Wednesday, October 30, 2013

भारतीय नये मुसलमान

जावेद अहमद (जोगेन्‍द्र आशीष पाटिल) से एक दिलचस्प मुलाकात interview

अहमद अव्वाह: अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि वबरकातुहू
जावेद अहमदः वालैकुमुस्सलाम व रहमतुल्लाहि वबरकातुहू


अहमदः जावेद साहब आप बंगलौर से कब तशरीफ़ लाये थे?
जावेदः मैं पिछले हफ्ते आया था, असल में, मैं वसीम भाई से बहुत ज़माने से कह रहा था कि हजरत से मुलाकात करा दो, मगर उनको छुट्टी नहीं मिल रही थी, इत्तिफाक़ से कम्पनी की तरफ से दिल्ली एक काम के लिए सफर का प्रोग्राम बनाया, मैं ने खदीजा से कहा कि चलो दोनों चलते हैं। हज़रत से मुलाकात हो जायेगी, वह बहुत खुश हुयी, अल्लाह का शुक्र है हज़रत से मुलाकात हो गयी।


अहमदः आपका वतन बंगलोर है?
जावेदः नहीं, हम लोग महाराष्ट्र में पूना के क़रीब के रहने वाले हैं, मेरी पत्नि खदीजा नागपुर के करीब एक शहर से ताल्लुक रखती हैं, अब उनके वालिद बंगलौर में रहने लगे हैं, वह बी.जे.पी. के असिस्टेंट सेक्रेट्री हैं और वह बडे एक्टिव लीडर हैं, उन्होंने नागपुर को, सिर्फ कर्नाटक में पार्टी का काम करने के लिए छोडा है, और उनके कर्नाटक आने से पार्टी को बडा फायदा हुआ, और अगर मैं कहूं कि कर्नाटक में मौजूदा फ़िरक़ेवाराना माहौल बनाने में ख़दीजा के वालिद का असल रोल है तो गलत न होगा।


अहमदः आपके वालिद किया करते हैं?
जावेदः मेरे वालिद साहब एक स्कूल के प्रिन्सपल हैं, पूना में, मैंने अपनी तालीम मुकम्मल की, वहीं से ग्रेजवेशन, फिर बी.टेक और एम.टेक किया, बंगलौर मैं विप्रो एक साफ्टवेयर की मशहूर कम्पनी है, इसी में मुझे मुलाज़मत मिल गयी है, उसी में काम करता हूं, अल्लाह का शुक्र है बहुत फरावानी का रोज़गार अल्लाह ने मुझे दे रखा है।
अहमदः आपकी पत्नि भी मुलाज़मत करती हैं ?
जावेदः करती थीं, अलहम्दु लिल्लाह मुसलमान होने के बाद मैंने उनसे मुलाज़मत छुडवा दी है।


अहमदः उनकी तालीम कहां तक है?
जावेदः वह भी एम.टेक हैं, बल्कि वह बी.टेक और एम.टेक में गोल्ड मेडलिस्ट हैं, वह एक बहुत मशहूर अमरीकी कम्पनी में काम कर रही थीं, उनको दो साल पहले, जब मुलाज़मत छोडी है एक लाख अठारह हज़ार रूपए तन्खाह मिलती थी।


अहमदः इतनी बडी तन्खाह छोडने पर राज़ी हो गयीं?
जावेदः जिस बडी चीज़ के लिए मुलाज़मत छोडी है, यह तन्खाह उसके पासंग में भी नहीं आयेगी, उन्होंने यह मुलाज़मत अपने रब अहकमुल हाकिमीन का हुक्म मानने के लिए छोडी है, अब आप बताईये कि अल्लाह के हुक्म के आगे यह एक लाख रूपए महीना की तन्खाह क्या हैसियत रखती है? और सच्ची बात यह है (रोते हुए) हम गंदे तो एक पैसा छोडने वाले नहीं थे, मेरे करीम रब को हम पर तरस आया कि उन्होंने हमें ईमान अता फरमाया और इस ईमान के लिए इस तन्खाह को छोडने की तौफीक भी दी।


अहमदः माशा अल्लाह बहुत मुबारक हो जावेद साहब, अल्लाह ताला हमें भी इस ईमान का कुछ हिस्सा अता फरमाए?
जावेदः आप कैसी बात कर रहे हैं, हम आपके सामने किस लायक हैं, मौलाना अहमद आपके पास तो ईमान का खजाना है, आप तो ईमान के सिलसिले में पुश्तैनी रईस हैं, और हम तो अभी सडकछाप रिटेल्रर(दुकानदार) हैं।


अहमदः असल में आपका ईमान खुद का कमाया हुआ है, और हम लोगों को वर्से में मिल गया है?
जावेदः हमारा भी खुद का कमाया हुआ कहां है, सिर्फ और सिर्फ हमारे अल्लाह की करमफरमायी कि हम निकम्मों को भीक में दे दिया है, अल्बत्ता हमें अभी-अभी मिला है। नयी-नयी नेमत मिलती है तो ज़रा कद्र तो होती है, शौक़ सा रहता है, नयी-नयी गाडी मिल जाए, नया घर मिल जाए तो ज़रा शौक सा तो रहता है, बस हमारा हाल यही है।


