य को बताने वाले अल्लाह के रसूल  ( सल्ल० ) की रक्षा करने की बैत ( यानि प्रतिज्ञा ) की ।
रात में हुई प्रतिज्ञा की ख़बर क़ुरैश को मिल गई थी । सुबह क़ुरैश को जब पता चला की मदीना वाले निकल गए ,तो उन्होंने उन का पीछा किया पर वे पकड़ में न आये । लेकिन उनमें एक व्यक्ति सआद ( रज़ि०) पकड़ लिये गए । क़ुरैश उन्हें मरते-पीटते बाल पकड़ कर घसीटते हुए मक्का लाए ।
मक्का के मुसलमानों के लिये क़ुरैश के अत्याचार असहनीय हो चुके थे । इससे आप ( सल्ल० ) ने मुसलमानों को मदीना चले जाने ( हिजरत ) के लिये  कहा और हिदायत दी कि एक-एक , दो-दो करके निकलो ताकि क़ुरैश तुम्हारा इरादा भांप न सकें । मुसलमान चोरी-छिपे मदीने की ओर जाने लगे । अधिकांश मुस्लमान निकल गए लेकिन कुछ क़ुरैश की पकड़ में आ गए और क़ैद कर लिये गए । उन्हें बड़ी बेरहमी से सताया गया ताकि वे मुहम्मद ( सल्ल० ) के बताये धर्म को छोड़ कर अपने बाप-दादा के धर्म में लौट आएं ।
अब मक्का में इन बंदी मुसलमानों के अलावा अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ), अबू-बक्र (रज़ि० ), और अली ( रज़ि० ) ही बचे थे ,जिन पर काफ़िर क़ुरैश घात लगाये बैठे थे ।
मदीना के लिये मुसलमानों की हिजरत से यह हुआ कि मदीना में इस्लाम का प्रचार-प्रसार शुरू हो गया । लोग तेज़ी से मुसलमान बनने लगे ।मुसलमानों का ज़ोर बढ़ने  लगा । मदीना में मुसलमानों की बढ़ती ताक़त देखकर क़ुरैश चिंतित हुए । अत: एक दिन क़ुरैश अपने मंत्रणागृह 'दरुन्न्दवा ' में  जमा हुए । यहाँ सब ऐसी तरकीब सोचने लगे जिससे मुहम्मद का ख़ात्मा हो जाये और इस्लाम का प्रवाह रुक जाये । अबू-जहल के प्रस्ताव पर सब की राय से तय हुआ कि क़बीले से एक-एक व्यक्ति को लेकर एक साथ मुहम्मद पर हमला बोलकर उन कि हत्या कर दी जाए । इससे मुहम्मद के परिवार वाले तमाम सम्मिलित क़बीलों का मुक़ाबला नहीं कर पायेंगे और समझौता करने को मजबूर हो जायेंगे ।
फिर पहले से तय कि हुई रात को काफिरों ने हत्या के लिए मुहम्मद ( सल्ल० ) के घर को हर तरफ से घेर लिया जिससे कि मुहम्मद ( सल्ल०) के बाहर निकलते ही आप कि हत्या कर दें । अल्लाह ने इस ख़तरे से आप ( सल्ल० ) को सावधान कर दिया । आप ( सल्ल० ) ने अपने चचेरे भाई अली ( रज़ि० ) जो आपके साथ रहते थे से कहा:-
" अली ! मुझ को अल्लाह से हिजरत का आदेश मिल चुका है । काफ़िर हमारी हत्या के लिए हमारे घर को घेरे हुए हैं । मैं मदीना जा रहा हूँ तुम मेरी चादर ओढ़ कर सो जाओ , अल्लाह तुम्हारी रक्षा करेगा , बाद में तुम भी मदीना चले आना । "
हजरत मुहम्मद ( सल्ल० ) अपने प्रिय साथी अबू-बक्र ( रज़ि० ) के साथ मक्का से मदीना के लिए निकले । मदीना , मक्का से उत्तर दिशा की ओर है , लेकिन दुश्मनों को धोखे में रखने के लिये आप ( सल्ल० ) मक्का से दक्षिण दिशा में यमन के रास्ते पर सौर की गुफ़ा में पहुंचे । तीन दिन उसी गुफ़ा में ठहरे रहे । जब आप ( सल्ल० ) व हज़रत अबू-बक्र ( रज़ि० ) की तलाश बंद हो गयी तब आप ( सल्ल० ) व अबू-बक्र ( रज़ि० ) गुफ़ा से निकल कर मदीना की ओर चल दिये ।कई दिन-रात चलने के बाद 24 सितम्बर सन 622  ई० को मदीना से पहले कुबा नाम की एक बस्ती में पहुंचे जहाँ के कई परिवार आबाद थे । यहाँ आपने एक मस्जिद की बुनियाद डाली, जो ' कुबा मस्जिद ' के नाम से प्रसिद्ध है । यहीं पर अली ( रज़ि० ) की आप से ( सल्ल०) से मुलाक़ात हो गई । कुछ दिन यहाँ ठरहने के बाद आप ( सल्ल० ) मदीना पहुंचे । मदीना पहुँचने पर आप ( सल्ल० ) का सब ओर भव्य हार्दिक स्वागत हुआ ।
अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के मदीना पहुँचने के बाद वहां एकेश्वरवादी सत्य-धर्म इस्लाम बड़ी तेज़ी से बढ़ने लगा । हर ओर ' ला इला-ह इल्लल्लाह मुहम्म्दुर्रुसूल्ल्लाह ' यानि ' अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं और मुहम्मद ( सल्ल० ) अल्लाह के रसूल हैं ।' की गूँज सुनाई देने लगी ।
काफ़िर क़ुरैश , मुनाफिकों ( यानि कपटाचारियों ) की मदद से मदीना की ख़बर लेते रहते । सत्य धर्म इस्लाम का प्रवाह रोकने के लिये , अब वे मदीना पर हमला करने की योजनायें बनाने लगे ।
एक तरफ़ क़ुरैश लगातार कई सालों से मुसलमानों पर हर तरह के अत्याचार करने के साथ-साथ उन्हें नष्ट करने पर उतारू थे , वहीँ दूसरी तरफ़ आप ( सल्ल० ) पर विश्वास लेन वालों ( यानी मुसलमानों ) को अपना वतन छोड़ना पड़ा , अपनी दौलत , जायदाद छोड़नी पड़ी इसके बाद भी मुस्लमान सब्र का दमन थामे ही रहे । लेकिन अत्याचारियों ने मदीना में भी उनका पीछा न छोड़ा और एक बड़ी सेना के साथ मुसलमानों पर हमला कर दिया ।जब पानी सिर से ऊपर हो गया तब अल्लाह ने भी मुसलमानों  को लड़ने की इजाज़त दे दी । अल्लाह का हुक्म आ पहुंचा -" जिन मुसलमानों से  ( खामखाह ) लड़ाई की जाती है; उन को इजाज़त है ( कि वे भी लड़ें ), क्योंकि उन पर ज़ुल्म हो रहा है और ख़ुदा ( उनकी मदद करेगा, वह ) यक़ीनन उन की मदद पर क़ुदरत रखता है ।"-कुरआन, सूरा 22, आयत 39
असत्य के लिए लड़ने वाले अत्याचारियों से युद्ध करने का आदेश अल्लाह की ओर से आ चुका था । मुसलमानों को भी सत्य-धर्म इस्लाम की रक्षा के लिए तलवार उठाने की इजाज़त मिल चुकी थी ।अब जिहाद ( यानि असत्य और आतंकवाद के विरोध के लिए प्रयास  ) शुरू हो गया ।
सत्य की स्थापना के लिए और अन्याय , अत्याचार तथा आतंक की समाप्ति के लिए किये गए जिहाद ( धर्मरक्षा व आत्मरक्षा के लिए युद्ध ) में अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) की विजय होती रही । मक्का व आस पास के काफ़िर मुशरिक औंधे  मुंह गिरे ।
इसके बाद पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० )  दस हज़ार मुसलमानों की सेना के साथ मक्का में असत्य व आतंकवाद की जड़ को समाप्त करने के लिए चले । अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) की सफ़लताओं और मुसलमानों की अपार शक्ति को देख मक्का के काफ़िरोंने हतियार डाल दिए । बिना किसी खून-खराबे के मक्का फ़तेह कर लिया गया । इस तरह सत्य और शांति की जीत तथा असत्य और आतंकवाद की हार हुई ।
मक्का । वही मक्का जहाँ कल अपमान था, आज स्वागत हो रहा था । उदारता और दयालुता की मूर्ति बने अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) ने सभी लोगों को माफ़ कर दिया , जिन्होनें आप और मुसलमानों पर बेदर्दी से ज़ुल्म किया तथा अपना वतन छोड़ने को मजबूर किया था । आज वे ही मक्का वाले अल्लाह के रसूल के सामने ख़ुशी से कह रहे थे -
"ला इला-ह इल्लल्लाह  मुहम्म्दुर्रसूलुल्लाह "
और झुंड के झुंड प्रतिज्ञा ले रहे थे :
" अश्हदु अल्ला इलाहा इल्लल्लाहु व अश्हदु अन्न मुहम्म्दुर्रसूलुल्लाह"
( मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं और मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद ( सल्ल० ) अल्लाह के रसूल हैं । )
हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की पवित्र जीवनी पढ़ने के बाद मैंने पाया कि आप ( सल्ल० ) ने एकेश्वरवाद के सत्य को स्थापित करने के लिए अपार कष्ट झेले ।
मक्का के काफ़िर सत्य कि राह में रोड़ा डालने के लिए आप को तथा आपके बताये सत्य पर चलने वाले मुसलमानों को लगातार तेरह सालों तक हर तरह से प्रताड़ित व अपमानित करते रहे । इस घोर अत्याचार के बाद भी आप ( सल्ल० ) ने धैर्य बनाये रखा । यहाँ तक कि आप को अपना वतन छोड़ कर मदीना जाना पड़ा । लेकिन मक्का के मुशरिक कुरैश ने आप ( सल्ल० ) का व मुसलमानों का पीछा यहाँ भी नहीं छोड़ा । जब पानी सिर से ऊपर हो गया तो अपनी व मुसलमानों कि तथा सत्य कि रक्षा के लिए मजबूर होकर आप को लड़ने पड़ा । इस तरह आप पर व मुसलमानों पर लड़ाई थोपी गई 

इन्हीं परीस्थितियों में सत्य कि रक्ष के लिए जिहाद ( आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लीयते धर्म युद्ध ) कि आयतें और अन्यायी तथा अत्याचारी काफ़िरों व मुशरिकों  को दंड देने वाली आयतें अल्लाह कि ओर से आप ( सल्ल० ) पर असमान से उतरीं 

पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) द्वारा लड़ी गई लड़ाईयां 
आक्रमण के लिए न होकर, आक्रमण व आतंकवाद से बचाव के लिए थीं, क्योंकि अत्याचारियों के साथ ऐसा किये बिना शांति की स्थापना नहीं हो सकती थी 
अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) ने सत्य तथा शांति के लिये अंतिम सीमा तक धैर्य रखा और धैर्य की अंतिम सीमा से युद्ध की शुरुआत होती है । इस प्रकार का युद्ध ही धर्म युद्ध ( यानि जिहाद ) कहलाता है ।
विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि कुरैश जिन्होंने आप व मुसलमानों पर भयानक अत्याचार किये थे, फ़तह मक्का ( यानि मक्का विजय ) के दिन थर-थर कांप रहे थे कि आज क्या होगा? लेकिन आप ( सल्ल० ) ने उन्हें माफ़ कर गले लगा लिया ।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) की इस पवित्र जीवनी से सिद्ध होता है कि इस्लाम का अंतिम उद्देश्य दुनिया में सत्य और शांति कि स्थापना और आतंकवाद का विरोध है ।
अत: इस्लाम कि हिंसा व आतंक से जोड़ना सबसे बड़ा असत्य । यदि कोई घटना होती है तो उसको इस्लाम से या सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय से जोड़ा नहीं जा सकता ।

