Sunday, November 29, 2015

साजिशों की दास्तान (आपरेशन अक्षरधाम)

अवनीश कुमार
“ आपरेशन अक्षरधाम ” हमारे राज्यतंत्र और समाज के भीतर जो कुछ गहरे सड़ गल चुका है, जो भयंकर अन्यापूर्ण और उत्पीड़क है, का बेहतरीन आलोचनात्मक विश्लेषण और उस तस्वीर का एक छोटा सा हिस्सा है।
24 सितंबर 2002 को  हुए गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हमले को अब करीब 13 साल बीत चुके हैं। गांधीनगर के सबसे पॉश इलाके में स्थित इस मंदिर में शाम को हुए एक ‘आतंकी’ हमले में कुल 33 निर्दोष लोग मारे गए थे। दिल्ली से आई एनएसजी की टीम ने वज्रशक्ति नाम से आपरेशन चलाकर दो फिदाईनो को मारने का दावा किया था। मारे गए लोगों से उर्दू में लिखे दो पत्र भी बरामद होने का दावा किया गया जिसमें गुजरात में 2002 में राज्य प्रायोजित दंगों में मुसलमानों की जान-माल की हानि का बदला लेने की बात की गई थी। बताया गया कि दोनो पत्रों पर तहरीक-ए-किसास नाम के संगठन का नाम लिखा था।
इसके बाद राजनीतिक परिस्थितियों में जो बदलाव आए और जिन लोगों को उसका फायदा मिला यह सबके सामने है और एक अलग बहस का विषय हो सकता है। इस मामले में जांच एजेंसियों ने 6 लोगों को आतंकियों के सहयोगी के रूप में गिरफ्तार किया था जो अंततः सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पूरी तरह निर्दोष छूट गए। यह किताब मुख्य रूप से जिन बिंदुओं पर चर्चा करती है उनमें पुलिस, सरकारी जांच एजेंसियों और खुफिया एजेंसियों तथा निचली अदालतों और उच्च न्यायालय तक की कार्यप्रणालियों और सांप्रदायिक चरित्र का पता चलता है। यह भी दिखता है कि कैसे राज्य इन सभी प्रणालियों को हाइजैक कर सकता है और किसी एक के इशारे पर नचा सकता है।
आपरेशन अक्षरधाम’ मुख्य रूप से उन सारी घटनाओं का दस्तावेजीकरण और विश्लेषण है जो एक सामान्य पाठक के सामने उन घटनाओं से जुड़ी कड़ियों को खोलकर रख देता है। यह किताब इस मामले के हर एक गवाह, सबूत और आरोप को रेशा-रेशा करती है। मसलन इस ‘आतंकी’ हमले के अगले दिन केंद्रीय गृहमंत्रालय ने दावा किया कि मारे गए दोनों फिदाईन का नाम और पता मुहम्मद अमजद भाई, लाहौर, पाकिस्तान और हाफिज यासिर, अटक पाकिस्तान है। जबकि गुजरात पुलिस के डीजीपी के चक्रवर्ती ने केंद्रीय गृह मंत्रालय के दावे से अपनी अनभिज्ञता जाहिर की और कहा कि उनके पास इस बारे में कोई जानकारी नहीं है।
इसी तरह पुलिस के बाकी दावों जैसे फिदाईन मंदिर में कहां से घुसे, वे किस गाड़ी से आए और उन्होने क्या पहना था, के बारे में भी अंतर्विरोध बना रहा। पुलिस का दावा और चश्मदीद गवाहों के बयान विरोधाभाषी रहे पर आश्चर्यजनक रूप से पोटा अदालत ने इन सारी गवाहियों की तरफ से आंखें मूंदे रखी।
चूंकि यह एक आतंकी हमला था इसलिए इसकी जांच ऐसे मामलों की जांच के लिए विशेष तौर पर गठित आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) को सौंपी गई। लेकिन इसमें तब तक कोई खास प्रगति नहीं हुई जब तक कि एक मामूली चेन स्नेचर समीर खान पठान को पुलिस कस्टडी से निकालकर उस्मानपुर गार्डेन में एक फर्जी मुठभेड़ में मार नहीं दिया गया। अब इस मामले में कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जेल में हैं। इस मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट में लिखा गया – “कि पठान मोदी और अन्य भाजपा नेताओं को मारना चाहता था। उसे पाकिस्तान में आतंकवाद फैलाने का प्रशिक्षण देने के बाद भारत भेजा गया था। यह ठीक उसके बाद हुआ जब पेशावर में प्रशिक्षित दो पाकिस्तानी आतंकवादी अक्षरधाम मंदिर पर हमला कर चुके थे।“ मजे की बात ये थी इसके पहले अक्षरधाम हमले के सिलसिले में 25 सितंबर 2002 को जी एल सिंघल द्वारा लिखवाई गई प्रथम सूचना रिपोर्ट में मारे गए दोनो फिदाईन के निवास और राष्ट्रीयता का कहीं कोई जिक्र नहीं था!
28 अगस्त 2003 की शाम को साढ़े 6 बजे एसीपी क्राइम ब्रांच अहमदाबाद के दफ्तर पर डीजीपी कार्यालय से फैक्स आया जिसमें निर्देशित किया गया था कि अक्षरधाम मामले की जांच क्राइम ब्रांच को तत्काल प्रभाव से एटीएस से अपने हाथ में लेनी है। इस फैक्स के मिलने के बाद एसीपी जीएल सिंघल तुरंत एटीएस आफिस चले गए जहां से उन्होने रात आठ बजे तक इस मामले से जुड़ी कुल 14 फाइलें लीं। इसके बाद शिकायतकर्ता से खुद ब खुद वे जांचकर्ता भी बन गए और अगले कुछ ही घंटों में उन्होने अक्षरधाम मामले को हल कर लेने और पांच आरोपियों को पकड़ लेने का चमत्कार कर दिखाया। इस संबंध में जीएल सिंघल का पोटा अदालत में दिए बयान के मुताबिक – “एटीएस की जांच से उन्हें कोई खास सुराग नहीं मिला था और उन्होने पूरी जांच खुद नए सिरे से 28 अगस्त 2003 से शुरू की थी।“ और इस तरह अगले ही दिन यानी 29 अगस्त को उन्होने पांचों आरोपियों को पकड़ भी लिया। पोटा अदालत को इस बात भी कोई हैरानी नहीं हुई।
परिस्थितियों को देखने के बाद ये साफ था कि पूरा मामला पहले से तय कहानी के आधार पर चल रहा था। जिन लोगों को 29 अगस्त को गिरफ्तार दिखाया गया उन्हें महीनों पहले से क्राइम ब्रांच ने अवैध हिरासत में रखा था, जिसके बारे में स्थानीय लोगों ने प्रदर्शन भी किया था। जिन लोगों को “गायकवाड़ हवेली” में रखा गया था वे अब भी उसकी याद करके दहशत से घिर जाते हैं। उनको अमानवीय यातनाएं दी गईं, जलील किया गया और झूठे हलफनामें लिखवाए गए। उन झूठे हलफनामों के आधार पर ही उन्हें मामले में आरोपी बनाया गया और मामले को हल कर लेने का दावा किया गया।
किताब में इस बात की विस्तार से चर्चा है कि जिन इकबालिया बयानों के आधार पर 6 लोगों को आरोपी बना कर गिरफ्तार किया गया था, पोटा अदालत में बचाव पक्ष की दलीलों के सामनें वे कहीं नहीं टिक रहे थे। लेकिन फिर भी अगर पोटा अदालत की जज सोनिया गोकाणी ने बचाव पक्ष की दलीलों को अनसुना कर दिया तो उसकी वजह समझने के लिए सिर्फ एक वाकए को जान लेना काफी होगा। –“मुफ्ती अब्दुल कय्यूम को लगभग डेढ़ महीने के ना काबिल-ए-बर्दाश्त शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बाद रिमांड खत्म होने के एक दिन पहले 25 सितंबर को पुरानी हाईकोर्ट नवरंगपुरा में पेश किया गया जहां पेशी से पहले इंस्पेक्टर वनार ने उन्हें अपनी आफिस में बुलाया और कहा कि वह जानते हैं कि वह बेकसूर हैं लेकिन उन्हें परेशान नहीं होना चाहिए, वे उन्हें बचा लेंगे। वनार ने उनसे कहा कि उन्हें किसी अफसर के सामने पेश किया जाएगा जो उनसे कुछ कागजात पर हस्ताक्षर करने को कहेंगे जिस पर उन्हें खामोशी से अमल करना होगा। अगर उन्होने ऐसा करने से इंकार किया या हिचकिचाए तो उन्हें उससे कोई नहीं बचा पाएगा क्योंकि पुलिस वकील जज सरकार अदालत सभी उसके हैं।”