अहमदः आपको इस्लाम से कैसे दिलचस्पी हुई?
जावेदः यह एक दिलचस्प कहानी है।


अहमदः ज़रा तफसील इसकी मालूम करना चाहता हूं?
जावेदः 2006 में, मैं बंगलोर आया तो शान्ति नगर के पास एक होस्टिल में रहने लगा, हमारे करीब में मेरी अहलिया खदीजा का घर था, इत्तिफाक से दोनों का आफिस एक ही इलाके में था, हम लोग तकरीबन रोज एक बस से जाते थे। चन्द दिनों में हम लोगों में ताल्लुकात हुए, मैंने अपने घर जाकर खदीजा से (जिस का नाम उस वक्त अंजली था) शादी करने की खाहिश का इजहार किया, हमारे घर वाले, बंगलोर आए और उन्होंने इस लडकी को बहुत पसंद किया और मंगनी का सवाल डाल दिया, मैं भी चूंकि सूरत, शक्ल, खानदान और रोज़गार के लिहाज़ से ठीक-ठाक थ तो अंजली के घर वाले खुशी से तैयार हो गए, मंगनी हुई और फिर 12 जनवरी 2007 को हमारी शादी हो गयी, शादी में अंजली के वालिद ने एक अच्छा सा फलैट अपने घर के करीब दहेज में दिया, शादी उन्होंने आर.एस.एस. का संचालक होने की वजह से बहुत सादगी से की।


अहमदः अच्छा आर.एस.एस. के संचालक सादगी से शादी करते हैं?
जावेदः जी आपको मालूम नहीं, उनके यहां दहेज वगेरा देने की भी पाबन्दी है, यह फलैट भी उन्होंने बहुत छुप कर दिया है, लोगों को मालूम नहीं।


अहमदः हां तो आगे बताईए?
जावेदः मैं होस्टिल छोड कर अपनी अहलिया के साथ उनके फलैट में रहने लगा, मेरे साथ मेरी कम्पनी में जम्मू-कश्मीर के एक साहब वसीम नाम के मुलाज़मत करते हैं, सूरत से खूबसूरत मुसलमान, पूरी दाढी के साथ मुलाज़मत करते हैं, आफिस में पाबन्दी से जोहर, असर की नमाज़ अदा करते हैं, हम लोग उनको देख कर शुरू-शुरू में कशमीरी आतंकवादी समझते थे, मगर जैसे-जैसे दिन गुजरते गए पूरे दफ्तर में उनकी पहचान एक बहुत शरीफ और मोहतरम इन्सान की तरह हो गयी, शायद हमारे पूरे दफ्तर में लोग उनसे ज्यादा किसी का अहतराम करते हों, उनके अफसर भी उनको हुजूर व जनाब से बात करते हैं और यह सिर्फ उनकी दीनदारी की वजह से है, उनकी एक बहन जो उनके साथ बंगलोर में रहती हैं, फिज़ियोथरापिस्ट हैं, एक नर्सिंग होम में काम करती हैं, वह भी बुर्के और नक़ाब के साथ वहां जाती हैं और एक मुस्लिम नर्सिंग होम में सिर्फ औरतों को वर्जिश कराती हैं, यह दोनों भाई बहन आपके वालिद साहब से दिल्ली में बेअत हुए थे और मासिक ‘अरमुगान‘ पाबन्दी से पढते रहे हैं, दोनों दावत की धुन में लगे रहते हैं, वसीम साहब मौका पाते ही शुरू हो जाते हैं, दफ्तर के बहुत से लोगों को उन्होंने किताबें और कुरआन मजीद सलाम सेन्टर से लाकर दिए हैं, मेरे दफ्तर में मुझ से पहले दो लोग उनकी कोशिश से मुसलमान हो चुके थे, एक इतवार को उन्होंने मुझे अपने घर लंच पर आने की दावत दी और घर बुलाकर बहुत दर्द के साथ इस्लाम कबूल करने को कहा, मैंने कहा कि मैं इस्लाम को पसंद करता हूं और इस्लाम की तरफ से मेरा जहन बिल्कुल साफ हो गया है और मैं समझता हूं कि इस्लाम ही सच्चा मज़हब है, हिन्दू मज़हब खुद उलझी हुयी भूल-भुलैया है जिस में अक्ल के लिए कुछ भी नहीं, मगर मेरा खानदान खसूसन मेरी ससुराल जिसके साथ में रह रहा हूं, वह आर. एस. एस. और बी. जे. पी. का सरकर्दा खानदान है, मेरे लिए मुसलमान होना किस तरह मुमकिन है? वह रोने लगे और बोले आशीष भाई! मौत के बाद अगर खुदा न करे, ईमान के बगेर मौत आ गयी तो सिर्फ आपके सास-ससुर नहीं, सारी दुनिया के नेता मिल कर आपको दोज़ख से बचाना चाहेंगे तो बचा नहीं सकते, इस लिए आप अल्लाह के लिए सच्चे दिल से कलमा पढो और मुसलमान हो जाओ, आप किसी को मत बताना, मैं ने कहा ‘मुझे नमाज पढनी पडेगी, इस्लाम को फालो करना पडेगा, वर्ना मुसलमान होने का क्या फायदा होगा? वसीम साहब ने कहा कि छुप कर जैसा मौका मिले, आप नमाज वगैरा पढ लिया करना, अगर आप जिन्दगी भर एक नमाज भी न पढ सके, लेकिन सच्चे दिल से कलिमा पढ कर अन्दर से ईमान ले आये तो हमेशा की दोज़ख से तो बच जाऐंगे। वह बहुत दर्द से मुझे समझाते रहे, उनकी दर्दमन्दी ने मुझे मजबूर किया और मैं ने कलिमा पढ लिया, वसीम साहब ने कहा ‘दुनिया के लिए नहीं तो आखिरत के लिए आप अपना इस्लामी नाम रख लो’ मैंने कहा आप ही रख दो, वसीम ने जोगेन्द्र आशीष पाटिल के लिहाज से जावेद अहमद पाटिल रख दिया, फुरसत और लंच में वह मुझे नमाज वगैरा सिखाने लगे, अल्हम्दु लिल्लाह रफ्ता-रफ्ता इस्लाम मेरी पहली पसंद बन गया और अल्लाह का शुक्र है में बहुत जल्द पंज-वक्ता नमाजी बन गया।