भाग 2 
अब इस्लाम को विस्तार से जानने के लिये इस्लाम की बुनियाद क़ुरआन की ओर चलते हैं ।
इस्लाम, आतंक है ? या आदर्श । यह जानने के लिये मैं क़ुरआन माजिद की कुछ आयतें दे रहा हूँ जिन्हें मैंने मौलाना फ़तेह मोहम्मद खां जालंधरी द्वारा हिंदी में अनुवादित और महमूद एंड कंपनी मरोल पाइप लाइन मुंबई -  59 से प्रकाशित क़ुरआन माजिद से लिया है ।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि कुरआन का अनुवाद करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता है कि किसी भी आयत का भावार्थ ज़रा भी न बदलने पाये । क्योंकि किसी भी क़ीमत पर यह बदला नहीं जा सकता । इसलिए अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग अनुवादकों द्वारा कुरआन माजिद के किये गये अनुवाद का भाव एक ही रहता है ।
क़ुरआन की शुरुआत ' बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम 'से होती है , जिसका अर्थ है -शुरू अल्लाह का नाम लेकर , जो बड़ा कृपालु , अत्यंत दयालु है ।"
ध्यान दें । ऐसा अल्लाह जो बड़ा कृपालु और अत्यंत दयालु है वह ऐसे फ़रमान कैसे जरी कर सकता है, जो किसी को कष्ट पहुँचाने वाले हों अथवा हिंसा या आतंक फैलाने वाले हों ? अल्लाह की इसी कृपालुता और दयालुता का पूर्ण प्रभाव अल्लाह के रसूल सल्ल० ) के व्यावहारिक जीवन में देखने को मिलता है ।
क़ुरआन 
की आयतों से व पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) की जीवनी से पता चलता है कि मुसलमानों को उन काफ़िरों से लड़ने का आदेश दिया गया जो आक्रमणकारी थे, अत्यचारी थे । यह लड़ाई अपने बचाव के लिये थीं । देखें क़ुरआन माजिद में अल्लाह के आदेश: और ( ऐ मुहम्मद ! उस वक़्त को याद करो ) जब काफ़िर लोग तुम्हारे बारे में चाल चल रहे थे कि तुम को क़ैद कर दें या जान से मार डालें या ( वतन से ) निकल दें तो ( इधर से ) वे चाल चाल रहे थे और ( उधर ) ख़ुदा चाल चाल रहा था और ख़ुदा सबसे बेहतर चाल चलने वाला है ।- क़ुरआन , सूरा 8, आयत -30 ये लोग हैं कि अपने घरों से ना-हक़ निकल दिए गये , ( उन्होंने कुछ कुसूर नहीं किया ) हां, यह कहते हैं कि हमारा परवरदिगार ख़ुदा है और अगर ख़ुदा लोगों को एक-दूसरे से न हटाता  रहता तो ( राहिबों के ) पूजा-घर और ( ईसाईयों के ) गिरजे और ( यहूदियों  की ) और ( मुसलमानों की ) मस्जिदें , जिन में ख़ुदा का बहुत-सा ज़िक्र किया जाता है, गिराई जा चुकी होतीं । और जो शख्स ख़ुदा की मदद करता है, ख़ुदा उस की मदद ज़रूर करता है । बेशक ख़ुदा ताक़त वाला और ग़ालिब ( यानी प्रभुत्वशाली ) है ।-क़ुरआन , सूरा 22, आयत - 40
ये क्या कहते हैं कि इस ने क़ुरान खुद बना लिया है ? कह दो कि अगर सच्चे हो तुम भी ऐसी दस सूरतें बना लाओ और ख़ुदा के सिवा जिस-जिस को बुला सकते हो , बुला लो ।-क़ुरआन, सूरा 11, आयत -13 ( ऐ पैग़म्बर ! ) काफ़िरों का शहरों में चलना-फिरना तुम्हें धोखा न दे ।
-क़ुरआन , सूरा 3, आयत -196
जिन मुसलमानों से ( खामखाह ) लड़ाई की जाती है, उन को इजाज़त है ( की वे भी लड़ें ), क्योंकि उन पर ज़ुल्म हो रहा है और ख़ुदा ( उन की मदद करेगा ,वह ) यक़ीनन उन की मदद पर क़ुदरत रखता है ।
-क़ुरआन, सूरा 22, आयत-39
और उनको ( यानि काफ़िर क़ुरैश को ) जहां पाओ , क़त्ल कर दो और जहां से उन्होंने तुमको निकला है ( यानि मक्का से ) वहां से तुम भी उनको  निकल दो ।
-क़ुरआन , सूरा 2, आयत-191
जो लोग ख़ुदा और उसके रसूल से लड़ाई करें और मुल्क में फ़साद करने को दौड़ते फिरें, उन की यह सज़ा है की क़त्ल कर दिए जाएं या सूली पर चढ़ा दिए जाएं या उन के एक-एक तरफ़ के हाथ और एक-एक तरफ़ के पांव कट दिए जाएँ । यह तो दुनियां में उनकी रुसवाई है और आख़िरत ( यानी क़ियामत के दिन ) में उनके लिए बड़ा ( भारी ) अज़ाब ( तैयार ) है ।
हाँ, जिन लोगों ने इस से पहले की तुम्हारे क़ाबू आ जाएं , तौबा कर ली तो जान रखो की ख़ुदा बख्शने वाला मेहरबान  है ।
-क़ुरआन , सूरा 5 , आयत-33 ,34
इस्लाम के बारे में झूठा प्रचार किया जाता है की कुरआन में अल्लाह के आदेशों के कारण ही मुस्लमान लोग ग़ैर-मुसलमानों का जीना हराम कर देते हैं, जबकि इस्लाम में कहीं भी निर्दोष से लड़ने की इजाज़त नहीं है,भले ही वह काफ़िर या मुशरिक या दुश्मन ही क्यों न हों । विशेष रूप से देखिये अल्लाह के ये आदेश:
जिन लोगों ने तुमसे दीन के बारे में जंग नहीं की और न तुम को तुम्हारे घरों से निकला,उन के साथ भलाई और इंसाफ का सुलूक करने से ख़ुदा तुम को मना नहीं करता । ख़ुदा तो इंसाफ करने वालों को दोस्त रखता है ।
-कुरआन, सूरा 60 , आयत-8
ख़ुदा उन्हीं लोगों के साथ तुम को दोस्ती करने से मना करता है , जिन्होंने तुम से दीन के बारे में लड़ाई की और तुम को तुम्हारे घरों से निकला और तुम्हारे निकलने में औरों की मदद की , तो जो  लोग ऐसों से दोस्ती करेंगे , वही ज़ालिम हैं ।
-क़ुरआन , सूरा 60 , आयत- 9
इस्लाम के दुश्मन के साथ भी ज्यादती करना मना है देखिये:
और जो लोग तुमसे लड़ते हैं, तुम भी ख़ुदा की राह में उनसे लड़ो , मगर ज्यादती न करना की ख़ुदा ज्यादती करने वालों को दोस्त नहीं रखता ।
-क़ुरआन , सूरा 2 , आयत-190
ये ख़ुदा की आयतें हैं, जो हम तुम को सेहत के साथ पढ़ कर सुनाते हैं और अल्लाह अहले-आलम ( अथार्त जनता ) पर ज़ुल्म नहीं करना चाहता ।
-क़ुरआन , सूरा 3 , आयत- 108
इस्लाम का प्रथम उद्देश्य दुनिया में शांति की स्थापना है, लड़ाई तो अंतिम विकल्प है यही तो आदर्श धर्म है, जो नीचे दी गईं इस आयत में दिखाई देता है: ऐ पैग़म्बर ! कुफ्फर से कह दो की अगर वे अपने फ़ेलों से बाज़ न आ जाएँ, तो जो चूका, वह माफ़ कर दिया जायेगा और अगर फिर ( वही हरकतें ) करने लगेंगे तो अगले लोगों का ( जो ) तरीका जरी हो चुका है ( वही उन के हक में बरता जायेगा )
-क़ुरआन  ,सूरा 8 , आयत-38
इस्लाम में दुश्मनों के साथ अच्छा न्याय करने का आदेश, न्याय का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत करता है इसे नीचे दी गई आयत में देखिये:
ऐ इमान वालों ! ख़ुदा के लिए इंसाफ़ की गवाही देने के लिए खड़े हो जाया करो और लोगों की दुश्मनी तुम को इस बात पर तैयार न करे की इंसाफ़ छोड़ दो । इंसाफ़ किया करो क़ि यही परहेज़गारी की बात है और ख़ुदा से डरते रहो । कुछ शक नहीं की ख़ुदा तुम्हारे तमाम कामों से ख़बरदार है ।
-क़ुरआन , सूरा 5 आयत- 8
इस्लाम में किसी निर्दोष कि हत्या की इजाज़त नहीं है ऐसा करने वाले को एक ही सज़ा है, खून के बदले खून । लेकिन यह सज़ा केवल क़ातिल को ही मिलनी चाहिये और इसमें ज़्यादती मना है इसे ही तो कहते हैं सच्चा इंसाफ़ । देखिये नीचे दिया गया अल्लाह का यह आदेश:
और जिस जानदार का मारना ख़ुदा ने हराम किया है, उसे क़त्ल न करना मगर जायज़ तौर पर ( यानि शरियत के फ़तवे के मुताबिक़ ) और जो शख्स ज़ुल्म से क़त्ल किया जाये , हम ने उसके वारिस को अख्तियार दिया है ( की ज़ालिम क़ातिल से बदला ले ) तो उसे चाहिये की क़त्ल ( के किसास ) में ज़्यादती न करे की वह मंसूर व फ़तेहयाब है ।
-क़ुरआन , सूरा 17 , आयत -33इस्लाम द्वारा, देश में हिंसा ( फ़साद ) करने की इजाज़त नहीं है । देखिये अल्लाह का यह आदेश: 
लोगों को उन की चीज़ें कम न दिया करो और मुल्क में फ़साद न करते फिरो।
-क़ुरआन , सूरा 26 , आयत-183
ज़ालिमों को अल्लाह की चेतावनी :
जो लोग ख़ुदा की आयतों को नहीं मानते और नबियों को ना-हक़ क़त्ल करते रहे हैं जो इंसाफ़ करने का हुक्म देते हैं , उन्हें भी मार डालते हैं उन को दुःख देने वाले अज़ाब की ख़ुश ख़बरी सुना दो ।
-क़ुरआन , सूरा 3 , आयत-21
सत्य के लिए कष्ट सहने  वाले, लड़ने-मरने वाले इश्वर की कृपा के पात्र होंगे, उस के प्रिये होंगे :तो परवरदिगार ने उन की दुआ क़ुबूल कर ली। ( और फ़रमाया ) की मैं किसी अमल करने वाले को, मर्द हो या औरत ज़ाया नहीं करता। तुम एक दुसरे की जींस हो , तो जो लोग मेरे लिए वतन छोड़ गए और अपने घरों से निकले गये  और सताये गये और लड़े और  क़त्ल किये गये में उनके गुनाह दूर कर दूंगा । और उनको बहिश्तों में दाख़िल करूंगा, जिनके नीचे नहरें बह रही हैं । ( यह ) ख़ुदा के यहां से बदला है और ख़ुदा के यहां अच्छा बदला है ।
-क़ुरआन , सूरा ३, आयत-१९५
इस्लाम को बदनाम करने के लिए लिख-लिख कर प्रचारित किया गया की इस्लाम तलवार के बल पर प्रचारित व प्रसारित मज़हब है । मक्का सहित सम्पूर्ण अरब व दुनिया के अधिकांश मुस्लमान,तलवार के जोर पर ही मुस्लमान बनाए गये थे  इस तरह इस्लाम का प्रसार जोर-ज़बरदस्ती से हुआ ।
जबकि इस्लाम में किसी को जोर ज़बरदस्ती से मुस्लमान बनाने की सख्त मनाही है 
 क़ुरआन माजिद में अल्लाह के ये आदेश :
और अगर तुम्हारा परवरदिगार ( यानि अल्लाह ) चाहता, तो जितने लोग ज़मीं पर हैं, सब के सब इमा ले आते । तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करना चाहते हो की वे मोमिन ( यानि मुस्लमान ) हो जाएं ।
-क़ुरआन, सूरा 10 , आयत-99
' शुरू अल्लह का नाम लेकर, जो बड़ा कृपालु, अत्यंत दयालु है ।'
( ऐ पैग़म्बर ! इस्लाम के इन नास्तिकों से ) कह दो कि ऐ काफ़िरों ! ( 1 )
जिन ( बुतों ) को तुम पूजते हो, उन को मैं नहीं पूजता , ( 2 )
और जिस ( ख़ुदा ) की मैं इबादत करता हूँ, उस की तुम इबादत नहीं करते,  ( 3 )
और ( मैं फिर कहता हूँ कि ) जिन की तुम पूजा करते हो, उन की मैं पूजा नहीं करने वाला हूँ । ( 4 )
और न तुम उसकी बंदगी करने वाले ( मालूम होते ) हो, जिसकी मैं बंदगी करता हूँ । ( 5 )
तुम अपने दीन पर, मैं अपने दीन पर । ( 6 )
-क़ुरआन , सूरा १०९, आयत-१-६
ऐ पैग़म्बर ! अगर ये लोग तुमसे झगड़ने लगें, तो कहना कि मैं और मेरी पैरवी करने वाले तो ख़ुदा के फ़रमाँबरदार ( अथार्त आज्ञाकारी ) हो चुके और अहले किताब और अन-पढ़ लोगों से कहो कि क्या तुम भी ( ख़ुदा के फ़रमाँबरदार बनते और ) इस्लाम लाते हो ? अगर ये लोग इस्लाम ले आयें तो बेशक हिदायत पा लें और अगर ( तुम्हारा कहा ) न मानें, तो तुम्हारा काम सिर्फ ख़ुदा का पैग़ाम पहुंचा देना है ।  और ख़ुदा ( अपने ) बन्दों को देख रहा है ।
-क़ुरआन , सूरा 3 , आयात-20
कह दो कि ऐ अहले किताब ! जो बात हमारे और तुम्हारे दरमियां एक ही ( मान ली गयी ) है , उसकी तरफ़ आओ, वह यह कि ख़ुदा के सिवा किसी की पूजा न करें और उसके साथ किसी चीज़ को शरीक ( यानि साझी ) न बनायें और हममें से कोई किसी को ख़ुदा के सिवा अपना करसाज़ न समझे । अगर ये लोग ( इस बात को ) न मानें तो ( उनसे ) कह दो कि तुम गवाह रहो कि हम ( ख़ुदा के ) फ़रमाँबरदार हैं ।
-क़ुरआन , सूरा 3 , आयात-64
इस्लाम में , ज़ोर ज़बरदस्ती से धर्म परिवर्तन कि मनाही के साथ-साथ इससे भी आगे बढ़ कर किसी भी प्रकार कि ज़ोर-ज़बरदस्ती कि इजाज़त नहीं है । देखिये अल्लाह का यह आदेश :
दिने इस्लाम में ज़बरदस्ती नहीं है 

-क़ुरआन , सूरा 2 , आयात-256
हाँ, जो बुरे काम करे और उसके गुनाह ( हर तरफ़ से ) उसको घेर लें तो ऐसे लोग दोज़ख ( में जाने ) वाले हैं । ( और ) हमेशा उसमें ( जलते ) रहेंगे ।
-क़ुरआन , सूरा 2 , आयात-81 निष्कर्ष- पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की जीवनी व कुरआन मजीद की आयतों को देखने के बाद स्पष्ट है की हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की करनी और कुरआन की कथनी में कहीं भी आतंकवाद नहीं है ।
इससे सिद्ध होता है की इस्लाम की अधूरी जानकारी रखने वाले ही अज्ञानता के कारन इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ते हैं ।

Saturday, October 12, 2013

मुसलमान मांस क्यों खाते हैं?