दरअसल सच तो ये था कि बाकी सभी लोगों के साथ ऐसे ही अमानवीय पिटाई और अत्याचार के बाद कबूलनामें लिखवाए गए थे और उनको धमकियां दी गईं कि अगर उन्होने मुंह खोला तो उनका कत्ल कर दिया जाएगा। लेकिन क्राइम ब्रांच की तरफ से पोटा अदालत में इन इकबालिया बयानों के आधार पर जो मामला तैयार किया गया था, अगर अदालत उस पर थोड़ा भी गौर करती या बचाव पक्ष की दलीलों को महत्व देती तो इन इकबालिया बयानों के विरोधाभाषों के कारण ही मामला साफ हो जाता, पर शायद मामला सुनने से पहले ही फैसला तय किया जा चुका था। किताब में इन इकबालिया बयानों और उनके बीच विरोधाभाषों का सिलसिलेवार जिक्र किया गया है।
इस मामले में हाइकोर्ट का फैसला भी कल्पनाओं से परे था। चांद खान, जिसकी गिरफ्तारी जम्मू एवं कश्मीर पुलिस ने अक्षरधाम मामले में की थी, के सामने आने के बाद गुजरात पुलिस के दावे को गहरा धक्का लगा था। जम्मू एवं कश्मीर पुलिस के अनुसार अक्षरधाम पर हमले का षडयंत्र जम्मू एवं कश्मीर में रचा गया था जो कि गुजरात पुलिस की पूरी थ्योरी से कहीं मेल नहीं खाता था। लेकिन फिर भी पोटा अदालत ने चांद खान को उसके इकबालिया बयान के आधार पर ही फांसी की सजा सुनाई थी।
लेकिन इस मामले में हाइकोर्ट ने अपने फैसले में लिखा – “वे अहमदाबाद, कश्मीर से बरेली होते हुए आए। उन्हें राइफलें, हथगोले, बारूद और दूसरे हथियार दिए गए। आरोपियों ने उनके रुकने, शहर में घुमाने और हमले के स्थान चिन्हित करने में मदद की।“ जबकि अदालत ने आरोपियों का जिक्र नहीं किया। शायद इसलिए कि आरोपियों के इकबालियाय बयानों में भी इस कहानी का कोई जिक्र नहीं था। जबकि पोटा अदालत में इस मामले के जांचकर्ता जीएल सिंघल बयान दे चुके थे कि उनकी जांच के दौरान उन्हें चांद खान की कहीं कोई भूमिका नहीं मिली थी। लेकिन फिर भी हाइकोर्ट ने असंभव सी लगने वाली इन दोनो कहानियों को जोड़ दिया था और इस आधार पर फैसला भी सुना दिया।
इसी तरह हाइकोर्ट के फैसले में पूर्वाग्रह और तथ्य की अनदेखी साफ नजर आती है जब कोर्ट ये लिखती है कि “27 फरवरी 2002 को गोधरा में ट्रेन को जलाने की घटना के बाद, जिसमें कुछ मुसलमानों ने हिंदू कारसेवकों को जिंदा जला दिया था, गुजरात के हिंदुओं में दहशत फैलाने और गुजरात राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने की आपराधिक साजिश रची गई।” जबकि गोधरा कांड के मास्टरमाइंड बताकर पकड़े गए मौलाना उमर दोषमुक्त होकर छूट चुके हैं और जस्टिस यूसी बनर्जी कमीशन, जिसे ट्रेन में आग लगने के कारणों की तफ्तीश करनी थी, ने अपनी जांच में पाया था कि आग ट्रेन के अंदर से लगी थी। इसी तरह हाइकोर्ट ने बहुत सी ऐसी बातें अपने फैसले में अपनी तरफ से जोड़ दीं, जो न तो आरोपियों के इकबालिया बयानों का हिस्सा थी और न ही जांचकर्ताओं ने पाईं। और इस तरह पोटा अदालत के फैसले को बरकरार रखते हुए मुफ्ती अब्दुल कय्यूम, आदम अजमेरी, और चांद खान को फांसी, सलीम को उम्र कैद, मौलवी अब्दुल्लाह को दस साल और अल्ताफ हुसैन को पांच की सजा सुनाई।
इसी तरह हाइकोर्ट ने इन आरोपों को कि ये षडयंत्र सउदी अरब में रचा गया और आरोपियों ने गुजरात दंगों की सीडी देखी थी और आरोपियों ने इससे संबंधित पर्चे और सीडी बांटीं जिसमें दंगों के फुटेज थे, को जिहादी साहित्य माना। सवाल ये उठता है कि अगर कोई ऐसी सीडी या पर्चा बांटा भी गया जिसमें गुजरात दंगों के बारे में कुछ था तो उसे जिहादी साहित्य कैसे माना जा सकता है। हालांकि अदालतें अपने फैसलों में अपराध की परिभाषा भी देती हैं उसके आधार पर किसी कृत्य को आपराधिक घोषित करती हैं पर इस फैसले में सउदी अरब में रह रहे आरोपियों को जिहादी साहित्य बांटने का आरोपी तो बताया गया है पर जिहादी साहित्य क्या है इसके बारे में कोई परिभाषा नहीं दी गई है।
आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने क्रमवार 9 बिंदुओं पर अपना विचार रखते हुए सभी आरोपियों को बरी किया। सर्वोच्च न्यायलय ने माना कि इस मामले में जांच के लिए अनुमोदन पोटा के अनुच्छेद 50 के अनुरूप नहीं था। सर्वोच्च न्यायलय ने यह भी कहा कि आरोपियों द्वारा लिए गए इकबालिया बयानों को दर्ज करने में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय नियमों की अनदेखी की गई। जिन दो उर्दू में लिखे पत्रों को क्राइम ब्रांच ने अहम सबूत के तौर पर पेश किया था उन्हें भी सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। फिदाईन की पोस्टमार्टम रिपोर्ट का हवाला देते हुए अदालत ने कहा – “जब फिदाईन के सारे कपड़े खून और मिट्टी से लथपथ हैं और कपड़ों में बुलेट से हुए अनगिनत छेद हैं तब पत्रों का बिना सिकुड़न के धूल-मिट्टी और खून के धब्बों से मुक्त होना अस्वाभाविक और असंभ्व है।” इस तरह सिर्फ इकबालिया बयानों के आधार पर किसी को आरोपी मानने और सिर्फ एक आरोपी को छोड़कर सभी के अपने बयान से मुकर जाने के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायलय ने सारे आरोपियों को बरी कर दिया।
हालांकि ये सवाल अब भी बाकी है कि अक्षरधाम मंदिर पर हमले का जिम्मेदार कौन है। इसलिए लेखकद्वय ने इन संभावनाओं पर भी चर्चा की है और खुफिया विभाग के आला अधिकारियों के हवाले से वे ये संभावना जताते हैं कि इस हमले की राज्य सरकार को पहले से जानकारी थी। फिदाईन हमलों के जानकार लोगों के अनुभवों का हवाला देते हुए लेखकों ने यह शंका भी जाहिर की है क्या मारे गए दोनो शख्स सचमुच फिदाईन थे? इसके साथ ही इस हमले से मिलने वाले राजनीतिक फायदे और समीकरण की चर्चा भी की गई है।
सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि किताब में कहीं भी कोरी कल्पनाओं का सहारा नहीं लिया गया है। इस पूरे मुकदमें से जुड़े एक-एक तथ्य को बटोरने में लेखकों को लंबा समय लगा है। मौके पर जा कर की गई पड़तालों, मुकदमें में पेश सबूतों, गवाहियों, रिपोर्टों और बयानों की बारीकी से पड़ताल की गई है और इन सारी चीजों को कानून सम्मत दृष्टिकोण से विवेचना की गई है। यह किताब, राज्य सरकार की मशीनरी और खुफिया एजेंसियों, अदालतों तथा राजनीतिक महत्वाकांक्षा की साजिशों की एक परत-दर-परत अंतहीन दास्तान है।
आपरेशन अक्षरधाम”
(उर्दू हिंदी में एक साथ प्रकाशित)
लेखक – राजीव यादव, शाहनवाज आलम
प्रकाशक – फरोश मीडिया
डी-84, अबुल फजल इन्क्लेव
जामिया नगर, नई दिल्ली-110025
 POSTED BY : अवनीश कुमार