अहमदः घर में आपने इत्तिला कर दी?
जावेदः नहीं-नहीं बिल्कुल नहीं! छुप-छुप कर नमाज पढता, कपडे बदलने के लिए बेडरूम का दरवाजा बंद करता और चुपके से नमाज पढ लेता, घर से बाहर दोस्तों के साथ जाने का बहाना बना कर दूर मस्जिद चला जाता, और रमजान आया तो मुझे रोज़ा रखना था, पैशाब के बहाने उठता, किचन जाता और कुछ दूध वगैरा सहरी में पी लेता, आफिस से लेट लौटता रास्ते में इफ्तार कर लेता, वसीम मुझे अंजली पर काम करने को कहते मगर मैं हिम्मत नहीं कर पाता कि उसने अपने घर बता दिया तो लोग मुझे जिन्दा न छोडेंगे। ‘‘आपकी अमानत- आपकी सेवा में’’ हज़रत की किताब घर ले कर गया और बेड पर डाल दी, मैं नहा कर आया तो देखा अंजली पढ रही है, मुझे देख कर बोली यह तो किसी मुसलमान मोलवी की लिखी हुयी किताब है, इसे आप क्यूं पढ रहे हैं? मैं ने टलाया कि एक दोस्त ने ज़बरदस्ती देदी थी, तुम ने देखी कैसी जादू-भरी किताब है? अंजली ने कहा नहीं-नहीं, मुझे भी यह किताब हमारे आफिस में एक लडकी ने दी है, वह पहले क्रिस्चिन(इसाई) थी, अब मुसलमान हो गयी है, मैं ने तो वापस कर दी, मौलाना अहमद साहब किस कद्र मुजाहिदे के साथ मैं ने रोजे रखे, बयान करना मुश्किल है, अब ईद आयी किसी तरह ईद की नमाज तो फरीज़र टाउन जाकर अदा कर आया, मगर घर आकर कमरा बंद करके बहुत रोया, मेरे अल्लाह मेरी ईद कब आयेगी, सब मुसलमान तो ईद मना रहे हैं और मैं तो कह भी नहीं सकता कि आज ईद है, दोपहर के बाद मैंने कमरा खोला और अंजली को तलाश किया तो वह दूसरे कमरे में दरवाजा बंद किए हुए थी। मैंने नोक किया, कुछ देर के बाद उसने दरवाजा खोला, देखा तो आंखें सूज रही हैं, मैंने कहा तुम क्यूं रो रही थी? बोली कोई बात नहीं, आज न जाने दिल पर कुछ बोझ सा है बस अन्दर से रोना आ रहा है, दिल को हल्का करने के लिए दिल में आया कि कमरा बन्द करके रो लूं, आप परेशान न हों कोई बात नहीं है, मैं ने कहा चलो डाक्टर को दिखा दूं, वह बोली मैं अन्दर कमरे में अपने डाक्टर को दिखाने गयी थी, मैं ने कहा तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? अन्दर कमरे में डाक्टर कहां से आया? उसने कहा हां-हां, मेरा डाक्टर इस कमरे में था, मेरा दिल मेरा डाक्टर है, मैं अपने डाक्टर के सामने अपनी बीमारी रोने गयी थी, मैं परेशान हो गया, बहुत सोचता रहा और फिर हम दोनों ने बोझ हल्का करने के लिए पार्क में जाने का प्रोग्राम बनाया।
एक साल और इसी तरह गुजर गया, रमजान आया, मैं इतवार को किसी बहाने घर से बाहर चला जाता, अंजली मुझ से मालूम करती कि दोपहर को खाना घर पर ही खायेंगे न? मैं कहता कि तुम मेरे लिए मत बनाना, मैं तो दोस्त के साथ खाउंगा, रोजा इफतार करके घर आता, मालूम करता दोपहर किया खाना बनाया था, तो वह कहती बस अकेले के लिए मैं किया बनाती, बस चाए वगैरा पी ली थी, मैं सोचता यह बेचारी मेरी वजह से खाने से रह गयी, ईद आयी तो हम दोनों का एक ही हाल कि मैं अलग कमरे में कमरा बंद करके अपने रब से अपनी ईद न होने की फरियाद करता, वह भी पहले साल की तरह दूसरे कमरे में से रोती हुयी आंखों से निकली, अब मुझे उसकी तरफ से फिक्र होने लगी, इसको कोई दिमागी बीमारी तो नहीं हो गयी है, वह कभी भी कमरा बंद कर लेती, ईद के दो महीने बाद एक रोज वह इतवार को दोपहर के तीन बजे कमरे में गयी और अन्दर से कमरा बन्द कर लिया, अब मुझे बेचैनी हो गयी। इत्तिफाक से खिडकी हल्की-सी खुली रह गयी थी, मैं ने दरीचे से देखा तो वह कमरे में नमाज पढ रही थी, नमाज के बाद वह बडी मिन्न्त के साथ देर तक दुआ मांगती रही, उसके बाद उसने कुरआन मजीद अपने पर्स से निकाल कर उसको चूमा, आंखों से लगाया और तिलावत की, मेरी खुशी बस देखने लायक थी, हिम्मत