जानवरों की हत्या एक क्रूर निर्दयतापूर्ण कार्य है। मुसलमान मांस क्यों खाते हैं??..

मुसलमान मांस क्यों खाते है? और हिन्दुइस्म पुरानो में भी मांस खाने की इज़ाज़त दी गयी है, इस पोस्ट को हर तरफ फैलाये.....

शाकाहार ने अब संसार भर में एक आन्दोलन का रूप ले लिया है। बहुत से लोग तो इसको जानवरों के अधिकार से जोड़ते हैं। निस्संदेह लोगों की एक बड़ी संख्या मांसाहारी है और थोड़े से लोग मांस खाने को जानवरों के अधिकारों का हनन मानते हैं।इस्लाम प्रत्येक जीव एवं प्राणी के प्रति स्नेह और दया का निर्देश देता है। साथ ही इस्लाम इस बात पर भी ज़ोर देता है कि अल्लाह ने पृथ्वी, पेड़-पौधे और छोटे-बड़े हर प्रकार के जीव-जन्तुओं को इंसान के लाभ के लिए पैदा किया है। अब यह इंसान पर निर्भर करता है कि वह ईश्वर की दी हुई नेमत और अमानत के रूप में मौजूद प्रत्येक स्रोत को वह किस प्रकार उचित रूप से इस्तेमाल करता है।आइए इस तथ्य के अन्य पहलुओं पर विचार करते हैं—1. एक मुसलमान पूर्ण शाकाहारी हो सकता हैएक मुसलमान पूर्ण शाकाहारी होने के बावजूद एक अच्छा मुसलमान हो सकता है। मांसाहारी होना एक मुसलमान के लिए ज़रूरी नहीं है।

2. पवित्र कु़रआन मुसलमान को मांसाहार की अनुमति देता हैपवित्र क़ुरआन मुसलमानों को मांसाहार की इजाज़त देता है। निम्न क़ुरआनी आयतें इस बात का सुबूत हैं—‘‘ऐ ईमान वालो! प्रत्येक कर्तव्य का निर्वाह करो। तुम्हारे लिए चैपाए जानवर जायज़ हैं केवल उनको छोड़कर जिनका उल्लेख किया गया है।’’
(क़ुरआन, 5:1)

‘‘रहे पशु, उन्हें भी उसी ने पैदा किया, जिनमें तुम्हारे लिए गर्मी का सामान (वस्त्र) भी है और हैं अन्य कितने ही लाभ। उनमें से कुछ को तुम खाते भी हो।’’
(क़ुरआन, 16:5)

‘‘और मवेशियों में भी तुम्हारे लिए ज्ञानवर्धक उदाहरण हैं। उनके शरीर के भीतर हम तुम्हारे पीने के लिए दूध पैदा करते हैं, और इसके अतिरिक्त उनमें तुम्हारे लिए अनेक लाभ हैं, और जिनका मांस तुम प्रयोग करते हो।’’
(क़ुरआन, 23:21)


3. मांस पौष्टिक आहार है और प्रोटीन से भरपूर हैमांसाहारी खाने भरपूर उत्तम प्रोटीन का अच्छा स्रोत हैं। इनमें आठों आवश्यक अमीनो एसिड पाए जाते हैं जो शरीर के भीतर नहीं बनते और जिसकी पूर्ति आहार द्वारा की जानी ज़रूरी है। मांस में लोह, विटामिन बी-1 और नियासिन भी पाए जाते हैं।


4. इंसान के दाँतों में दो प्रकार की क्षमता हैयदि आप घास-फूस खाने वाले जानवरों जैसे भेड़, बकरी अथवा गाय के दाँत देखें तो आप उन सभी में समानता पाएँगे। इन सभी जानवरों के दाँत चपटे होते हैं, जो घास-फूस खाने के लिए उचित हैं। यदि आप मांसाहारी जानवरों जैसे शेर, चीता अथवा बाघ इत्यादि के दाँत देखें तो आप उनमें नुकीले दाँत भी पाएँगे जो कि मांस को खाने में मदद करते हैं। यदि मनुष्य के दाँतों का अध्ययन किया जाए तो आप पाएँगे कि उनके दाँत नुकीले और चपटे दोनों प्रकार के हैं। इस प्रकार वे वनस्पति और मांस खाने में सक्षम होते हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि यदि सर्वशक्तिमान परमेश्वर मनुष्य को केवल सब्जि़याँ ही खिलाना चाहता तो उसे नुकीले दाँत क्यों देता? यह इस बात का प्रमाण है कि उसने हमें मांस एवं सब्जि़याँ दोनों को खाने के अनुकूल बनाया है।


5. इंसान मांस अथवा सब्जि़याँ दोनों पचा सकता हैशाकाहारी जानवरों के पाचनतंत्र केवल सब्जि़याँ ही पचा सकते हैं और मांसाहारी जानवरों के पाचनतंत्र केवल मांस पचाने में सक्षम हैं, परंतु इंसान के पाचनतंत्र सब्जि़याँ और मांस दोनों पचा सकते हैं। यदि सर्वशक्तिमान ईश्वर हमें केवल सब्जि़याँ ही खिलाना चाहता है तो वह हमें ऐसा पाचनतंत्र क्यों देता जो मांस एवं सब्ज़ी दोनों को पचा सके।


6. हिन्दू धार्मिक ग्रंथ मांसाहार की अनुमति देते हैं बहुत से हिन्दू शुद्ध शाकाहारी हैं। उनका विचार है कि मांस-सेवन धर्म विरुद्ध है। परंतु सत्य यह है कि हिन्दू धर्म ग्रंथ इंसान को मांस खाने की इजाज़त देते हैं। ग्रंथों में उन साधुओं और संतों का वर्णन है जो मांस खाते थे।

(क) हिन्दू क़ानून पुस्तक मनुस्मृति के अध्याय 5 सूत्र 30 में वर्णन है कि—‘‘वे जो उनका मांस खाते हैं जो खाने योग्य हैं, कोई अपराध नहीं करते हैं, यद्यपि वे ऐसा प्रतिदिन करते हों, क्योंकि स्वयं ईश्वर ने कुछ को खाने और कुछ को खाए जाने के लिए पैदा किया है।’’

(ख) मनुस्मृति में आगे अध्याय 5 सूत्र 31 में आता है—‘‘मांस खाना बलिदान के लिए उचित है, इसे दैवी प्रथा के अनुसार देवताओं का नियम कहा जाता है।’’

(ग) आगे अध्याय 5 सूत्र 39 और 40 में कहा गया है कि—‘‘स्वयं ईश्वर ने बलि के जानवरों को बलि के लिए पैदा किया, अतः बलि के उद्देश्य से की गई हत्या, हत्या नहीं।’’


महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 88 में धर्मराज युधिष्ठिर और पितामह भीष्म के मध्य वार्तालाप का उल्लेख किया गया है कि कौन से भोजन पूर्वजों को शांति पहुँचाने हेतु उनके श्राद्ध के समय दान करने चाहिएँ।प्रसंग इस प्रकार है—‘‘युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘हे महाबली! मुझे बताइए कि कौन-सी वस्तु जिसको यदि मृत पूर्वजों को भेंट की जाए तो उनको शांति मिलेगी? कौन-सा हव्य सदैव रहेगा? और वह क्या है जिसको यदि पेश किया जाए तो अनंत हो जाए?’’भीष्म ने कहा, ‘‘बात सुनो, ऐ युधिष्ठिर कि वे कौन-सी हवि हैं जो श्राद्ध रीति के मध्य भेंट करना उचित हैं। और वे कौन से फल हैं जो प्रत्येक से जुड़े हैं? और श्राद्ध के समय सीसम बीज, चावल, बाजरा, माश, पानी, जड़ और फल भेंट किया जाए तो पूर्वजों को एक माह तक शांति रहती है। यदि मछली भेंट की जाएँ तो यह उन्हें दो माह तक राहत देती हैं। भेड़ का मांस तीन माह तक उन्हें शांति देता है। ख़रगोश का मांस चार माह तक, बकरी का मांस पाँच माह और सूअर का मांस छः माह तक, पक्षियों का मांस सात माह तक, ‘प्रिष्टा’ नाम के हिरन के मांस से वे आठ माह तक और ‘‘रूरू’’ हिरन के मांस से वे नौ माह तक शांति में रहते हैं। Gavaya के मांस से दस माह तक, भैंस के मांस से ग्यारह माह और गौ मांस से पूरे एक वर्ष तक। पायस यदि घी में मिलाकर दान किया जाए तो यह पूर्वजों के लिए गौ मांस की तरह होता है। वधरीनासा (एक बड़ा बैल) के मांस से बारह वर्ष तक और गैंडे का मांस यदि चंद्रमा के अनुसार उनको मृत्य वर्ष पर भेंट किया जाए तो यह उन्हें सदैव सुख-शांति में रखता है। क्लास्का नाम की जड़ी-बूटी, कंचना पुष्प की पत्तियाँ और लाल बकरी का मांस भेंट किया जाए तो वह भी अनंत सुखदायी होता है।अतः यह स्वाभाविक है कि यदि तुम अपने पूर्वजों को अनंत सुख-शांति देना चाहते हो तो तुम्हें लाल बकरी का मांस भेंट करना चाहिए।’’


7. वर्तमान हिन्दू मत अन्य धर्मों से प्रभावितयद्यपि हिन्दू ग्रंथ अपने मानने वालों को मांसाहार की अनुमति देते हैं फिर भी बहुत से हिन्दुओं ने शाकाहारी व्यवस्था अपना ली, क्योंकि वे जैन जैसे धर्मों से प्रभावित हो गए थे।

8. पेड़-पौधों में भी जीवनकुछ धर्मों ने शुद्ध शाकाहार को अपना लिया क्योंकि वे पूर्ण रूप से जीव-हत्या के विरुद्ध हैं। अतीत में लोगों का विचार था कि पौधों में जीवन नहीं होता। आज यह विश्वव्यापी सत्य है कि पौधों में भी जीवन होता है। अतः जीव-हत्या के संबंध में उनका तर्क शुद्ध शाकाहारी होकर भी पूरा नहीं होता।

9. पौधों को भी पीड़ा होती हैवे आगे तर्क देते हैं कि पौधे पीड़ा महसूस नहीं करते; अतः पौधों को मारना जानवरों को मारने की अपेक्षा कम अपराध है। आज विज्ञान कहता है कि पौधे भी पीड़ा अनुभव करते हैं परंतु उनकी चीख़ मनुष्य के द्वारा नहीं सुनी जा सकती है। इसका कारण यह है कि मनुष्य में आवाज़ सुनने की अक्षमता जो श्रुत-सीमा में नहीं आते अर्थात् 20 हर्ट्ज से 20,000 हर्ट्ज तक, इस सीमा के नीचे या ऊपर पड़ने वाली किसी भी वस्तु की आवाज़ मनुष्य नहीं सुन सकता है। एक कुत्ते में 40,000 हर्ट्ज तक सुनने की क्षमता है। इसी प्रकार कुत्ते की ध्वनि की लहर संख्या 20,000 से अधिक और 40,000 हर्ट्ज से कम होती है। इन ध्वनियों को केवल कुत्ते ही सुन सकते हैं, मनुष्य नहीं। एक कुत्ता अपने मालिक की सीटी पहचानता है और उसके पास पहुँच जाता है। अमेरिका के एक किसान ने एक मशीन का आविष्कार किया जो पौधे की चींख को ऊँची आवाज़ में परिवर्तित करती है जिसे मनुष्य सुन सकता है। जब कभी पौधे पानी के लिए चिल्लाते तो उस किसान को इसका तुरंत ज्ञान हो जाता है।वर्तमान के अध्ययन इस तथ्य को उजागर करते हैं कि पौधे भी पीड़ा, दुख और सुख का अनुभव करते हैं और वे चिल्लाते भी हैं।

10. दो इंद्रियों से वंचित प्राणी की हत्या कम अपराध नहींएक बार एक शाकाहारी ने अपने पक्ष में तर्क दिया कि पौधों में दो अथवा तीन इंद्रियाँ होती हैं जबकि जानवरों में पाँच होती हैं। अतः पौधों की हत्या जानवरों की हत्या के मुक़ाबले में छोटा अपराध है। कल्पना करें कि अगर किसी का भाई पैदाइशी गूंगा और बहरा है और दूसरे मनुष्य के मुक़ाबले उसके दो इंद्रियाँ कम हैं। वह जवान होता है और कोई उसकी हत्या कर देता है तो क्या आप न्यायधीश से कहेंगे कि वह दोषी को कम दंड दे क्योंकि उसके भाई की दो इंद्रियाँ कम हैं और मरते वक़्त वह दर्द से चिल्लाया नहीं था। वास्तव में उसको यह कहना चाहिए कि उस अपराधी ने एक गूंगे व्यक्ति की हत्या की है और न्यायधीश को उसे कड़ी से कड़ी सज़ा देनी चाहिए।


पवित्र क़ुरआन में कहा गया है—‘‘ऐ लोगो! खाओ जो पृथ्वी पर है परंतु पवित्र और जायज़।’’ (क़ुरआन, 2:168).