Saturday, November 28, 2015

श्री राम चन्द्र राम की थी कई पत्नियाँ : वाल्मीकि रामायण



रामायण तुलसीदास द्वारा रचित एक छोटी किन्तु सरल कहानी है, जिसमे अयोध्यापति श्री रामचन्द्र जी के जीवन एवं राजकाज की समस्त एवं सरल शब्दों में व्याख्या की गयी है । इसमें कुछ भी सनसनीखेज नहीं है क्योंकि ये अत्यंत ही सरल भाषा में लिखी गयी है। इसके अनुसार अयोध्यापति श्री राम महाराज दशरथ के पुत्र एवं अयोध्या नगरी के प्रजापालक थे जिसे आज हम और आप बनारस के नाम से जानते है।

देश की अधिकतर पुस्तको में सिर्फ यहीं तथ्य लिखा गया है के अयोध्यापति श्री राम का विवाह केवल सीता नामक महिला से हुआ था। विवाह के उपरान्त घरेलो वजह से उन्हें महाराज दशरथ ने चौदह वर्ष की अवधि तक वनों में निर्वासित जीवन जीने का कठोर आदेश दिया था । वनवास के दौरान उनके साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मन एवं पत्नी सीता थी। जहाँ किसी बात से नाराज़ होकर लंका पति या लंका के नरेश रावण ने उनकी पत्नी सीता का जंगल से अपहरण कर लिया था। तब वहां जंगल में वानर सेना के सेनापति हनुमान की सहायता से उन्होंने रावण को पराजित करके अपनी पत्नी सीता को फिर से प्राप्त कर लिया था। तत्पश्चात श्री राम अपने भाई लक्ष्मन एवं पत्नी सीता के साथ चौदह बर्ष के वनवास के पश्चात् अयोध्या नगरी वापिस पहुंचे। जबकि जो वर्णन तुलसीदास द्वारा रचित रामायण में किया गया है वो लगभग 2000 वर्ष पूर्व वाल्मीकि द्वारा लिखी गयी रामायण से एकदम अलग है।

वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में कई स्थानों पर लिखा गया है के अयोध्यापति श्री राम की सीता के अलावा कई और भी पत्निया थी। परन्तु श्री राम अपनी पहली पत्नी सीता से अत्यधिक प्रेम करते थे। इतना ही नहीं वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में अयोध्यापति श्री राम की निजी जिंदगी से सम्बंधित कई और भी राज़ लिखे हुए है। वाल्मीकि ने श्री राम को एक आम आदमी से अयोध्या का राजा बनते हुए वर्णित किया है जबकि तुसलीदास द्वारा रचित रामायण में उन्हें अयोध्यापति से बढ़कर स्वयं भगवान बताया गया है। महान कवी तुलसीदास ने उन्हें बड़ी सुन्दरता एवं चतुराई के साथ साधारण मनुष्य से हटकर एक भगवान के रूप में समाज के सामने चित्रित एवं वर्णित किया था।

श्री स़ी० आर० श्रीनिवास अयंगर ने वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण का अनुवाद करते हुए लिखा है की ”अयोध्यापति श्री राम की पहली पत्नी होने के कारण सीता उनकी रानी थी परन्तु श्री राम की सीता के अलावा भी कई और पत्निया थी, यही नहीं उनकी कई सेविकाए एवं सेवक भी थे। जो सब समय समय पर उनकी यौन इच्छा की पूर्ति किया करते थे। उस दौर में ऊँचे लोगो में (खासतौर से राजाओ में) यौन सुख की अविलम्ब प्राप्ति के लिए कई कई पत्निया रखने का रिवाज था (अयोध्या कांडम अध्याय 8, पृष्ट 28) जिसे दोष नहीं समझा जाता था।”

वाल्मीकि रामायण के अनुसार अयोध्यापति श्री राम का पहली पत्नी सीता से विवाह एक आदर्श विवाह नहीं था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार अयोध्यापति श्री राम की कई पत्नियाँ थी जो भिन्न भिन्न प्रकार की क्रीडाओ के लिए उनका साथ दिया करती थी, जिनमे यौन क्रीड़ाये भी शामिल थी। वाल्मीकि रामायण में एक स्थान पर लिखा गया है के स्वयं अयोध्यापति श्री राम महाराज दशरथ की जैविक संतान नहीं थे क्योंकि उन्हें कई अन्य लोगो की जैविक संतान माना गया था। परन्तु महाराज दशरथ ने ये तथ्य जानते हुए भी की श्री राम उनका अपना पुत्र नहीं है उन्हें अयोध्या का प्रजापालक नियुक्त किया था। वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण में इसका भी वर्णन किया गया है के श्री राम ने वनवास से लोटने के पश्चात कैसे अपना जीवन बिताया था।

वाल्मीकि ने लिखा है की उनका खुद का घर अशोक पार्क नामक स्थान पर था जहाँ उनकी पसंद की हर एक वस्तु उपलब्ध थी। श्री राम को खाने में जो जो पसंद था वो सब तो वहां पर उपलब्ध रहता ही था, वहां पर फल फूल, मांस और मदिरा का भी उचित प्रबंध किया जाता था। प्रत्येक उपलब्ध होने वाली खाद्य सामग्री का सेवन स्वयं अयोध्यापति श्री राम अपने घर पर किया करते थे। वाल्मीकि ने आगे लिखा है की कभी कभी स्वयं उनकी पहली पत्नी सीता भी मांस मदिरा का सेवन करने में उनका साथ दिया करती थी।

यहीं नहीं वें दोनों नृत्य के भी शौक़ीन थे इसके लिए उन्होंने अपने घर में बहुत सारी नृतकियों का उचित प्रबंध किया हुआ था। कई बार स्वयं पति पत्नी में मदिरा के सेवन को लेकर प्रतियोगिता भी होती थी। पति पत्नी दोनों एक साथ अप्सराओं, नृतकियों, किन्नरों आदि के नृत्य का भी भरपूर आनंद उठाते थे। कई बार स्वयं अयोध्यापति श्री राम पिने में इतने मस्त हो जाया करते थे के वो स्वयं उठकर नाचने वाली सुन्दर एवं नग्न महिलाओ के मध्य में जा बैठते थे। जो नृतकी या नृतक उन्हें प्रसन्न कर देता था उसे स्वयं अयोध्यापति श्री राम हीरे जवाहरात से जडित आभूषण उपहार स्वरुप दिया करते थे।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार अयोध्यापति श्री राम की छवि पुरुषों के मध्य महिलाओ के प्रिंस की बन गयी थी। अयोध्यापति श्री राम की ये क्रीडाएं उनके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गयी थी। जिसे कोई दूसरा व्यक्ति नहीं रोक सकता था केवल वें स्वयं ही इसे रोक सकते थे। बहरहाल, आज जिस रामायण की लोग पूजा करते है वो महान कवी तुलसीदास द्वारा रचित एक काव्य ग्रन्थ है। जिसमे अयोध्यापति श्री राम को स्वयं इश्वर बताया गया है। वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के अस्तित्व के प्रमाण ना मिलने की वजह से उसे पूजने योग्य नहीं माना गया था। जिस कारण से लोग उसके अनुसार पूजा अर्चना नहीं कर सकते।
धन्यवाद।

Posted by : अब्दुल कादिर गौर ”राही अनजान ” अलीगढ 

Thursday, November 26, 2015

26/11 हादसे में सबसे उलझी कड़ी है शहीद हेमंत करकरे की हत्या-उन्होंने मालेगाँव बम ब्लॉस्ट की परतें उधेड़कर मुंबई सहित कई सुरक्षा एजेंसियों को बेनकाब किया था