करके मैं ने अपने हाल को छुपाया। तकरीबन एक घंटे के बाद वह कमरे से निकली तो मैंने अपने हाल पर काबू पाकर उससे पूछा कि अंजली तुम अपना हाल मुझसे छुपा रही हो, सच बताओ किया परेशानी है? मुझे तो ऐसा लगता है कि तुम ने किसी से दिल लगा लिया है, उसने कहा कि दिल तो आपको दे दिया था, अब मेरे पास है कहां कि दिल लगाउं? और वह बेहाल होकर फिर फूट-फूट कर रोने लगी, मैं ने बहुत ज़ोर दिया कि तुम मुझसे छुपाओगी तो किस से दिल का हाल बताओगी? मैं ने कहा कि अगर आज तुम ने मुझे अपनी परेशानी न बतायी तो जाकर कहीं खुदकशी कर लूंगा, अंजली ने कहा मुझे जो परेशानी है अगर मैंने तुम्हें बता दी तो तुम मुझे अपने घर से निकाल दोगे, मैंने कहा ‘यह घर तुम्हारा है मैं कहां तुम को अपने घर से निकालूंगा?’ वह बोली मुझे एक ऐसी बीमारी लग गयी है, जो लाइलाज है और अगर वह बीमारी मैं आपको बता दूंगी तो आप एक मिनट में मुझे छोड दोगे, मुझे ऐसी बीमारी लगी है जिसे आज के जमाने में बहुत गंदा समझा जाता है, मैंने कहा कि मुझे बताओ तो, मैंने तुम्हारे साथ जीने मरने के लिए तुम से शादी की है, उसने कहा कितने लोग हैं जो जीने मरने को कहते हैं, अगर मैं ने वह बीमारी जो मुझे लग गयी है आपको बता दी तो आप इस बीमारी को इस कद्र गुनाह समझते हैं कि मुझे छोड देगे, मैं ने कहा अंजली कैसी बात करती हो? मैं तुम्हें छोड दूंगा? क्या इतने दिन में कभी तुम्हें मुझसे बेवफाई का शक भी हुआ है, तुम्हें अन्दाजा नहीं कि मैं तुम्हें किस कद्र चाहता हूं, अंजली ने कहा अभी तक वाकई तुम मुझे चाहते हो मगर इस बीमारी का पता लगते ही आपका सारा प्यार खत्म हो जाएगा, मैं ने कहा नहीं, अंजली ऐसा न कहो, तुम मुझे अपनी परेशानी बताओ, मैं जिस तरह चाहो तुम्हें यकीन दिलाता हूं कि हर बीमारी और हर शर्त पर जीने मरने का साथी हूं, अंजली ने कहा यह बिल्कुल सच है तो लिख दो, मैं ने कहा खून से लिख दूं, उस ने कहा नहीं पेन से लिख दो, वह मुझ से लिपट गयी और बोली, मेरे लाडले, मेरे प्यारे, मैं ने सारी दुनिया को हुस्न व जमाल और प्यार देने वाले अकेले मालिक से दोस्ती कर ली है, और दिल को भाडखाना बनाने के बजाय उसी एक अकेले से लगा लिया है, और मैं ने बाप-दादा से चला आया धर्म बल्कि अधर्म छोड कर गन्दगी और आतंकवाद से बदनाम मज़हब इस्लाम कबूल कर लिया है, और अब मैं अंजली नहीं बल्कि खदीजा बन गयी हूं, आपने लिख तो दिया है, मगर आपको इखतियार है, इस्लाम के साथ कबूल करते हैं तो अच्छा है, वर्ना आप जैसे एक हजार रिश्तेदार मुझे छोड दें, तो मुझे इस्लाम ईमान के लिए खुशी से मन्जूर है, और अब यह भी सुन लिजिए कि फैसला आज ही कर लिजिए, अब मैं मुसलमान हूं, किसी काफिर और गैर-मुस्लिम शौहर के साथ मेरा रहना हराम है, अब अगर आपको मेरे साथ जीना मरना है, तो सिर्फ एक तरीका है कि आप मुसलमान हो जाऐं, वर्ना आज के बाद, आप छोडें या न छोडें मैं आपको छोड दूंगी।
मैं उससे बे इखतियार चिमट गया, मेरी खदीजा अगर तुम खदीजा बन गयी हो तो तुम्हारा आशीष तो कब से जावेद अहमद बन चुका है, वह खुशी से चीख पडी, कब से? तो मैं ने कहा 3 जनवरी 2009 से, वह बोली कैसे? मैंने पूरी तफसील बतायी, तो उसने बताया कि 1 जनवरी 2009 को खदीजा मुसलमान हुयी थी, उसके दफ्तर की एक इसाई लडकी जो मुसलमान हो कर आयशा बन गयी थी, उसने उसे कलिमा पढवाया था, असल में वसीम की बहन फरहीन ने अपनी एक दोस्त प्रियंका को जो गुलबर्गा की रहने वाली थी (डाक्टर रीहाना उनका नया नाम था) दावत देकर उनको कलिमा पढवाया था, रीहाना बडी दर्दमंद दाईया(इस्‍लाम की तरफ बुलाने वाली) हैं, डाक्टर रीहाना की दावत पर बाईस लोग गुलबर्गा और बंगलोर में मुसलमान हुए हैं, जिन में आयशा भी थी।