इस पोस्ट को फैलाये और अपने नोन मुस्लिम दोस्तों की गलत फ़हमी दूर करे..

Wednesday, October 9, 2013

क्या राम चन्द्र जी भगवान है ? - जवाब (अहमद पंडित )


क्या राम चन्द्र जी भगवान है ? - जवाब (अहमद पंडित )




Ex Acharya Sanjaya Prasad Duedi (Now Ahmed Pandit) gives an excellent answer on Ram worshiping another God and says other to worship the same God to whome Ram worships

पूर्व आचार्य संजया परसाद दिवेदी (अब अहमद पंडित) 

Tuesday, October 8, 2013

ब्राह्मणों के वेद -शस्त्रों मे मांस -भक्षण के विधान



ब्राह्मणों के वेद -शस्त्रों मे मांस -भक्षण के विधान ********
वैदिक साहित्य से पता चलता है की प्राचीन आर्य -ऋषि और याज्ञिक ब्राह्मण सूरा-पान और मांसाहार के बड़े शौकीन थे । यज्ञों मे पशु बाली अनिवार्य था बली किए पशु मांस पर पुरोहित का अधिकार होता था ,और वही उसका बटवारा भी करता था । बली पशुओ मे प्राय;घोडा ,गौ ,बैल अज अधिक होते थे.

******ऋग्वेद मे बली के समय पड़े जाने वाले मंत्रो के नमूने पड़िए;-

1- जिन घोड़ो को अग्नि मे बली दी जाती है ,जो जल पिता है जिसके ऊपर सोमरस रहता है ,जो यज्ञ का अनुष्ठाता है ,उसकी एवम उस अग्नि को मै प्रणाम करता हु।
( ऋग्वेद 10,91,14)

2- इंद्रा कहते है ,इंद्राणी के द्वारा प्रेरित किए गए यागिक लोग 15-20 सांड काटते और पकाते है । मै उन्हे खाकर मोटा होता हू । -ऋग्वेद 10,83,14

3- जो गाय अपने शरीर को देवों के लिए बली दिया करती है ,जिन गायों की आहुतियाँ सोम जानते है ,हे इंद्रा! उन गायों को दूध से परिपूर्ण और बच्छेवाली करके हमारे लिए गोष्ठ मे भेज दे ।
- ऋग्वेद 10,16,92

4- हे दिव्य बधिको!अपना कार्य आरंभ करो और तुम जो मानवीय बधिक हो ,वह भी पशु के चरो और आग घूमा चुकाने के बाद पशु पुरोहित को सौप दो। (एतरे ब्राह्मण )

5*-*****एतद उह व परम अन्नधम यात मांसम। (सत्पथ ब्राह्मण 11,4,1,3)
अर्थ ;- सटपथ ब्राह्मण कहता है, की जीतने भी प्रकार के खाद्द अन्न है ,उन सब मे मांस सर्वोतम है

*******इस प्रकार ऐसे कई उदाहरण है जो वेदो-शास्त्रो मे मांस भक्षण के समर्थन मे आपको मिल जाएंगे ।

महर्षि याज्यावल्क्या ने षत्पथ ब्राह्मण (3/1/2/21) में कहा हैं कि: -"मैं गोमांस ख़ाता हू, क्योंकि यह बहुत नरम और स्वादिष्ट है."

आपास्तंब गृहसूत्रां Apastamb Grihsutram (1/3/10) मे कहा गया हैं,"गाय एक अतिथि के आगमन पर, पूर्वजों की'श्रद्धा'के अवसर पर और शादी के अवसर पर बलि किया जाना चाहिए."

ऋग्वेद (10/85/13) मे घोषित किया गया है,"एक लड़की की शादी के अवसर पर बैलों और गायों की बलि की जाती हैं."

पिबा सोममभि यमुग्र तर्द ऊर्वं गव्यं महि गर्णानैन्द्र
वि यो धर्ष्णो वधिषो वज्रहस्त विश्वा वर्त्रममित्रिया शवोभिः ||

वशिष्ठ धर्मसुत्रा (11/34)

लिखा हैं,"अगर एक ब्राह्मण'श्रद्धा'या पूजा के अवसर पर उसे प्रस्तुत किया गया मांस खाने से मना क
र देता है, तो वह नरक में जाता है."पिबा सोममभि यमुग्र तर्द ऊर्वं गव्यं महि गर्णानैन्द्र | वि यो धर्ष्णो वधिषो वज्रहस्त विश्वा वर्त्रममित्रिया शवोभिः ||
वशिष्ठ धर्मसुत्रा (11/34) लिखा हैं,"अगर एक ब्राह्मण'श्रद्धा'या पूजा के अवसर पर उसे प्रस्तुत किया गया मांस खाने से मना कर देता है, तो वह नरक में जाता है."

हिंदू धर्म के सबसे बड़े प्रचारक स्वामी विवेकानंद ने इस प्रकार कहा:"तुम्हें जान कर आश्चर्या होगा है कि प्राचीन हिंदू संस्कार और अनुष्ठानों के अनुसार, एक आदमी एक अच्छा हिंदू नही हो सकता जो गोमांस नहीं खाए. (The Complete Works of Swami Vivekanand, volume.3, page no. 536)
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मधुपर्क म्हणजे गोमांसाचे सूप!
मधुपर्क हा वैदिक संस्कृतीचा अविभाज्य भाग होय. मधुपर्क म्हणजे आदरातिथ्य. आपले नातेवाईक, श्रेष्ठी जण, आदरणीय व्यक्ती इ. कोणीही घरी आले तरी आपण आजही आदरातिथ्य करतो. वैदिक आर्य संस्कृतीत आदरातिथ्य विधिपूर्वक करण्याची प्रथा होती. त्याचे विशिष्ट नियम आश्वलायनाचार्याने सांगितले आहेत. प्राचीन काळचा हा मधुपर्क आता मूळ रूपात दिसून येत नाही. तथापि, त्याचे अवशेष वैदिक वाङ्मयात तसेच अलिकडेपर्यंत रूढ असलेल्या चालिरितीत दिसून येते. लग्नकार्य आणि इतर विवाह प्रसंगी मधुपर्क केला जात असे. आजही मंगलाष्टकांत +मधुपर्क पूजन+ अशी एक ओळ भटजी म्हणतो. 
मधुपर्क म्हणजे मध आणि दूध यांचे मिश्रण अशी दिशाभूल करणारी माहिती ब्राह्मणवादी देत असतात. वस्तुस्थिती अशी आहे की, मांसाशिवाय मधुपर्क होतच नाही. हे मांसही गायीचेच असले पाहिजे, असा स्पष्ट आदेश आश्वलायनाने दिला आहे. अश्वलायनाच्या गृह्यसूत्रात मधुपर्कावर एक स्वतंत्र प्रकरणच आहे. गृह्यसूत्राच्या पहिल्या अध्यात, २४ व्या खंडात हा सर्व भाग येतो. या खंडातले २, ३ आणि ४ क्रमांकाची सूत्रे सांगतात : 
सूत्र : स्नातकायोपस्थिताय ।।२।।
सूत्र : राज्ञेच ।।३।।
सूत्र : आचार्यश्वशुरपितृव्यमातुलानां च ।।४।।
अर्थ : घरी आलेला स्नातक म्हणजेच विद्याध्यन करणारा विद्यार्थी, राजा, आचार्य म्हणजेच गुरू, सासरा, चुलता qकवा मामा यांना मधुपर्क पूजा द्यावी.
गाय मारल्याशिवाय मधुपर्क पूर्ण होत नाही असा आदेश देणारी आश्वलायनाची ही पाहा काही सूत्रे :
सूत्र : आचांतोदकाय गां वेदयंते ।।२३।।
अर्थ : आचमन केलेल्याला गाय निवेदन करावी.
सूत्र : हतो मे पाप्मा पाप्मा मे इत इति जपित्वोमकुरूतेति कारयिष्यन् ।।२४।।
अर्थ : प्रतिग्रहकरत्याच्या मनात गाय मारण्याची इच्छा असेल तर +हतो मे पाप्मा पाप्मा मे हत: + हा मंत्र जपावा. +ओमकुरुत+ म्हणून गाय मारण्याची आज्ञा द्यावी.
सूत्र : नामांसो मधुपर्को भवति भवति ।।२६।।
अर्थ : मांसाखेरीज मधुपर्क होत नाही 
या सूत्रातील शेवटचे २६ क्रमांकाचे सूत्र अत्यंत स्पष्ट आणि महत्त्वाचे आहे. मांसाखेरीज मधुपर्क म्हणजेच पाहुणचार नाही, असा स्पष्ट शास्त्रादेश ब्राह्मणांसाठी देण्यात आला आहे. त्या आधीच्या २५ व्या सूत्रात गाय मारण्याची इच्छा नसल्यास उत्सर्ग करण्याची आज्ञा आहे. उत्सर्ग म्हणजे गाय महाजनांच्या खर्चाने चालणारया पांजरपोळात नेऊन सोडणे. एका अर्थाने तिला जीवदान देणे. २५ वे सूत्र म्हणते की, माता रुद्राणां दुहिता वसुनामिति जपित्वोमुत्सृजतेत्युत्स्त्रक्ष्यन् ।। याचा अर्थ असा की, गायीचा उत्सर्ग करण्याची इच्छा असल्यास +माता रुद्राणाम दुहिता+ या मंत्राचा जप करून ओमउत्सृजत असे म्हणून उत्सर्ग करण्यास सांगावे. २५ व्या सूत्रावरून आपला असा समज होतो की, गायीला सोडले म्हणजे वैदिक सभ्यतेत दयाधर्म यास स्थान आहे. पण तसे होत नाही. पुढचाच श्लोक सांगतो की, +नामांसो मधुपर्को भवति भवति+ या सूत्रावरील भाष्यकार सांगतात की, गाय पांजरपोळात सोडल्यानंतर दुसरे जनावर मारून त्याच्या मांसाने मधुपर्क करावा. 
वैदिक धर्मात दयेला कोणताही थारा नाही. आज हिंदू म्हणवल्या जाणारया धर्मात जी काही भूतदया आहे, ती बौद्ध व जैनांच्या रेट्यामुळे आली आहे. शास्त्राच्या दृष्टीने सर्वाधिक मान्यताप्राप्त असलेल्या याज्ञवल्क्याच्या१ व्यहाराध्यायात पुढील श्लोक आहे :
प्राणात्यये तथा श्राद्धे प्रोक्षितं द्विजकाम्यया ।।
देवान पितृन् समभ्यच्र्य खादन्मांसं न दोषभाक् ।।
त्या काळी म्हातारी जनावरे सांभाळणे अवघड होते. त्यामुळे त्यांचा प्रोक्षणविधि करून या जनावरांची तीन प्रकारे विल्हेवाट लावावी असे हा श्लोक सांगतो. हे तीन प्रकार असे १) ही जनावरे अनुस्तरणी करिता म्हणजे माणसाच्या अंत्यविधीसाठी, अगर श्राद्धासाठी वापरावी २) राजगवी म्हणजेच राजाच्या हवाली करावी. ३) खाण्यासाठी ठार मारावी. खाण्यासाठी प्राणी मारल्यास दोष लागत नाही. मांस भक्षण मद्यपान आणि स्त्रीशी संभोग केल्याने दोष लागत नाही, असे मनुने सांगितल्याचे आपण +गोमांस भक्षक वैदिक ब्राह्मण!+ या प्रकरणात पहिलेच आहे२. याशिवाय वेदाने सांगितलेल्या कर्मासाठी प्राणी मारल्यास त्याला हत्या समजू नये, असा शास्त्रादेश असल्याचेही आपण याच प्रकरणात पाहिले आहे३ .
बौद्ध आणि जैन धर्मातील अहिंसेच्या रेट्यानंतर वैदिकांनी आपल्यात थोडेसे बदल करून हिंसा कमी करण्याचा प्रयत्न केला. तथापि, हिंसा पूर्णपणे संपविली नाही. यासंबंधी मनुस्मृती म्हटले आहे की : 
मधुपर्के च यज्ञेच पितृदैवतकर्मणि ।
अत्रैव पशवो हिंस्या नान्यत्रेत्यब्रवीन्मनु: 
अर्थ : मधुपर्क म्हणजे पाहुणचार, यज्ञ व श्राद्ध या विqधमध्येच पशु मारावेत. अन्यत्र ते मारू नयेत.
याचाच अर्थ मधुपर्क म्हणजे मध आणि दूध यांचे सात्विक मिश्रण, असे जे सांगताना ब्राह्मण खोटे बोलत असतात. आश्वलायनाच्या गृह्यसूत्रातील हे सर्व नियम ऋग्वेदी ब्राह्मणांसाठीच आहेत. त्यामुळे ब्राह्मणांच्या लग्नसमारंभादि विधित पूर्वी गाय मारली जात होती, हे सिद्ध होते. गोमांसापासून बनविलेला मधुपर्काचा सोपा अर्थ म्हणजे गोमांसेचे सूप होय. हे ब्राह्मणांकडून श्रद्धापूर्वक प्राशन केले जात असे. मधुपर्काचे तीन भाग करून ते पिऊन घ्यावेत, असे आश्लायन सांगतो.
आश्लायनाचे यासंबंधीचे सूत्र असे :
विरोजो दोहोऽसीति प्रथमं प्राश्नीयात् । विराजो दोहमशीयेति द्वितीयम् । मयि दोह: पद्यायै विराज इति तृतियम् ।। खंड २४. सूत्र १६
अर्थ : +विराजो दोहोसि+ हा मंत्र म्हणून पहिला भाग प्यावा. +विराजो दोहमशीय+ हा मंत्र म्हणून दुसरा भाग प्यावा. +मयि दोह: पद्यायै विराज:+ हा मंत्र म्हणून मधुपर्काचा तिसरा भाग प्यावा. 
गायीच्या मांसापासून बनविलेले हे सूप वैदिक ब्राह्मणांना अमृतासमान प्रिय होते. आश्वलायनाच्या पुढच्या सूत्रावरून हे स्पष्ट होते. 
अथाचमनीयेनान्वाचामति अमृताऽपिधानमसीति ।। खंड २४. सूत्र २०
अर्थ : नंतर +अमृततापिधानमसि+ हा मंत्र म्हणून शेवटचे आचमन करावे.
अहिंसावादी धर्माचा रेटा वाढल्यानंतर कालांतराने मधुपर्कामधून गाय बाद झाली. गायीच्या जागी बकरयाचा कल्प सांगितला गेला. म्हणजेच गायी ऐवजी बकरा कापून मधुपर्क गेला जाऊ लागला. संस्कारकौस्तुभ या ब्राह्मणी ग्रंथात +गोप्रतिनिधित्वेन छाग आलभ्यते+४ असे म्हटले आहे. याचाच अर्थ गायीचे प्रयोजन जाऊन बकरयाची योजना येथे केलेली दिसते. अहिंसावादाचा आणखी रेटा वाढल्यानंतर बकरा कापण्याची प्रथाही बंद झाली. आता ब्राह्मणांच्या लग्नात विहिणीस +भेट बकरा+ म्हणून एक रूपया दिला जातो. गायीचे प्रयोजन मात्र अजूनही प्रतिकात्मक स्वरूपात सुरूच आहे. विवाह प्रसंगी कणकेची गाय करून ती कापली जाते. 
या सर्व विवेचनावरून एक गोष्ट स्पष्ट होते की, मूळचा वैदिक धर्म हा गायीचे मांस खाणारया रानटी लोकांचा धर्म होता. बौद्ध आणि जैन धर्मातील अहिंसेमुळे लोक या धर्मांकडे आकर्षित होऊ लागले तेव्हा वैदिकांनी आपल्या धर्मातील ही हिंसा बंद केली. म्हणजे मूळ वैदिक धर्म संपला स्वत:ला वैदिक म्हणवणारे वस्तुत: बौद्ध आणि जैन धर्माचेच पालन करीत असतात.

सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित

सनातन धर्म के अध्‍ययन हेतु वेद-- कुरआन पर अ‍ाधारित famous-book-ab-bhi-na-jage-to

 

जिस पुस्‍तक ने उर्दू जगत में तहलका मचा दिया और लाखों भारतीय मुसलमानों को अपने हिन्‍दू भाईयों एवं सनातन धर्म के प्रति अपने द़ष्टिकोण को बदलने पर मजूर कर दिया था उसका यह हिन्‍दी रूपान्‍तर है, महान सन्‍त एवं विद्वान मौलाना आचार्य शम्‍स नवेद उस्‍मानी के ध‍ार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन पर आधारति पुस्‍तक के लेखक हैं, धार्मिक तुलनात्‍मक अध्‍ययन के जाने माने लेखक और स्वर्गीय सन्‍त के प्रिय शिष्‍य एस. अब्‍दुल्लाह तारिक, स्वर्गीय मौलाना ही के एक योग्‍य शिष्‍य जावेद अन्‍जुम (प्रवक्‍ता अर्थ शास्त्र) के हाथों पुस्तक के अनुवाद द्वारा यह संभव हो सका है कि अनुवाद में मूल पुस्‍तक के असल भाव का प्रतिबिम्‍ब उतर आए इस्लाम की ज्‍योति में मूल सनातन धर्म के भीतर झांकाने का सार्थक प्रयास हिन्‍दी प्रेमियों के लिए प्रस्‍तुत है,
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अनुक्रम
(विषय सूची)

समर्पन
अपनी धुन में मगन एक मुसाफिर
प्रस्तुति से पूर्व
दो शब्द

अध्याय1 इन्किलाब की भविष्यवाणीः
काबे का अपमान, निरन्तर अजाब ;दिव्य प्रकोपद्ध
क्या वव्यापक स्तरीय यातना अभी शेष है, कौम के परिवर्तन की चेतावनी
क्या हम अल्लाह की सूची में मोमिन (आस्तिक) हैं?
वह कौन सी कौम हो सकती है?

अ.2 हिन्दू कौम का नबी (ईशदूतद्):
कृष्णा मेनन, आश्चर्यकी मुद्रा में
ह. नूह अलै. की उम्मत (पन्थ) का भी खोया हुआ है
‘हन्दू‘ ह. नूह अलै. की कौम हैं
कुरआन की गवाही

अ. 3 कुरआन में हिन्दू कौम का जिक्र (उल्लेख)
कुरआन पर आरोप
कुरआन में सब कौमों के नामें पर शोध कार्य नहीं हुआ
ह. नूह अलै. की कौम ही साबिईन हैं।

अ.4 समता और आदिकालीन सम्बन्धः
धार्मिक प्रवृतियों एवं सम्बन्धों का निरीक्षण आवश्यक है।
आश्चर्यजनक समानता
हिन्दूओं और मुसलमानों के समान जीवन-मूल्य
सम्बन्ध अनादिकाल से होते हैं
ह. आदम अलै. हिन्दुस्तान में
ह. नूह अलै. हिन्दुस्तान में
कुछ अन्य ईशदूत, हिन्दुस्तान में
 
अरब व हिन्द भौगोलिक दृष्टि से कभी एक थे
धूल की पर्तों पर नई पालिश नहीं चढेगी

अ. 5 सर्वप्रथम दिव्य ग्रन्थ-वेद
वेद का परिचय, पवित्र कैसे मानें?
अभी और परखिये, अन्तिम गवीही शेष है।
अव्वलीन सहाइफ के नाम ढूंडिये
आदि-ग्रन्थ मौजूद हैं
वेद ही आदि-ग्रन्थ हैं।

अ.6 सृष्टि रचना का आरम्भ-हजरत अहमद सल्ल.
हकीकतें अहमदी (अहमदी तत्व)
अहमदी तत्व प्रत्येक पवित्र ग्रन्थ में है।
तर्क संगत प्रमाण
विज्ञान मार्गदर्शन पर आश्रित है।
सरवरे कायनात (जगतगुरू) सल्ल. ही सृष्टि का आरम्भ हैं।
कुरआन से भी प्रमाणित है।

अ. 7 वेदों अग्नि-रहस्य

अ. 8 इस्लाम और हिन्दू धर्म-नामें की समानता
हिन्दू मत का इस्लामी नाम
अल्लाह का नाब सब धर्मों में है
रहमान और रहीम भी

अ.9 वैदिक धर्म में (तौहीद एक-ईश्वर-वाद)

अ. 10 वैदिक धर्म और रिसालत (ईशदूत-पद)
ईशदूतों के वृतांत
वेदों में ह. नूह अलै. का वृतांत

अ. 11 वैदिक धर्म और आखिरत (परलौकिक जीवनक)
पारलौकि शोधकर्ताओं की स्वीकृति
वेदों में जन्नत (स्वर्ग) का वृतांत
दोजख (नरक) का वर्णन
आवागमन की पृष्ठभूमि में एक और त्थ्य

अ. 12 वेदों की कुछ अन्य शिक्षाएं
जुए का निषेध
मद्य निषेध
ब्याज का निषिदध होना
विवाह संस्कारों में सरलता का आदेश
पुरूषों को स्त्रियों के वस्त्र पहनने से रोक
नारी के घरेलू जीवन का आदेश
नारी की लज्जा के आदेश

अ.13 हदीसें और पुराणः भविष्यवाणियों की समानता
हदीस
हरिवंश पुराण और विष्णु पराण

अ. 14 वैदिक धर्म के काबे की हकीकत

अ.15 वेदों में ह. मुहम्मद सल्ल. का मकामे महमूद ;परमपदद्ध

अ.16 वैदिक धर्मं में काना दज्जाल (अन्धक आसुर)

अ. 17 यह रहस्य, रहस्य क्यों रहे?
हिन्दुओं में चली आ रही कुछ निगूढ बातें
मुसमानों की लापरवाही
अ.18 पूर्व ग्रन्थों में आस्था
यह गलतफहमी दूर कीजिए
दीन केवल इस्लाम है लेकिन
कोई भी पूर्व ग्रन्थ निरस्त नहीं किया गया है।
कुरआन से पूर्व के ग्रन्थों पर ईमान लाने का तात्पर्य
यह प्रतिकूलता क्यों प्रतीत हो रही है?
क्या हदीसों में भी परस्पर विरोध है?
यथार्थ पुष्ठ भूमि में देखिये

अ. 19 दावत (आहवान) की कार्यशैली
क्या हिन्दू अहले किताब (पूर्व ग्रन्थ वाले) हैं?
अहले किताब नहीं उम्मिययीन हैं।
आहवान की कार्यशैली-हदीसों की रौशनी में
कुरआन की ज्योति में
हिन्दू धर्म को उस की खोई हुई मौलिकता दीजिये।
ऐतिहासिक विडम्बनाएं
काश मुसलमान यह समझ लें कि।
कम से कम इतना तो कीजिये
अमरीकियों का उदाहरण
सारांश
हिन्दू धर्म-पंडित जानते हैं
युग परिवर्तित होने ही वाला है।
दलीलें खुदावन्दी ;ईश्वरीय प्रमाणद्ध
मुसलमानों का कर्तव्य