26/11 हादसे में सबसे उलझी कड़ी है शहीद हेमंत करकरे की हत्या-उन्होंने मालेगाँव बम ब्लॉस्ट की परतें उधेड़कर मुंबई सहित कई सुरक्षा एजेंसियों को बेनकाब किया था

26/11 ये वो काला दिन है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता और न ही इसका जख़्म कभी भर सकता है | वैसे तो इस मुद्दे पर अब तक बहुत कुछ लिखा जा चुका है, दोषियों को सज़ा भी मिल चुकी है पर कुछ सवाल ऐसे हैं जिनका जवाब अब शायद ही कभी मिल पाये | इस हादसे में सबसे उलझी कड़ी है शहीद हेमंत करकरे की हत्या | सबसे बड़ा सवाल कि विजय सालस्कर और अशोक कामटे जो कि एक दूसरे के प्रतिद्वंदी थे, एक दूसरे को फूटी आँख नहीं देख सकते थे, इन दोनों में होड़ थी कि कौन अधिक से अधिक एनकाउंटर अपने नाम करवाता है वे दोनों एक साथ कैसे आये ?

न०-2 शहीद हेमंत करकरे जो कि उस समय अंधाधुंध फेक एनकाउंटर करने के कारण इन दोनों अधिकारियों को बिलकुल भी पसंद नहीं करते थे बल्कि इनपर कार्यवाई करना चाहते थे वे इन दोनों के साथ कैसे आ गये, उन्हों ने इनपर भरोसा कैसे कर लिया ? जबकि ऐसे मौके पर स्ट्रैजी यह होनी चाहिए थी कि तीनों ऑफिसर तीन अलग अलग टुकड़ियों की कमान लेकर अलग अलग दिशाओं से मोर्चा लेते |

3- मैने देखा है खुद मेरा अनुभव है एक बार गोवा में मेरी गाड़ी का ऐक्सीडेंट हो गया, लगभग डेढ़ सौ मीटर पे पुलिस चौकी थी, पुलिस आई उसने सबसे पहले पूछा किसी को चोट तो नहीं आई, उसके बाद रोड को दोनों तरफ से बंद करके सड़क की चौड़ाई नापी, घटना स्थल से इलेक्ट्रिक पोल की दूरी नापी, नज़दीकी घुमाव, चौराहा, और सिगनल की दूरी दर्ज की यहाँ तक कि दोनों गाड़ियों की लंबाई भी नापी फिर गाड़ी सड़क के किनारे लगाकर हम दोनों के बयान दर्ज किये, एनलाइज़र लगाकर एल्कोहल का पता लगाया तब कहीं जाकर उनका पंचनामा पूरा हुआ | आपने भी देखा होगा कि यदि कहीं कोई छोटी सी भी घटना हो जाये तो सर्वप्रथम पुलिस उस जगह को सील कर देती है, वहाँ मौजूद और पास पड़ोस के लोगों का बयान दर्ज करती है, हर छोटी से छोटी चीज़ को जब्त कर लेती है, हर सामान में फिंगर प्रिंट या फुटमार्क ढूँढती है | पर यहीं से गंभीर सवाल उठता है कि एस्कॉटलैंडयार्ड के बाद विश्व में सबसे तेज़ तर्रार मानी जाने वाली हमारी मुंबई पुलिस अपने बरिष्ठ IAS अधिकारी तत्कलीन ATF चीफ हेमंत करकरे की हत्या को इतना सरसरी तौर पर लेती है कि बुलेट प्रूफ जैकेट गवां देती है, आख़िर इतनी बड़ी चूक कैसे संभव है ? फिर उसके बाद यही मुंबई पुलिस करकरे की विधवा को हर बार ग़लत जानकारियाँ देकर गुमराह करती है, आख़िर क्यूँ ?

यह बात सर्व विदित है कि करकरे लीक से हटकर काम करने वाले एक मात्र ईमानदार अधिकारी थे, यह भी सब को पता है कि उन्होंने मालेगाँव बम ब्लॉस्ट की परतें उधेड़कर मुंबई सहित कई शुरक्षा एजेंसियों को बेनकाब किया था, और असली आरोपियों को जेल भेजा था | सबसे पहले उन्होंने ही सेना में कार्यरत आतंकी कर्नल पुरोहित को पकड़ा, और उन्होंने ही आतंकवाद में संघ की संलिप्तता को उजागर किया उसके बावजूद उनकी हत्या को इतने हल्के में क्यूँ लिया गया यह समझ से परे है |

इतने सारे सवालों और इतनी चूक के बाद सवाल उठता है कि इससे फायदा या नुकसान किसका हुआ ? तो नुकसान मेरी नज़र में सबसे अधिक मुंबई की जनता का हुआ जिसके बेगुनाह लोग मारे गये, देश का हुआ कि उसने करकरे जैसा ईमानदार ऑफिसर खो दिया, और तत्कालीन कांग्रेस सरकार का हुआ जिसे अपना केंद्रीय गृहमंत्री (शिवराज पाटिल) तत्कालीन मुख्यमंत्री (विलाश राव देशमुख) हटाना पड़ा | उन बेगुनाह मुसलमानों का नुकसान हुआ जिन्हें पुलिस ने फर्जी आरोपों में बंद कर रखा था और वह करकरे से न्याय की उम्मीद लगा बैठे थे |
26/11 के हमलावर पाकिस्तानी थे इसमें कोई शक नहीं, थोड़ी ना नुकुर के बाद पाकिस्तान ने भी मान ही लिया पर स्लीपर सेल में कौन कौन थे इसका पता आज तक नहीं चला | एक बात और भी गले नहीं उतरती कि दुनिया की सशक्त नेवी में शुमार होने वाली हमारी भारतीय नेवी कैसे चूक गई, कैसे दस लोग इतना लंबा सफर करके सकुशल अपनी मंजिल तक पहुंच गये | हमारी ख़ुफिया एजेसिंयों कि इसकी कानों कान ख़बर क्यूँ नहीं हुई, कहीं उनके स्लीपर सेल का रोल हमारी शुरक्षा एजेंसियों के लोग ही तो नहीं थे या कहीं हमारी शुरक्षा एजेंसियों ने स्लीपर सेल को बचाने का काम तो नहीं किया ?
सारे नफा नुकसान और तथ्यों को देखने के बाद जो अहम सवाल मन मे आता है वो ये कि आतंकी पाकिस्तान से आये थे या लाये गये थे |
नोट-लेख में उक्त विचार लेखक निजी हैं।

Posted by : अकबर, मुंबई

Wednesday, November 18, 2015

पाकिस्तान के निर्माण में #RSS का हाथ



बड़ा खुलासा पाकिस्तान के निर्माण में #RSS का हाथ ||

पाकिस्तान का निर्माण किसने किया ?