अहमदः माशा अल्लाह वाकई बडा अफसानवी वाकिआ है। आप लोगों को कितना मज़ा आया होगा?
जावेदः खदीजा भी दो साल तक रमजान के रोजे रखती रही और छुप-छुप कर नमाज पढती रही, ईद के दिन दोनों छुप-छुप कर रोते रहे, वह दिन में रोजे में मुझे खाने को नहीं पूछती थी कि मुझे साथ खाना न पडे, मैं भी उसी तरह टलाता रहा, मैं डरता था कि उसको पता चल गया तो अपने घर वालों से कह देगी तो मेरा जीना मुश्किल हो जाएगा, और वह इस लिए नहीं बताती थी कि मैं उसे छोड दूंगा, दो साल तक हम दोनों मुसलमान रहे, एक घर में रहते रहे, एक दूसरे से छुपाते रहे, उसके बाद जब ईद आयी तो बस ईद थी, दो साल ईद पर रोने को याद करके हम नादानों तरह हंसते रहे, अल्हम्दु लिल्लाह सुम्मा अल्हम्दु लिल्लाह मेरे अल्लाह भी हम पर हंसते होंगे, हम पर कैसा प्यार और रहम आता होगा हमारे अल्लाह को।


अहमदः अब आप के घर वालों को इल्म हो गया कि नहीं?
जावेदः मेरे घर वालों को मालूम हो गया है, मेरा छोटा भाई और मेरी वालिदा अल्हम्दु लिल्लाह मुसलमान हो गयी हैं, वालिद साहब पढ रहे हैं, इन्शा अल्लाह वह इस्लाम में आ जायेंगे, अभी खदीजा ने अपनी छोटी बहन को बताया है, वह हमारे घर आकर इस्लाम पढ रही है। उनके घर वालों के लिए दुआ किजिए।


अहमदः माशा अल्लाह खूब है आपकी कहानी, बडे मजे की है, अब आपकी गाडी का समय हो गया है। मासिक ‘अरमुगान’ पढने वालों के लिए कोई पैग़ाम दिजिए?
जावेदः बस हमारे खानदान वालों के लिए दुआ की दरखास्त है और आप दुआ करें कि हम ने अपने हजरत से जिन्दगी को दावत के लिए वक्फ़ करने का जो अहद किया है, अल्लाह ताला हमसे कुछ काम ले ले।


अहमदः शुक्रिया। अस्सलामु अलैकुम
जावेदः वालैकुमुस्सलाम व रहमतुल्लाहि वबरकातुहू


साभार- उर्दू मासिक 'अरमुगान' , फरवरी 2011
www.armughan.in

Tuesday, October 15, 2013

वेद में इन्सानों की बलि



हम सबूतों के साथ पोस्ट कर रहे हैं खंडन करने वाले भी सबूतों के साथ करें..हवाई फायर या गाली गलोज न करें...