अ.20 उन्हें स्वयं भी तलाश है!
कसौटी केवल कुरआन
प्रस्तुति के बाद
संकेत चिहन


झलकी-1
कृष्णा मेनन, आश्चर्य की मुद्रा में
कहा जाता है कि कृष्णा मेनन आने लन्दन प्रवास के दिनों में एक दिन अपनी मित्र मंडली में बैठे हुऐ थे कि अचानक एक दोस्त ने उन्हों संबोधित करते हुए कहाः
‘‘यह सामने बैठा हुआ तुम्हारा मित्र ‘यहूदी‘ है। इस का कहना है कि इस के पास ईश्वर का एक ग्रन्थ है जिस का नाम ‘तौरेत‘ है और यह ईश्वरीय ज्ञान का ग्रंथ ह. मूसा अलै. के माध्यम से दिया गया था।‘‘
‘‘मैं यह बात जानता हूं!‘‘ कृष्णा मेनन ने जवाब दिया। अब उसी मित्र ने एक दूसरे ईसाई मित्र की ओर संकेत करते हुए कहा-- ‘‘यह व्यक्ति ‘ईसाई‘ है और इस का कहना है कि इस के पास भी ईश्वर की एक किताब है जिसका नाम ‘इन्जील‘ है और यह दिव्य ज्ञान की भेंट ईश्वर ने महात्मा ईसा मसीह के द्वारा प्रदान की थी।‘‘
‘‘मैं यह भी जानता हूं!‘‘ कृष्णा मेनन ने हल्की सी मुस्कुराहट के साथ कहा- मानो इन विश्व्यापी तथ्यों को दोहराने पर उन्हें आश्चर्य हो रहा हो लेकिन बोलने वाला पूरी गम्भीरत से बोल रहा था। उसने तीसरा विषय छेडते हुए, और एक मुसलमान दोस्त की ओर इशारा करते हुए कहाः
‘‘यह हमारा मुसलमान दोस्त है और इस का कहना है कि इस के पास भी ईश्वर का एक ग्रन्थ है- ‘कुरआन‘, और ईश्वर ने यह ज्ञान जिस सत्पुरूष के माध्यम से दिया, उस का नाम ह. मुहम्मद सल्ल. है।‘‘
‘‘अरे भाई, मैं यह भी जानता हूं ‘‘कृष्णा मेनन ने आश्चर्यचकित होकर जवाब दिया।
‘‘निस्सन्देह! वही मित्र बोला- ‘‘ हम और तुम यह बातें खूब जानते हैं, लेकिन मित्र! हम में से कोइ्र यह नहीं जानता कि ‘वेद‘ जिस का तुम ठीक उसी तरह ईश्वर का सबसे पहला, सबसे प्राचीन, सबसे श्रेष्ठ ज्ञान और वाणी मानते हो, उसे आदि-ग्रन्थ कहते हो उसको ईश्वर से ग्रहण करने तथा जनसाधारण तक पहुंचाने वाला सर्वप्रथम मानव-माध्यम आखिर कौन था?
कहा जाता है कि पूरी सभा की ओर से इस बार प्रश्नवाचक मुस्कुराहट और आश्चर्य के सामने पहली बार कृष्णा मेनन सिर से पांव तक प्रश्न चिहन बन गन गए। एक ऐसे जिन्तन के सन्नाटे में गुम हो गए जसे पहली बार उन्हें यह एक ठोस सवाल महसूस हुआ हो। मानो पहली बार उन्हें अपने वैदिक विद्वानों के वर्तमान शास्त्रीय दृष्टिकोण में एक वास्तविक अन्तराल की अनुभूति हुई हो। तोरैत, इन्जील और कुरआन के ईश्वर से मानव तक पहुचने के माध्यम तो मालूम हैं, लेकिन यदि वेद देववाणी है तो इसे लाने वाला ईशदूत कौन था? यह घटना चाहे सच्ची हो या मात्र एक कहानी, इसमें शक नहीं है कि यह स्वाभाविक प्रश्न वैदिक धर्म के प्रत्येक अनुयायी के सीने में हजारों वर्षों से अन्दर ही अन्दर निरन्तर खटक रहा होगा।


झलकियां2
 
 

 

 




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Monday, October 7, 2013

जीव हत्तिया और मासाहार (विज्ञान तर्क और धर्म ग्रन्थ)


जीव हत्तिया और मासाहार (विज्ञान तर्क और धर्म गर्न्थो के आधार पर एक विवेचन ) 

खाने-पीने के मामले में कुछ चीज़ें इनसान के लिए हलाल{जायज} हैं और कुछ चीज़ें हराम{निषेद्ध} हैं। हलाल और हराम का यह फ़र्क़ किस बुनियाद पर क़ायम होता है ?
एक वर्ग का यह कहना है कि अस्ल हराम काम यह है कि किसी ज़िन्दगी को हलाक किया जाए। इस मामले में उनका फ़ार्मूला यह है-किसी जीव को मारना वर्जित है और किसी जीव को न मारना सबसे बड़ी नेकी है-
Killing a sensation is sin and vice versa .
यह नज़रिया यक़ीनी तौर पर एक बेबुनियाद नज़रिया है। इसका सबब यह है कि मौजूदा दुनिया में यह सिरे से क़ाबिले अमल ही नहीं है, जैसा कि इस लेख में दूसरे मक़ाम पर बयान किया जाएगा। जीव को मारना हमारा अख्तियार (Option) नहीं है। इनसान जब तक ज़िन्दा है, वह जाने-अन्जाने तौर पर असंख्य जीवों को मारता रहता है। जो आदमी इस ‘पाप‘ से बचना चाहे, उसके लिए दो चीज़ों में से एक का अख्तियार (Option) है। या तो वह खुदकुशी करके अपने आप को ख़त्म कर ले या वह एक और दुनिया बना ले जिसके नियम इस मौजूदा दुनिया के नियमों से अलग हों।
इस्लाम में भोजन में हलाल और हराम का सिद्धांत बुनियादी तौर पर यह है कि चन्द ख़ास चीज़ों को इस्लाम में हराम क़रार दिया गया है। इनके अलावा बाक़ी तमाम चीज़ें इस्लाम में जायज़ आहार की हैसियत रखती हैं।
हलाल और हराम का यह उसूल जो इस्लाम ने बताया है, वह प्रकृति के नियमों पर आधारित है। आज भी एक छोटे से वर्ग को छोड़कर सारी दुनिया हलाल और हराम के इसी उसूल का पालन कर रही है। यह छोटा सा वर्ग भी महज़ कहने के लिए अपना नज़रिया बताता है, वर्ना जहां तक अमल का ताल्लुक़ है, वह भी व्यवहारतः इसी प्राकृतिक नियम पर क़ायम है। मस्लन ये तमाम लोग आम तौर पर दूध और दही वग़ैरह इस्तेमाल करते हैं। पहले ये लोग इस ग़लतफ़हमी में मुब्तिला थे कि दूध और दही वग़ैरह जीव रहित आहार हैं, लेकिन अब वैज्ञानिक रूप से यह साबित हो चुका है कि ये सब पूरी तरह जैविक आहार हैं। जिस आदमी को इस बात पर शक हो, वह किसी भी क़रीबी प्रयोगशाला (laboratory) में जाकर सूक्ष्मदर्शी (microscope) में दूध और दही को देख ले। एक ही नज़र में वह जान लेगा कि इस मामले में हक़ीक़त क्या है ?
इस्लाम में हलाल जानवर और हराम जानवर का जो फ़र्क़ किया गया है, वह बुनियादी तौर पर इस उसूल पर आधारित है कि मांसाहारी जानवर हराम हैं और वे जानवर हलाल हैं जो मांसाहारी नहीं हैं। इसका कारण यह है कि जो जानवर जीवों को अपना आहार बनाते हैं, उनका मांस इनसान के लिए सेहत के ऐतबार से ठीक नहीं होता। दूसरे जानवरों का मामला यह है उनके अन्दर ख़ास कुदरती निज़ाम होता है जिसके मुताबिक़ ऐसा होता है कि ज़मीन पर उपजी हुई जो चीज़ वे खाते हैं उसे वे विशेष क्रिया द्वारा प्रोटीन में तब्दील करते हैं और इस तरह वह हमारे लिए स्वास्थ्यवर्धक और सुपाच्य बन जाता है।

आहारः इनसान की ज़रूरत
भोजन इनसान की अनिवार्य ज़रूरत है। पुराने ज़माने में आहार के सिर्फ़ दो मतलब हुआ करते थे- ‘ज़ायक़ा लेना और भूख मिटाना‘, लेकिन मौजूदा ज़माने में ये दोनों चीज़ें इज़ाफ़ी बन चुकी हैं। आधुनिक युग में वैज्ञानिक शोध के बाद यह मालूम हुआ कि भोजन का मक़सद है कि जिस्म को ऐसा आहार मुहैया करना जिसे मौजूदा ज़माने में संतुलित आहार (balanced diet) कहा जाता है। जिसमें बुनियादी तौर पर 6 तत्व शामिल हैं-
A balance diet is one which cotains carbohydrate, protein, fat, vitamins, mineral salts and fibre in the correct proportions .

इन तत्वों में से प्रोटीन (protein) की अहमियत बहुत ज़्यादा है क्योंकि प्रोटीन का हमारे जिस्म की बनावट में बुनियादी हिस्सा है।
Protein is the main building block of our body .

प्रोटीन का सबसे बड़ा ज़रिया मांसाहार है। मांस से हमें उत्तम प्रोटीन मिलता है। मांस के अलावा अन्य चीज़ों से भी कुछ प्रोटीन मिलती है लेकिन वह अपेक्षाकृत निम्न स्तरीय होती है।
Meat is the best source for high-quality protein .
Plant protein is of a lower biological value .

मज़ीद यह कि मांसीय प्रोटीन और ग़ैर-मांसीय प्रोटीन का विभाजन भी सिर्फ़ समझने की ग़र्ज़ से है, वह वास्तविक विभाजन नहीं है। इसलिये कि सूक्ष्मदर्शी के अविष्कार के बाद वैज्ञानिकों ने जो अध्ययन किया है उससे मालूम होता है कि सभी खाद्य सामग्री के अन्दर बेशुमार बैक्टीरिया मौजूद रहते हैं जो पूरी तरह जीवधारी होते हैं। मांस से भिन्न जिन खाद्य चीज़ों के बारे में समझा जाता है कि उनमें बड़ी मात्रा में प्रोटीन होता है मस्लन दूध, दही, पनीर वग़ैरह, वे सब बैक्टीरिया की सूक्ष्म प्रक्रिया के ज़रिये ही अंजाम पाता है। बैक्टीरिया का अमल अगर उसके अन्दर न हो तो किसी भी ग़ैर-मांसीय भोजन से प्रोटीन हासिल नहीं किया जा सकता।
बैक्टीरिया को विज्ञान की भाषा में माइक्रो-ओर्गेनिज्म (Micro organism) कहा जाता है, यानि सूक्ष्म जीव। इसके मुक़ाबले में बकरी और भेड़ वग़ैरह की हैसियत मैक्रो-ओर्गेनिज्म (macro-organism) की है यानि विशाल जीव। इस हक़ीक़त को सामने रखिये तो यह कहना बिल्कुल सही होगा कि
हर आदमी व्यवहारतः मांसाहार कर रहा है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि तथाकथित शाकाहारी उसे सूक्ष्म जीवों के रूप में ले रहे हैं और नॉन-वेजिटेरियन लोग उसे बड़े जीवों के रूप में ले रहे हैं।
दूसरे अल्फ़ाज़ में यह कि हर इनसान का पेट एक बहुत बड़ा स्लॉटर हाउस की हैसियत रखता है। इस अदृष्ट स्लॉटर हाउस में रोज़ाना मिलियन एंड मिलियन सूक्ष्म जीव ख़त्म होते रहते हैं। इनकी संख्या इतनी ज़्यादा होती है कि सारी दुनिया में बड़े जानवरों के जितने स्लॉटर हाउस हैं उन सबमें कुल जितने जानवर मारे जाते हैं उनसे असंख्य गुना ज़्यादा ये सूक्ष्म जीव मारे जाते हैं।
इस सारे मामले का ताल्लुक़ रचयिता की सृष्टि योजना से है। उस रचयिता ने सृष्टि का जो विधान निश्चित किया है, वह यही है कि इनसान के जिस्म की आहार संबंधी ज़रूरत ज़िन्दा जीवों (living organism) के ज़रिये पूरी हो। प्राकृतिक योजना के मुताबिक़ ज़िन्दा जीवों को अपने अन्दर दाखि़ल किये बिना कोई मर्द या औरत अपनी ज़िन्दगी को बाक़ी नहीं रख सकता। उस रचयिता के विधान के मुताबिक़ ज़िन्दा चीज़ें ही ज़िन्दा वजूद की खुराक बनती हैं। जिन चीज़ों में ज़िन्दगी न हो, वे ज़िन्दा लोगों के लिए खुराक की ज़रूरत पूरी नहीं कर सकतीं। इसका मतलब यह है कि वेजिटेरियनिज़्म (vegetarianism) और नॉनवेजिटेरियनिज़्म (non-vegetarianism) की परिभाषायें सिर्फ़ साहित्यिक परिभाषाएं हैं, वे वैज्ञानिक परिभाषाएं नहीं हैं।
इसका दूसरा मतलब यह है कि इस दुनिया में आदमी के लिये इसके सिवा कोई चॉइस (choice) नहीं है कि वह नॉन-वेजिटेरियन बनने पर राज़ी हो। जो आदमी ख़ालिस वेजिटेरियन बनकर ज़िन्दा रहना चाहता हो, उसे अपने आप को या तो मौत के हवाले करना होगा या फिर उसे एक और दुनिया रचनी होगी जहां के नियम मौजूदा दुनिया के नियमों से अलग हों। इन दो के सिवा कोई दूसरी चॉइस (choice) इनसान के लिये नहीं है।