1937 में हिन्दू महासभा के अहमदाबाद-अधिवेशन में खुद सावरकर ने द्विराष्टंवाद के सिद्धान्त का समर्थन किया था। मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के लिए प्रस्ताव किया, उससे तीन वर्ष पूर्व ही सावरकर ने हिन्दू और मुसलमान, ये दो अलग-अलग राष्टींयताए! हैं, यह प्रतिपादित किया था। जब दो साम्प्रदायिक ताकतें एक-दूसरे के खिलाफ काम करने लगती हैं, तब दोनों एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होती हैं, और वह होता है आत्मविनाश का। हिन्दू सम्प्रदायवादियों ने ऐसा करके अंग्रेजों और भारत-विभाजन चाहने वाले मुसलमानों को फायदा ही पहु!चाया था। इन महान देशप्रेमियों ने1942 की आजादी के आन्दोलन में तो भाग नहीं ही लिया था, उल्टे ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखकर यह जानकारी भी दी थी कि हम आन्दोलन का समर्थन नहीं करते हैं। गांधीजी आये, उसके पहले राष्टींय राजनीति का नेतृत्व उनके पास ही था। लेकिन तब भी उन्होंने उन दिनों कोई बडा पराव्म नहीं किया था, यह हम सबकी जानकारी में है ही। गांधी के आने के बाद भी इन लोगों ने राष्टंहित में कोई मामूली काम करने की भी जहमत नहीं उठाई। गुरु गोलवलकर ने ऐडाल्फ हिटलर का अभिनन्दन किया, फिर भी अंग्रेजों ने उनको गिरफ्तार नहीं किया। कारण यह कि अंग्रेज मानते थे कि ये दो कौडी के निकम्मे लोग हैं। ये लोग तो तला पापड भी नहीं तोड सकते ! अंग्रेजों का यह आकलन था उनकी ताकत के बारे में।


भारत-विभाजन के लिए जितने जिम्मेदार मुस्लिम लीग तथा अंग्रेज हैं, उतने ही ये मूर्ख हिन्दुत्ववादी भी जिम्मेदार हैं। आजाद भारत में हिन्दू ही हुकूमत करेंगे, ऐसा शोर मचाकर हिन्दुत्ववादियों ने विभाजनवादी मुसलमानों के लिए एक ठोस आधार दे दिया था। ये विभाजनवादी लोग कहम् मुहम्मद अली जिन्ना, कहम् सावरकर, हेडगेवार, गोलवलकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी आदि का भय दिखाकर उनका चालाकीपूर्वक उपयोग करते थे। हिन्दुत्ववादी अभी भी अपनी बेवकूफियों पर गर्व का अनुभव करते हैं। अंग्रेजों को जिन्हें कभी जेल में रखने की जरूरत ही नहीं पडी, उन गोलवलकर की अदृश्य ताकत का उपयोग अंग्रेज गांधीजी के खिलाफ करते थे। शहाबुद्दीन राठौड की भाषा में कहें तो उस समय की राष्टींय राजनीति में यो लोग जयचन्द थे। भारत का विभाजन गांधी के कारण नहीं हुआ है, इन लोगों के कारण हुआ है। गांधीजी ने तो अन्त तक भारत विभाजन का विरोध किया था। गांधीजी ने अन्तिम समय तक इसके लिए जिन्ना के साथ क्रमबद्ध मंत्रणाए! कीं। गांधीजी ने पाकिस्तान को स्टेट माना था। (देखें प्यारेलाल लिखित 'लास्ट फेज') गांधीजी सर्वसमावेशक उदार राष्टंवादी थे। इसीलिए उन्होंने सब कौमों को अपनाया था, मात्र मुसलमानों को ही नहीं। प्रत्येक छोटी अस्मिता व्यापक राष्टींयता में मिल जाय, यह चाहते थे गांधीजी। एक राष्टींय नेता की यह दूरदृष्टि थी। महात्मा का यह वात्सल्य-भाव था सबके प्रति। बदनसीबी से हिन्दू राष्टंवादी यह समझना ही नहीं चाहते थे।

Sunday, November 15, 2015

संघ का खूनी इतिहास


FBP/15-984

संघ का खूनी इतिहास :  

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक विद्वान विचारक हैं राकेश सिन्हा जी , वह "संघ के विशेषज्ञ" के नाम से लगभग हर टीवी चैनल पर बहस करते रहते हैं और संघ के काले को सफेद करते रहते हैं ।कुछ दिन से हर टीवी डिबेट में यह बता रहे हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक कोई आज का पैदा नहीं है बल्कि 1925 का जन्म लिया अनुभवी संगठन है । सोचा संघ के 90 वर्ष के जीवन का पोस्टमार्टम किया जाए ।