वेद में इन्सानों की बलि
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वेदों के एक भाष्यकार आचार्य महीधर ने तो यहाँ तक लिख दिया

ब्रह्मणाराजन्ययोरतिष्ठाकामयोः पुरुष्मेधसंज्ञको यज्ञो भवति !

अर्थात जो ब्राह्मण या क्षत्रिय देवताओं से भी ऊंचे स्तर पर पहुँचना चाहते हों, उन्हें पुरुषमेध (इन्सानों की कुर्बानी) का यज्ञ करना चाहिए। [यजुर्वेद अध्याय 30, मंत्र 2 पर महीधर भाष्य]

यजुर्वेद में तीसवाँ अध्याय तो पूरी तरह ‘पुरुषमेध’ पर ही है। ऋग्वेद से पता चलता है कि यह यज्ञ संतान प्राप्त करने के लिए भी किया जाता था। ऋग्वेद में शुनःशेप नामक एक व्यक्ति को संतानोत्पत्ति हेतु बलि चढ़ाने का वर्णन है। उसकी बलि देने के लिए उसे यज्ञमंडप के स्तम्भ से बांध दिया गया था। यह अलग बात है कि उसने वरुण देवता की स्तुति की, उसे प्रसन्न किया और वरुण के दर्यादिल होकर उसे मौत के मुंह से बचा दिया। ऋग्वेद में है

शुनःशेपो हयह्वद गर्भीतस्त्रिष्वादित्यं दरुपदेषु बद्धः |
अवैनं राजा वरुणः सस्र्ज्याद विद्वानदब्धो वि मुमोक्तु पाशान ||

अर्थात शुनःशेप ने घृत तीन काठों में आबद्ध हो कर अदिति के पुत्र वरुण का आह्वान किया। विद्वान और दयालू वरुण ने शुनःशेप को मौत के मुंह से बचाया। [ऋग्वेद 1/24/13]

ऋग्वेद के व्याख्यान रूप ‘एतेरेय ब्राह्मण’ (काण्ड 7, अध्याय 3) में इस प्रसंग को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि राजा हरिश्चंद्र की कोई संतान न थी। अतः उसने वरुण की मनौती की। वरुण ने प्रसन्न होकर कहा, ‘तुम्हारी संतान तो होगी लेकिन तुम्हें बलि देनी होगी।” राजा ने रोशीत नाम का बेटा जन्मा। वरुण को दिए गए वचन की पूर्ति के लिए उस ने अजीगर्त ऋषि के पुत्र शुनःशेप को खरीद कर बलि चढ़ाना तय किया। उस यज्ञ में काटने के लिए नियुक्त व्यक्ति को 100 गौएँ दी गईं। जब बलि चढ़ाने में कुछ ही क्षण शेष थे, तब शुनःशेप ने वरुण की स्तुति की और उसे प्रसन्न कर अपनी जान बचाई।

शांखायान ब्रहमान और ब्रहमपुराण में भी यही विवरण मिलता है। परन्तू ब्रह्म पुराण में इतना अंतर है कि शुनःशेप को विश्वामित्र ने अपना ज्येष्ठ पुत्र बनाकर बचाया था, न कि वरुण ने उसकी रक्षा की थी।

यहाँ यह बताना उचित है कि इसी विश्वामित्र पर जब नरमेध का भूत सवार हुआ तो उसने अपने प्रत्येक बेटे को बलि पशु बनने के लिए कहा था। विश्वामित्र के 100 बेटे थे। जब भी इस धार्मिक कृत्य में अपनी हत्या करवाने के लिए तैयार न हुआ तो उसने उन्हें शाप से डाला कि जाओ, तुम नीच बन जाओ और एक हज़ार साल तक कुत्ते के मांस पर गुज़ारा करो। [वाल्मीकि रामायण बालकांड सर्ग 62]

श्व मांस भोजिनः सर्वे वासिष्ठा इव जातिषु |
पूर्णम् वर्ष सहस्रम् तु पृथिव्याम् अनुवत्स्यथ

तो साबित हुआ कि वादिक हिन्दू धर्म में इन्सानों की बलि दी जाती थी।

Monday, October 14, 2013

महिलाओ के अधिकार और "मनुस्मुर्ति"



महिलाओ के अधिकार और "मनुस्मुर्ति"

१ - पुत्री,पत्नी,माता या कन्या,युवा,व्रुद्धा किसी भी स्वरुप में नारी स्वतंत्र नही होनी चाहिए.
[मनुस्मुर्तिःअध्याय-९ श्लोक-२ से ६ तक.]