इतिहास की वैचारिक ग़लतियां
दर्शन कल्पना जनित ज्ञान (speculative sciences) में से एक है। दर्शन एक प्राचीन कालीन ज्ञान है। दुनिया के बड़े-बड़े दिमाग़ दार्शनिक चिंतन में व्यस्त रहे हैं, लेकिन लम्बे इतिहास के बावजूद दार्शनिकों का वर्ग इनसान को कोई पॉज़िटिव चीज़ न दे सका, बल्कि दर्शन ने सिर्फ़ इनसान की वैचारिक पेचीदगियों में इज़ाफ़ा किया। फ़ारसी शायर ने बिल्कुल सही कहा हैः
फ़लसफ़ी सिर्रे हक़ीक़त न तवानस्त कशूद
गश्त राज़ दिगर आं राज़ के फ़शामी कर्द
फ़लसफ़े ने इनसान को चीज़ें दीं, उन्हें एक लफ़्ज़ में वैचारिक भ्रम कहा जा सकता है यानि ऐसी कल्पनाएं जो हक़ीक़त पर आधारित न हों। विचार का इतिहास इन मिसालों से भरा हुआ है।
सभी दार्शनिकों की साझा ग़लती यह रही है कि हरेक के ज़हन में चीज़ों का एक आदर्श मॉडल ¼ideal model½ बसा हुआ था, जो कभी और किसी दौर में हासिल न हो सका। इसका कारण यह था कि दार्शनिकों का यह मॉडल दुनिया के बारे में इसके रचयिता की सृष्टि योजना के अनुकूल नहीं था। रचयिता ने इस दुनिया को इम्तेहान के लिये पैदा किया है, न कि इनाम के लिये। इसी इम्तेहान के लिये इनसान को आज़ादी दी गई है। इम्तेहान की यह आज़ादी इस राह में रूकावट है कि इस दुनिया में कभी कोई आदर्श व्यवस्था क़ायम हो सके।
आदर्श व्यवस्था सिर्फ़ उस वक़्त बन सकती है, जब कि सभी लोग बिना अपवाद के अपनी आज़ादी का बिल्कुल सही इस्तेमाल करें। विभिन्न कारणों से ऐसा होना कभी मुम्किन नहीं है। इसलिये इस दुनिया में आदर्श व्यवस्था का बनना भी कभी मुम्किन नहीं है। इतिहास के सभी दार्शनिक इस हक़ीक़त से बेख़बर थे। यही वजह है कि सभी दार्शनिक अपने ज़हन के मुताबिक़ आदर्श व्यवस्था का सपना देखते रहे, मगर प्रकृति के नियम के मुताबिक़ उनका यह सपना कभी पूरा न हो सका। यहां बतौर नमूना चन्द मिसालें दर्ज की जाती है ।
1- प्लेटो ¼Plato½ प्राचीन यूनान का एक मशहूर दार्शनिक है। उसने 387 ई.पू. में एथेन्स (Athens) में एक रॉयल एकेडमी क़ायम की। उसका मक़सद शासक वर्ग को शिक्षित करके दार्शनिक राजा बनाना था। उसका लक्ष्य यह था कि इस एकेडमी में तैयारशुदा दार्शनिक राजा यूनान में आयडियल इस्टेट क़ायम करेंगे जो सारी दुनिया के लिये एक आदर्श राज्य होगा। शहज़ादा सिकन्दर (Alexander) प्लेटो का प्रिय शिष्य था। अपने बाप फ़िलिप के मरने के बाद 336 में वह यूनान का राजा बन गया लेकिन तख़्त पर बैठने के बाद ही वह फ़िलॉस्फ़र किंग बनने के बजाय एक्सप्लॉयटर किंग (Exploiter king) बन गया। आदर्श राज्य क़ायम करने के बजाय उसका उद्देश्य यह हो गया कि वह सारी दुनिया में अपना एकछत्र राज्य क़ायम करे। प्लेटो के सपने के बजाय वह लॉर्ड एक्टिन के इस कथन की मिसाल बन गयाः

Power corrupts and absolute power corrupts absolutely .

आयडियलिज़्म की यह दार्शनिक कल्पना पूरे इतिहास में छाई रही है। आयडियल इस्टेट, आयडियल समाज, आयडियल सिस्टम का लक्ष्य हमेशा तमाम दार्शनिकों और चिंतकों का ऐसा सुनहरा सपना रहा है जो कभी पूरा न हो सका। उसकी वजह यह थी कि कि यह सपना इस ग़लत विचार पर आधारित था कि मौजूदा दुनिया में आयडियल जीवन मिलना सिर्फ़ जन्नत में ही संभव है। मौजूदा दुनिया सिर्फ़ इसलिये बनी है कि इनसान यहां अपने आपको जन्नत का पात्र सिद्ध कर सके, ताकि वह मरने के बाद जन्नत की आयडियल दुनिया में जगह पा सके। जिस तरह एक विद्यार्थी को परीक्षा कक्ष में अपना वांछित जॉब नहीं मिल सकता, उसी तरह मौजूदा दुनिया में किसी इनसान को आयडियल जन्नत कभी नहीं मिल सकती।
2- उन्नीसवीं सदी ईस्वी में जब वैज्ञानिक परीक्षण का तरीक़ा दुनिया में प्रचलित हुआ तो दार्शनिकों के अन्दर एक नया विचार पैदा हुआ जिसका यह कहना था कि हक़ीक़त वही है जिसे देखा जा सकता ¼observable½ हो, जिसे मालूम साइंसी तरीक़ों के मुताबिक़ सत्यापित ¼verify½ किया जा सकता हो। इसी सोच के तहत बहुत से मत बने। मस्लन उन्नीसवीं सदी का फ्ऱेंच दार्शनिक ऑगस्ट कॉम्टे (Auguste Comte) का पॉज़िटिविज़्म (Positivism) और बीसवीं सदी के जर्मन दार्शनिक रूडोल्फ़ कारनेप (Rudolf Carnap) का लॉजिकल पॉज़िटिविज़्म वग़ैरह।
इस क़िस्म के चिंतकों और दार्शनिकों ने तक़रीबन सौ साल तक दुनिया भर के ज़हनों को यह यक़ीन दिलाने की कोशिश की कि जो चीज़ देखी न जा सके वह हक़ीक़त भी नहीं है। इन नज़रियों के तहत वह दर्शन पैदा हुआ जिसे वैज्ञानिक नास्तिकवाद (scientific atheism) कहा जाता है। इन नज़रियों के मुताबिक़ ईश्वर और धर्म की मान्यताएं इल्मी ऐतबार से बेबुनियाद साबित हो गईं।
इल्मी दुनिया में वैज्ञानिक नास्तिकवाद पर चर्चा जारी था कि खुद विज्ञान ने ही इस नज़रिये को बेबुनियाद साबित कर दिया। विज्ञान में यह तब्दीली उस वक़्त आई जब कि वैज्ञानिकों ने उस हक़ीक़त को दरयाफ़्त कर लिया जिसे क्वांटम मैकेनिक्स (quantum mechanics) कहा जाता है। इस खोज को महानतम बौद्धिक विजय (greatest intellectual triumph) कहा जाता है। इस वैज्ञानिक नज़रिये का एक नतीजा यह था कि एटम को लहर समझा जाने लगा। इस वैज्ञानिक खोज में ख़ास तौर पर इन वैज्ञानिकों के नाम शामिल हैं ।
Paul Dirac, Heisenberg, Jordan, Schrodinger, Einstein

इस वैज्ञानिक खोज ने न्यूटन के पुराने मैकेनिक्स को इल्मी तौर पर रद्द कर दिया। अब इल्म का दरिया विशाल जगत (macro world) से गुज़र कर सूक्ष्म जगत (micro world)तक पहुंच गया यानि दिखाई देने वाली चीज़ के अलावा न दिखाई देने वाली चीज़ें भी ज्ञान का विषय बन गईं।
तर्क के नये आधार
यह एक दूरगामी नतीजों वाला इंक़लाब था जो बीसवीं सदी के शुरूआती पांच दशकों में पेश आया। इसके नतीजे में जो वैचारिक तब्दीलियां हुईं, उनमें से एक अहम तब्दीली यह थी कि तर्क का सिद्धांत (principle of reason) बदल गया। इस वैचारिक क्रांति से पहले यह समझा जाता था कि जायज़ तर्क वही है जो सीधा तर्क हो यानि तर्क निरीक्षण और परीक्षण पर आधारित हो, लेकिन अब अनुमान आधारित तर्क भी यकसां तौर पर जायज़ तर्क बन गया। जब परमाणु के सूक्ष्म पार्टिकल्स दिखाई न देने के बावजूद सिर्फ़ अनुमान की बुनियाद एक वैज्ञानिक तर्क मान लिया गया तो लाज़िमी तौर पर इसका मतलब यह भी था कि अनुमान आधारित तर्क की बुनियाद पर ईश्वर के विषय में तर्क भी ठीक उसी तरह जायज़ वैज्ञानिक तर्क है।
ईश-चिंतक ईश्वर के वजूद पर एक तर्क जो देते थे उसकी बुनियाद डिज़ाइन (argument from design) पर थी यानि जब डिज़ाइन है तो ज़रूरी है कि उसका एक डिज़ाइनर हो।इस तर्क को पहले द्वितीय स्तर का तर्क माना जाता था लेकिन अब नई वैज्ञानिक क्रांति के बाद यह तर्क भी उसी तरह अव्वल दर्जे के तर्क की सूची में आ गया जैसे कि दूसरे ज्ञात वैज्ञानिक तर्क।
3- इन्हीं वैचारिक मुग़ालतों में से एक मुग़ालता वह है जिसे डार्विनवाद कहा जाता है। इस विचार को मौजूदा ज़माने में बहुत शोहरत मिली है। इस नज़रिये के बारे में बेशुमार किताबें लिखी गई हैं और सभी यूनिवर्सिटियों में इसे बाक़ायदा कोर्स में शामिल किया गया है, लेकिन इसका वैज्ञानिक विश्लेषण कीजिये तो वह एक खूबसूरत मुग़ालते के सिवा और कुछ नहीं। डार्विनवाद को दूसरे अल्फ़ाज़ में जैव विकासवाद भी कहा जाता है।
इसका खुलासा यह है कि बहुत पहले ज़िन्दगी एक सादा ज़िन्दगी से शुरू हुई। फिर सन्तानोत्पत्ति के ज़रिये वह बढ़ती रही। हालात के असर से इसमें लगातार बदलाव होता रहा। यह बदलाव लगातार विकास यात्रा करते रहे। इस तरह एक प्राथमिक जीव मुख्तलिफ़ जातियों में बदलता चला गया। इस लम्बे अमल के दौरान एक भौतिक नियम उसका मार्गदर्शन करता रहा। यह भौतिक नियम डार्विन के अल्फ़ाज़ में ‘नेचुरल सलेक्शन‘ था।
इस नज़रिये में बुनियादी कमी यह है कि वह दो समरूप जातियों का हवाला देता है और फिर यह दावा करता है कि लम्बे जैविक विकास के ज़रिये एक जाति दूसरी जाति में तब्दील हो गई। मस्लन बकरी धीरे-धीरे जिराफ़ बन गई वग़ैरह। यह नज़रिया बकरी और जिराफ़ को तो हमें दिखाता है लेकिन वह बीच की जातियां इसकी सूची में मौजूद नहीं हैं जो तब्दीली के सफ़र अमली तौर पर दिखायें। विकासवाद के समर्थकों बीच की इन कड़ियों को ‘मिसिंग लिंक‘ कहते हैं लेकिन यह मिसिंग लिंक सिर्फ़ एक काल्पनिक लिंक है। निरीक्षण और परीक्षण के ऐतबार से इनका कोई वजूद नहीं।
इस नज़रिये की शोहरत का राज़ सिर्फ़ यह था कि वह सेक्युलर बुद्धिजीवियों को एक कामचलाऊ नज़रिया दिखाई दिया, लेकिन कोई नज़रिया इस तरह की कल्पना से साबित नहीं होता। किसी नज़रिये को साबितशुदा नज़रिया बनाने के लिए ज़रूरी है कि उसके पक्ष में ज्ञात तथ्य मौजूद हों जो उसे प्रमाणित करते हों, लेकिन डार्विनवाद को प्रमाणित करने के लिए ऐसे तथ्य मौजूद नहीं हैं। मिसाल के तौर पर डार्विनवाद के मुताबिक़ जैव विकास के लिए बहुत लम्बी अवधि दरकार है। वैज्ञानिक अनुसंधान के मुताबिक़ मौजूदा ज़मीन की आयु उसके मुक़ाबले बहुत कम है। ऐसी हालत में, अगर मान भी लें कि विकास की प्रक्रिया डार्विन के नज़रिये के मुताबिक़ पेश आई हो तो वह मौजूदा सीमित ज़मीन पर कभी घटित नहीं हो सकती।
ज़मीन की सीमित आयु के बारे में जब विज्ञान की खोज सामने आई तो उसके बाद विकास के समर्थकों ने यह कहना शुरू किया कि ज़िन्दगी कहीं बाहर किसी और ग्रह पर पैदा हुई, फिर वहां से सफ़र करके ज़मीन पर आई। इस विकासवादी नज़रिये को उन्होंने काल्पनिक तौर पर पैन्सपर्मिया का नाम दिया। अब दूरबीनों और अंतरिक्ष या़त्राओं के ज़रिये अंतरिक्ष में कुछ काल्पनिक ग्रहों की खोज शुरू हुई मगर बेशुमार कोशिशों के बावजूद अब तक यह काल्पनिक ग्रह खोजा न जा सका।
4- इसी क़िस्म का वैचारिक मुग़ालता वह है जिसे मानववाद कहा जाता है, यानि ब्रह्मण्ड की मनुष्य केन्द्रित व्याख्या। इस दर्शन के तहत ईश्वर की मान्यता को हटाकर सिर्फ़ इनसान की बुनियाद पर ज़िन्दगी की व्याख्या की जाती है। इस नज़रिये का खुलासा इन अल्फ़ाज़ में बयान किया जाता है- ‘सीट का ईश्वर से ट्रांसफ़र होकर इनसान को दे देना‘
इस नज़रिये की हिमायत में बीसवीं सदी ईस्वी में बहुत सी किताबें लिखी गईं। उन्हीं में से एक किताब वह है जो अंग्रेज़ दार्शनिक जूलियन हक्सले (मृत्युः 1975) ने तैयार करके प्रकाशित की थी। किताब के विषय के मुताबिक़ उसका टाइटिल थाःMan stands alone .
यह पूरी किताब दावा और कल्पना पर आधारित है। इसमें कोई वास्तविक तथ्य मौजूद नहीं है। मस्लन इसमें यह दावा किया गया है कि अब इनसान को ‘वह्य‘ की ज़रूरत नहीं, अब इनसान के मार्गदर्शन के लिए अक्ल बिल्कुल काफ़ी है, मगर इस दावे के समर्थन में किताब में कोई दलील मौजूद नहीं। अमरीकी वैज्ञानिक क्रेसी मारिसन (मृत्युः 1951) ने खालिस इल्मी अन्दाज़ में इस किताब का जवाब दिया। यह किताब जूलियन हक्सले के दावे को बिल्कुल बेबुनियाद साबित करती हैः Man does not stand alone .
5- बुद्धिज़्म को मौजूदा ज़माने में सेक्युलर तबक़े के दरम्यान काफ़ी शोहरत हासिल हुई। इसे यह शोहरत किसी वैज्ञानिक बुनियाद पर नहीं हुई है बल्कि सिर्फ़ एक मुग़ालते की बुनियाद पर हुई है। आम तौर पर लोग चीज़ों का वैज्ञानिक विश्लेषण करके उसकी हक़ीक़त तक पहुंचने की कोशिश नहीं करते। इस कारण अक्सर लोग भ्रामक प्रचार के शिकार हो जाते हैं। बुद्धिज़्म की मौजूदा शोहरत भी उन्हीं में से एक है।
बुद्धिस्ट फ़िलॉसॉफ़ी के मुताबिक़ इनसान नस्ल-दर-नस्ल एक लम्बा सफ़र कर रहा है। इसकी आखि़री मंज़िल निर्वाण है। इस आखि़री मंज़िल तक पहुंचने का एक निश्चित विधान है। यह कार्य और कारण का विधान है। हर औरत या मर्द अपने अमल के मुताबिक़ एक जन्म के बाद दूसरे जन्म में पैदा होते रहते हैं। कभी अच्छी हालत में और कभी बुरी हालत में। इस नज़रिये को पुनर्जन्म कहा जाता है और फिर कई मिलियन साल तक यह करते-करते वह ‘मुक्ति‘ तक पहुंचते हैं, जिसे बुद्धिज़्म में ‘निर्वाण‘ का नाम दिया गया हैः