1925 कहने का तात्पर्य सिन्हा जी या अन्य संघ के विद्वानों का इसलिए है कि उसी समय इनके एक योद्धा "सावरकर" ने एक संगठन बनाया था जिसका संघ से कोई लेना देना नहीं था सिवाय इसके कि संघ को सावरकर से जहर फैलाने का सूत्र मिला । सावरकर पहले कांग्रेस में थे परन्तु आजादी की लड़ाई में अंग्रेज़ो ने पकड़ कर इनको "आजीवन कैद" की सज़ा दी और इनको "कालापानी" भेजा गया जो आज पोर्ट ब्लेयर( काला पानी) के नाम से जाना जाता है ।संघ के लोगों से अब "वीर" का खिताब पाए सावरकर कुछ वर्षों में ही अंग्रेज़ों के सामने गिड़गिड़ाने लगे और अंग्रेजों से माफी मांग कर अंग्रेजों की इस शर्त पर रिहा हुए कि स्वतंत्रता संग्राम से दूर रहेंगे और अग्रेजी हुकूमत की वफादारी अदा करते उन्होंने कहा कि " हिन्दुओं को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने की बजाए अपनी शक्ति देश के अंदर मुसलमानों और इसाईयों से लड़ने के लिए लगानी चाहिए" ध्यान दीजिये कि तब पूरे देश का हिन्दू मुस्लिम सिख एक साथ कंधे से कंधा मिलाकर आजादी के लिए मर रहा था शहीद हो रहा था और तब ना कोई यह सोच रहा था कि हिन्दू मुस्लिम अलग भी हो सकते हैं , तब यह "वीर" देश में आग लगाने की बीज बो रहे थे , जेल से सशर्त रिहा हुए यह वीर देश की आपसी एकता के विरूद्ध तमाम किताबों को लिख कर सावरकर ने अंग्रेजों को दिये 6 माफीनामे की कीमत चुकाई देश के साथ गद्दारी की और आजाद भारत में नफरत फैलाने की बीज बोते रहे ।

1947 में देश आजाद हुआ और देश की स्वाधीनता संग्राम आंदोलन के ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज बनाने का फैसला स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने लिया तो इसी विचार के लोग इसके विरोध में और अंग्रेजों को वफादारी दिखाते राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को जला रहे थे और पैरों से कुचल रहे थे और मौका मिलते ही देश के विभाजन के समय हिन्दू - मुस्लिम दंगों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया और मौका मिलते ही देश के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या कर दी क्युँकि सावरकर हेडगेवार की यह सोच थी कि इस देश में "गाँधी" के रहते उनके उद्देश्य पूरे नहीं होंगे। संघ के जन्मदाता हेडगेवार और गोवलकर ने गाँधी जी की हत्या करने के बाद (सरदार पटेल ने स्वीकार किया ) अपने विष फैलाने की योजना में लग गये , तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू राष्ट्र के निर्माण में लग गये और संघ के लोग भविष्य के भारत को ज़हर से भरने के औज़ार बनाने लगे , नेहरू पटेल को उदारवादी कहिए या उनकी मूक सहमति , संघ को पैदा होते ही उसके देश विरोधी क्रिया

कलाप देख कर भी आंखें मूंदे रहे ।इस बीच संघ ने देश की एकता को तोड़ने के सारे वह साहित्यिक हथियार पुस्तकों के रूप में बना लिए जिससे हिन्दू भाईयों की धार्मिक भावना भड़के जिसका मुख्य आधार मुसलमानों से कटुता और मुगलों के झूठे आत्याचार थे , न्यायिक प्रक्रिया में दंड पाए लोगों को भी हिन्दू के उपर किया अत्याचार किया दिखाया गया , शासकीय आदेशों को तोड़ मरोड़कर हिन्दू भाईयों पर हुए अत्याचार की तरह दिखाया गया तथा इतिहास को तोड़ मरोड़कर मुगल शासकों को अत्याचारी बताया कि हिन्दुओं पर ऐसे ऐसे अत्याचार हुआ और औरंगज़ेब को उस अत्याचार का प्रतीक बनाया गया , एक से एक भड़काने वाली कहानियाँ गढ़ी गईं और इसी आधार पर संघी साहित्य लिखा गया पर जिस झूठ को सबसे अधिक फैलाया गया वो था कि " औरंगज़ेब जब तक 1•5 मन जनेऊ रोज तौल नहीं लेता था भोजन नहीं करता था" अब सोचिएगा जरा कि एक ग्राम का जनेऊ 1•5 मन (60 किलो) कितने लोगों को मारकर आएगा ? 60 हजार हिन्दू प्रतिदिन , दो करोड़ 19 लाख हिन्दू प्रति वर्ष और औरंगज़ेब ने 50 वर्ष देश पर शासन किया तो उस हिसाब से 120 करोड़ हिन्दुओं को मारा बताया गया जो आज भारत की कुल आबादी है और तब की आबादी से 100 गुणा अधिक है ।पर ज़हर सोचने समझने की शक्ति समाप्त कर देती है तो भोले भाले हिन्दू भाई विश्वास करते चले गए ।इन सब हथियारों को तैयार करके संघ अपनी शाखाओं का विस्तार करता रहा और हेडगेवार और गोवलकर एक से एक ब्राह्मणवादी ज़हरीली किताबें लिखते रहे प्रचारित प्रसारित करते रहे जिनका आधार "मनुस्मृति" थी और गोवलकर की पुस्तक "बंच आफ थाट" संघ के लिए गीता बाईबल और कुरान के समकक्ष थी और आज भी है।नेहरू के काल में ही अयोध्या के एक मस्जिद में चोरी से रामलला की मुर्ति रखवा दी गई और उसे बाबर से जोड़ दिया गया जबकि बाबर कभी अयोध्या गये ही नहीं बल्कि वह मस्जिद अयोध्या की आबादी से कई किलोमीटर दूर बाबर के सेनापति मीर बाकी ने बनवाई थी , ध्यान रहे कि उसके पहले बाबरी मस्जिद कभी विवादित नहीं रही परन्तु नेहरू आंख बंद किये रहे ।नेहरू के बाद इंदिरा गांधी का समयकाल प्रारंभ हुआ और सख्त मिजाज इंदिरा गांधी के सामने यह अपने फन को छुपाकर लुक छिप कर अपने मिशन में लगे रहे और कुछ और झूठी कहानियाँ गढ़ी और अपना लक्ष्य निर्धारित किया जो "गोमांस , धारा 370 , समान आचार संहिता , श्रीराम , श्रीकृष्ण जन्मभूमि और काशी विश्वनाथ मंदिर , स्वदेशीकरण थे । इंदिरा गांधी ने आपातकाल में जब सभी को जेल में ठूस दिया तो संघ के प्रमुख बाला साहब देवरस , इंदिरा गांधी से माफी मांग कर छूटे और सभी कार्यक्रम छुपकर करते रहे पर इनको फन फैलाने का अवसर मिला इंदिरा गांधी की हत्या के बाद , तमाम साक्ष्य उपलब्ध हैं कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के सिख विरोधी दंगों में संघ के लोगों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था ।राजीव गांधी बेहद सरल और कोमल स्वभाव के थे और उतने ही विनम्र , जिसे भाँप कर संघियों ने अपना फन निकालना प्रारंभ किया और हिन्दू भाईयों की भावनाओं का प्रयोग करके श्रीराम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद के विवाद को हवा दे दी और आंदोलन चला दिया , पर पहले नरम अटलबिहारी वाजपेयी को मुखौटे के रूप में आगे किया जिसकी स्विकरोक्ती गोविंदाचार्य ने भी अटलबिहारी वाजपेयी को मुखौटा कह कर की , संघ का दोगलापन उजागर करने की कीमत उनको संघ से बाहर करके की गई और वह आजतक बाहर ही हैं । दूसरी तरफ लालकृष्ण आडवाणी तमाम तैयार हथियारों के सहारे हिन्दू भाईयों को उत्तेजित करते रहे जैसे आज योगी साध्वी और तोगड़िया करते हैं ।राजीव गांधी के पास संसद में इतनी शक्ति थी कि संघ को कुचल देते तो यह देश के लिए सदैव समाप्त हो जाते परन्तु सीधे साधे राजीव गांधी कुटिल दोस्तों की बातों को मानकर गलत ढुलमुल फैसलों से संघ को खाद पानी देते रहे , कारसेवा और शिलान्यास के नाम पर राजीव गांधी का इस तरह प्रयोग किया गया कि संघ को फायदा हो और संघ की रखैल भाजपा ने उसका खूब फायदा उठाया और दो सीट से 88 सीट जीत गई ।फिर वीपी सिंह की सरकार बनी भाजपा और वाम मोर्चा के समर्थन से तथा संघी जगमोहन को भेजकर काश्मीर में आग लगा दिया गया ।