२ - पति पत्नी को छोड सकता हैं, सुद(गिरवी) पर रख सकता हैं, बेच सकता हैं, लेकिन स्त्री को इस प्रकार के अधिकार नही हैं. किसी भी स्थिती में, विवाह के
बाद, पत्नी सदैव पत्नी ही रहती हैं.
[मनुस्मुर्तिःअध्याय-९ श्लोक-४५]

३ - संपति और मिलकियत के अधिकार और दावो के लिए, शूद्र की स्त्रिया भी "दास" हैं,
स्त्री को संपति रखने का अधिकार नही हैं, स्त्री की संपति का मलिक उसका पति,पूत्र, या पिता हैं.
[मनुस्मुर्तिःअध्याय-९ श्लोक-४१६.]

४ - ढोर, गंवार, शूद्र और नारी, ये सब ताडन के अधिकारी हैं, यानी नारी को ढोर की तरह मार सकते हैं.

तुलसी दास पर भी इसका प्रभाव दिखने को मिलता हैं, वह लिखते हैं-
"ढोर,चमार और नारी, ताडन के अधिकारी."
[मनुस्मुर्तिःअध्याय-८ श्लोक-२९९]

५ - असत्य जिस तरह अपवित्र हैं, उसी भांति स्त्रियां भी अपवित्र हैं, यानी पढने का, पढाने का, वेद-मंत्र बोलने का या उपनयन का स्त्रियो को अधिकार नही हैं.
[मनुस्मुर्तिःअध्याय-२ श्लोक-६६ और अध्याय-९ श्लोक-१८.]

६ - स्त्रियां नर्कगामीनी होने के कारण वह यग्यकार्य या दैनिक अग्निहोत्र भी नही कर सकती.
(इसी लिए कहा जाता है-"नारी नर्क का द्वार")
[मनुस्मुर्तिःअध्याय-११ श्लोक-३६ और ३७.]

७ - यग्यकार्य करने वाली या वेद मंत्र बोलने वाली स्त्रियो से किसी ब्राह्मण भी ने भोजन नही लेना चाहिए, स्त्रियो ने किए हुए सभी यग्य कार्य अशुभ होने से
देवो को स्वीकार्य नही हैं.
[मनुस्मुर्तिःअध्याय-४ श्लोक-२०५और २०६.]

८ - मनुस्मुर्ति के मुताबिक तो , स्त्री पुरुष को मोहित करने वाली.
[अध्याय-२ श्लोक-२१४.]

९ - स्त्री पुरुष को दास बनाकर पदभ्रष्ट करने वाली हैं.
[अध्याय-२ श्लोक-२१४]

१० - स्त्री एकांत का दुरुप्योग करने वाली.
[अध्याय-२ श्लोक-२१५.]

११. - स्त्री संभोग के लिए उमर या कुरुपताको नही देखती.
[अध्याय-९ श्लोक-११४.]

१२ - स्त्री चंचल और हदयहीन,पति की ओर निष्ठारहित होती हैं.
[अध्याय-२ श्लोक-११५.]

१३.- केवल शैया, आभुषण और वस्त्रो को ही प्रेम करने वाली, वासनायुक्त, बेईमान, इर्षाखोर,दुराचारी हैं .
[अध्याय-९ श्लोक-१७.]

१४.- सुखी संसार के लिए स्त्रीओ को कैसे रहना चाहिए? इस प्रश्न के उतर में मनु कहते हैं.

(१). स्त्रीओ को जीवन भर पति की आग्या का पालन करना चाहिए.
[मनुस्मुर्तिःअध्याय-५ श्लोक-११५.]

(२). पति सदाचारहीन हो,अन्य स्त्रीओ में आसक्त हो, दुर्गुणो से भरा हुआ हो, नंपुसंक हो, जैसा भी हो फ़िर भी स्त्री को पतिव्रता बनकर उसे देव की तरह पूजना चाहिए.
[मनुस्मुर्तिःअध्याय-५ श्लोक-१५४.]

जो इस प्रकार के उपर के ये प्रावधान वाले पाशविक रीति-नीति के विधान वाले पोस्टर क्यो नही छपवाये? 

(१) वर्णानुसार करने के कार्यः - - 

महातेजस्वी ब्रह्मा ने स्रुष्टी की रचना के लिए ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र को भिन्न-भिन्न कर्म करने को तै किया हैं. 

(अ).पढ्ना,पढाना,यग्य करना-कराना,दान लेना यह सब ब्राह्मण को कर्म करना हैं.
[अध्यायः१:श्लोक:८७]

(आ).प्रजा रक्षण , दान देना, यग्य करना, पढ्ना...यह सब क्षत्रिय को करने के कर्म हैं.
[अध्यायः१:श्लोक:८९]

(इ).पशु-पालन , दान देना,यग्य करना, पढ्ना,सुद(ब्याज) लेना यह वैश्य को करने का कर्म हैं.
[अध्यायः१:श्लोक:९०.]