They all hold in common a doctrine of Karman (effects) , the law of cause and effect, which states that what one does in this present life will have its effect in the next life. (EB/VIII: 488)

यह दर्शन सिर्फ़ एक मुग़ालिता है। पुनर्जन्म का यह नज़रिया कहता है कि आदमी अपने पिछले जन्म में किये हुए कर्म के मुताबिक़ अगले जन्म में अच्छी हालत या बुरी हालत में पैदा होता है। अगर यह बात दुरूस्त है तो हरेक को अपने पिछले जन्म का हाल याद रहना चाहिए, जिस तरह जेल में सज़ा पाने वाले एक क़ैदी को अपने पिछले दिनों का जुर्म याद रहता है या तरक्की पर पहुंचने वाले एक आदमी को अपने पिछले ज़माने की वे कोशिशें याद रहती हैं जिनकी वजह से वह उस ओहदे तक पहुंचा, लेकिन जैसा कि मालूम है, दुनिया भर में बसने वाले औरतों और मर्दों को अपने पिछले जन्म के बारे में कुछ भी याद नहीं।
यह वाक़या पुनर्जन्म के दर्शन को सरासर ग़ैर-इल्मी साबित कर रहा है। मौजूदा दुनिया में मनोविज्ञान के तहत इनसान का बहुत विस्तृत अध्ययन किया गया है। इससे यह साबित हुआ है कि याद्दाश्त इनसान की शख्सियत का अकाट्य हिस्सा है। इनसानी शख्सियत को उसकी याद्दाश्त से जुदा नहीं किया जा सकता, लेकिन पुनर्जन्म के मामले में हम देखते हैं कि हर आदमी की शख्सियत एक जन्म से दूसरे जन्म की तरफ़ इस तरह सफ़र करती है कि अपने पिछले ज़माने के बारे में उसकी याद्दाश्त उसके साथ मौजूद नहीं होती। किसी आदमी के अगले जन्म में अगर उसकी पिछली शख्सियत ट्रांसफर होती है तो उसकी याद्दाश्त उसके साथ लाज़िमी तौर पर मौजूद रहनी चाहिए। यह वाक़या इस पूरे नज़रिये को सरासर बेबुनियाद साबित कर रहा है।
वैज्ञानिक चेतना के युग से पहले महज़ कल्पना के तहत इस तरह का नज़रिया माना जा सकता था लेकिन इस वैज्ञानिक युग यह बिल्कुल अस्वीकार्य हो चुका है। आधुनिक विज्ञान ने जिस तरह दूसरी तमाम मनघड़त कल्पनाओं को बेबुनियाद साबित कर दिया है, उसी तरह पुनर्जन्म की कल्पना भी अब निस्संदेह बेबुनियाद क़रार पाएगा।
6- इन्हीं वैचारिक मुग़ालतों में से एक वह है जो वेजिटेरियनिज़्म के नाम से जाना जाता है। यहां इस मामले की थोड़ा स्पष्ट किया जाना ज़रूरी है।
लोहे और पत्थर जैसी चीज़ें निर्जीव पदार्थ की हैसियत रखती हैं। इनके वजूद के लिए जीवों की ज़रूरत नहीं है, लेकिन इनसान की हैसियत एक ज़िन्दा वजूद की है। उसे जीवन की रक्षा करने के लिए जीवों की ज़रूरत है। अपने वजूद को बाक़ी रखने के लिए उसे हर लम्हा जीवनदायी आहार की ज़रूरत है। यह आहार इनसान को सब्ज़ी, फल और अनाज वग़ैरह के रूप में हासिल होता है। इन भोज्य पदार्थों को खाकर पेट में डालना ही काफ़ी नहीं है। इसके बाद एक और प्रक्रिया ज़रूरी है जिसे पाचन क्रिया कहा जाता है। यह अमल एक पेचीदा निज़ाम ए हज़्म के तहत अंजाम पाता है। इसके बाद ही ये भोज्य पदार्थ ‘ारीर का अंश बनते है। इस पाचन क्रिया में अस्ल हिस्सा ज़िन्दा बैक्टीरिया का होता है। बैक्टीरिया इतने छोटे होते हैं कि वह आंखों दिखाई नहीं देते लेकिन वे पूरे तौर पर एक ज़िन्दा वजूद होते हैं। ये बैक्टीरिया बेशुमार तादाद में इनसान के जिस्म में दाखि़ल होकर पाचन क्रिया को पूरा करते हैं। अगर बैक्टीरिया की मदद न मिले तो कोई भी आहार इनसान के लिए स्वास्थ्यवर्धक आहार न बन सके।
इस मामले को समझने के लिए एक मिसाल लीजिये। नई दिल्ली के अंग्रेज़ी अख़बार टाइम्स आॅफ़ इंडिया (26 दिसम्बर 2007) के पहले पृष्ठ पर एक नुमायां और रंगीन इश्तेहार छपा है। इसका शीर्षक मोटे अक्षरों में यह है- डेली पियो, हैल्दी जियोः
Daily piyo . healthy jiyo .

यह एक इन्टरनेशनल पेय का इश्तेहार है जिसे स्वास्थ्यवर्धक पेय बताया गया है और इसका नाम ‘याकुल्ट‘ है। यह 1935 में बनाया गया और 30 देशों मे इस्तेमाल किया जा रहा है। अब भारत में भी इसका इस्तेमाल शुरू किया गया है।
इस इश्तेहार में इसकी वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए यह बताया गया है कि इसमें फ़ायदेमंद बैक्टीरिया बहुत बड़ी तादाद में मौजूद होते हैं, जो पाचन क्रिया में बेहद सहायक होते हैं। वे विभिन्न पहलुओं से इनसान को ताक़त देते हैं ।
Yakult is a probiotic drink that contains special beneficial bacteria , lactobacillus casie strains shirota . Every 65 ml bottle of yakult contains over 6.5 billion friendly bacteria . Yakult’s bacteria are unique and reach the intestines alive to impart various health benefits . Yakult aids digestion , builds immunity , and prevents infection .
जीवनदायी बैक्टीरिया हर पल इनसान के जिस्म में विभिन्न तरीक़ों से दाखि़ल होते रहते हैं। उपरोक्त पेय इसी अमल को ज़्यादा तेज़ करने की तदबीर है।
मालूम हुआ कि मांसीय आहार इनसान के लिए अख़ितयारी बात नहीं है, वह इनसान की मजबूराना ज़रूरत है। हर आदमी जानता है कि आहार इनसान के लिए ज़रूरी है। इस मामले में वेजिटेरियन फ़ूड और नॉन-वेजिटेरियन फ़ूड की का विभाजन सिर्फ़ एक काल्पनिक विभाजन है, वह वास्तविक विभाजन नहीं है, क्योंकि अस्ल हक़ीक़त के ऐतबार से हरेक भोजन आखि़रकार एक मांसीय आहार है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि नॉन-वेजिटेरियन फ़ूड में उसका मांसीय होना आंखों से दिखाई नहीं देता। दूसरे अल्फ़ाज़ में यह कि नॉन-वेजिटेरियन आदमी बड़े जीव(macro organism) को अपना आहार बनाता है और तथाकथित वेजिटेरियन आदमी सूक्ष्म जीवों को ( micro organism)अपना आहार बना रहा है। ज़ाहिरी तौर पर दोनों एक दूसरे से अलग दिखाई देते हैं लेकिन हक़ीक़त के ऐतबार से दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं।
प्रकृति के विरूद्ध सिद्धांत
जो लोग कहते हैं कि वेजिटेरियन फ़ूड ही इनसान के लिए सही भोजन है, वह एक ऐसी बात कहते हैं जो सिर्फ़ उनके अपने ज़हन की पैदावार है। उनके अपने ज़हन के बाहर इसकी कोई दलील मौजूद नहीं। जैसा कि अर्ज़ किया गया, इन लोगों का कलिमा यह है -जीव को मारना पाप है और जीव की रक्षा करना पुण्य है।
killing a sensation is sin and vice versa .

यह एक मनघड़त कल्पना है। इसकी कोई बुनियाद न तो प्रकृति के नियमों में है और न विज्ञान की दरयाफ़्तों में। यह नज़रिया पूरी तरह एक अप्राकृतिक नज़रिया है। मस्लन लोग इनसानी दांतों की बनावट देखकर कहते हैं इनसान के दांत मांसाहारी जानवरों से अलग होते हैं। इसलिए इनसान शाकाहारी जीव (herbivorous) है न कि मांसाहारी जीव (carnivorous)। लेकिन यह बात सही नहीं है।
अस्ल बात यह है कि इनसान के दांत मांसाहारी जानवरों से अलग नहीं बल्कि उनके सदृश होते हैं। इसका कारण यह है कि मांसाहारी जीव पशुओं का मांस कच्चा खाते हैं , इसलिए उनके दांत अलग बनाए गये हैं। लेकिन इनसान मांस को पका कर खाता है, इसलिए उनके दांत मांसाहारी जानवरों से आंशिक समानता तो ज़रूर रखते हैं लेकिन वे बिल्कुल उसके मुताबिक़ नहीं होते।
जैसा कि मालूम है कि ज़मीन का तक़रीबन 71 प्रतिशत हिस्सा समुद्र है जो कि पानी से भरा हुआ है। ज़मीन में खुश्की का हिस्सा अपेक्षाकृत बहुत कम है। जबकि कृषि पैदावार हासिल करने के लिए खुश्क ज़मीन ज़रूरी है। ज़मीन का यह दस्तयाब खुश्क हिस्सा तमाम इनसानों के लिए कृषि से प्राप्त भोजन हासिल करने के लिए बिल्कुल अपर्याप्त है। जबकि इसी सीमित खुश्क हिस्से पर इनसानी आबादियां हैं, बड़े-बड़े कारख़ाने हैं। जंगल और रेगिस्तान, पहाड़, झील और नदियां हैं। ऐसी हालत में अगर सिर्फ़ कृषि आधारित भोजन पर निर्भर रहना हो तो इनसानों के बड़े हिस्से को भुखमरी का शिकार होना पड़ेगा।
ज्ञात रहे कि इस वक़्त ज़मीन पर 7 बिलियन से ज़्यादा इनसान आबाद हैं। ऐसी हालत में कृषि आधारित भोजन की यह कमी सिर्फ़ मांसाहार से पूरी की जा सकती है, जैसाकि दुनिया में हो रहा है। उस रचयिता को यह बात मालूम थी। सो उसने समुद्रों में नॉन-वेजिटेरियन फ़ूड का बहुत बड़ा भण्डार रख दिया। इसी के साथ खुदा ने फ़िज़ाओं में उड़ने वाली चिड़ियां बनाईं और जंगलों में तरह-तरह के जानवर पैदा कर दिए। ये सब इसलिए हुआ ताकि इनसान कृषि से मिलने वाले भोजन की कमी को मांसाहार के ज़रिये पूरा कर सके।