अब सब हथियार और ज़मीन तैयार हो चुकी थी और प्रधानमंत्री नरसिंह राव का समय काल प्रारंभ हुआ जो खुद संघ के प्रति उदार थे , उड़ीसा में पादरी ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बच्चों को जलाकर मारने के बाद अंतर्राष्ट्रीय दबाव के बाद संघ ने इसाईयों के प्रति नफरत फैलाने की नीति छोड़कर सारी शक्तियों को देश के मुसलमानों से नफरत फैलाने में लगा दिया , संघ ने प्रधानमंत्री राव की चुप्पी का फायदा उठाया अपने बनाए झूठे हथियारों से हिन्दू भाईयों के एक वर्ग की भावनाएँ भड़काई और अपने साथ जोड़ लिया । साजिश की संसद और उच्चतम न्यायालय को धोखा दिया और अपने लम्पटों के माध्यम से बाबरी मस्जिद 6 दिसंबर को गिरा दी ।

इसके बाद अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो सारे जन्म स्थान के मंदिर 370 स्वदेशीकरण सब दफन कर दिया गया और हर छोटे बड़े दंगों में शामिल रहा संघ ने साजिश करके गुजरात में इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार कराया और अपने चरित्र के अनुसार एक नायक बनाया। फिर अपने असली रूप चरित्र और सिद्धांतों के अनुसार उसी असली नायक नरेंद्र मोदी को आगे किया और झूठ और फेकमफाक के आधार पर और आज सत्ता पर कब्जा किया।

संघ की यह सब राजनीति उत्तर भारत के प्रदेशों के लिए थी क्युँकि मुगलों का शासन अधिकतर उत्तर भारत में ही था। दक्षिण के राज्य इस जहर से अछूते थे इसलिए अब वहाँ भी एक मुसलमान शासक को ढूढ लिया गया और देश की आजादी से आजतक 67 वर्षों तक निर्विवाद रूप से सभी भारतीयों के हृदय में सम्मान पा रहे महान देशभक्त टीपू सुल्तान आज उसी प्रकिया से गुजर रहे हैं जिससे पिछले सभी मुगल बादशाह गुजर चुके हैं , मतलब हिन्दुओं के नरसंहारक बनाने की प्रक्रिया।और आज उनकी जयंती पर हुए विरोध में एक यूवक की हत्या भी कर दी गई।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि जो जुल्मों और लूट का जो इतिहास प्रमाणित रूप से दुनिया के सामने हैं यह उसकी निंदा भी नहीं करते , इस देश को सबसे अधिक लूटने वाले अंग्रेजों की ये कभी आलोचना नहीं करते जो देश की शान "कोहिनूर" तक लूट ले गये , जनरल डायर की आलोचना और जलियांवाला बाग के शहीदों के लिए इनके आँसू कभी नहीं गिरते , आज संघ के पास शस्त्र सहित कार्यकर्ताओं की फौज है जो शहरों में दहशत फैलाने के लिए सेना की तरह फ्लैगमार्च करते हैं , संविधान की किस धारा के अनुसार उन्हे यह अधिकार है यह पता नहीं । भारतीय इतिहास में जुल्म जो हुआ वह अंग्रेज़ों ने किया और उससे भी अधिक सदियों से सवर्णों ने किया दलितों और पिछड़ों पर , जब चाहा जिसे चाहा सरेआम नंगा कर दिया जो इन्हे दिखाई नहीं देता क्योंकि इनको जुल्मों से मतलब नहीं आपस में लड़ाकर देश मे जहर फैलाकर सत्ता पाने से है और उसके लिए देश टूट भी जाए तो इनसे मतलब नहीं।

इसी लिये कहता हूँ साजिशें करने मे माहिर संघ को "संघमुक्त भारत" करके ही इस देश का भला हो सकता है और यह समय इस अभियान के लिए सबसे उपयुक्त है।

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BJP & RSS भी आतंकवादी है ये लोग पाकिस्तान की ISI से चंदा लेते है


सावधान इंडिया ..........!!!!!!

BJP & RSS भी आतंकवादी है ये लोग पाकिस्तान की ISI से चंदा लेते है

मालेगाँव धमाके के आरोपी दयानन्द पाण्डेय का इकबालिया बयान.
RSS के श्याम आप्टे और मोहन भागवत को मिलता है पाकिस्तानी ISI से पैसा.
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