(ई).द्वेष-भावना रहित, आंनदित होकर उपर्युक्त तीनो-वर्गो की नि:स्वार्थ सेवा करना, यह शूद्र का कर्म हैं.
[अध्यायः१:श्लोक:९१]

Sunday, October 13, 2013

डेनमार्क की फासीवादी फ्रीडम पार्टी के नेता geert wilders EMBRACED ISLAM



आपको याद होगा कुछ साल पहले डेनमार्क में एक इस्लाम विरोधी फिल्म बनाई गयी थी जिस पर बहुत बवाल हुआ था| इस को बनाने के पीछे डेनमार्क की फासीवादी फ्रीडम पार्टी के नेता geert wilders का हाथ था..

लेकिन हमेशा की तरह एक बार फिर इस्लाम ने अपने दुश्मनों का दिल जीत लिया..इसी पार्टी में मंत्री रहे Arnoud Van Doorn ने इस साल फ़रवरी में इस्लाम अपना लिया| ऐसे उन्होंने इस्लाम के गहन अध्ययन के बाद किया|

यही नहीं उस फ़िल्म के लिए उन्होंने माफ़ी भी मांगी. 

इस्लाम के फैलाव को रोकने के लिए जी-जान से जुटे Van Doorn अब खुद इस्लाम को फ़ैलाने में मदद कर रहे हैं और इस्लाम की दावत के काम से जुड़े हैं..

सुना है आप अभी हज पर भी हैं| हम अल्लाह से दुआ करते हैं की अल्लाह तमाम इंसानों को हिदायत दे..

Arnoud Van Doorn ट्विटर पर भी काफी सक्रिय हैं आप चाहे तो इन्हें @ArnoudvDoorn पर follow कर सकते हैं.

इस मेसेज को खूब शेयर करें..

ज्यादा जानकारी के लिए पढ़ें: http://www.miadhu.com/2013/04/local-news/former-dutch-islamophobe-arnoud-van-doorn-converts-to-islam/

What is Hinduism?



What, in the first place, has Hinduism to say about God and His attributes, and what kind of worship does it teach mankind?
At the very threshold, we are met with the formidable difficulty that Hinduism is not one religion but many religions jumbled together under a single name. It is a hodge-podge or conglomeration of many mutually conflicting religions, and is not the child, so to say, of any one father. Those who practice it differ very much from one another in their faith and practice. Hinduism includes in it Vedism, Brahmanism, Sivaism, Vishnuism, Polytheism, Pantheism, Idolatory in is greatest forms, Tree-Worship, Serpent-Worship, Demon-Worship and so on.
It is not easy therefore to give a definition of Hinduism,  "Hinduism and its gods," says Sir Alfred Lyall, "are a troubled sea, without shore or visible horizon, driven to and fro by the winds of boundless credulity and grotesque invention. A tangled jungle of disorderly superstitions, ghosts and demons, demi-gods and deified saints, household gods, tribe gods, local gods, universal gods, with their countless shrines and temples, and din of their disordent rites, deities who abhor a fly's death, those who delight still in human victims, and those who would not either sacrifice or make offerings, such religious chaos". [1]

The Authoritative Books not one but many

A further difficulty regarding Hinduism lies in the fact that all its professors have no common sacred Book or Books to depend upon for their doctrines. Some refer to Vedas as the basis of their faith. Others rest their faith on the Shrutis, a term which includes not only the four Vedas but their Brahmanas and Upanishads as well. The Mahabharata styles itself as the fifth Veda, containing the quintessense of all the rest. Other Hindus agains follow the teachings of the Puranas. The present day educated Hindus are mainly depending upon the Bhagavad Gita, a philosophical treatise, for their guidance in matters of faith. We shall therefore briefly inquire into the contents of all these books to see what they teach about God and the way in which man should worship Him.

The Religion of the Vedas

(a) Nature Worship

Vedism, or the Religion of the Vedas, teaches the worship of the deified forces or phenomenon of Nature, such as Fire, the Sun, Wnd and Rain. Here is the opening verse of the Rigveda, the oldest Veda, of which the others are mere repetitions and borrowing:
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवं रत्वीजम |  होतारं रत्नधातमम || 
 
"I Laud Agni, the great high priest, god, minister of sacrifice, the herald, lavishest of wealth." [Rigveda Mandal 1: Sookt 1: Mantra 1]
 
The whole of the Veda goes on in this strain throughout in the hymns collected for different purposes. The contrast between the opening  verse of the Rigveda which teaches Polytheism, and that of the Jewish Bible and of the Holy Qur'an which teach Monotheism, cannot fail to be noted even by the most superficial reader. Thus the Jewish Pentateuch begins,
בראשית ברא אלהים את השמים ואת הארץ׃
 
"In the beginning God created the heaven and the earth." [Genesis 1:1]
 
The Holy Qur'an strikes the key note of its whole teaching in a still more profound manner, unparalleled in other religions:
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَـنِ الرَّحِيمِ - الْحَمْدُ للَّهِ رَبِّ الْعَـلَمِينَ - الرَّحْمَـنِ الرَّحِيمِ - مَـلِكِ يَوْمِ الدِّينِ
 
"In the name of Allah, the Most Compassionate, the Most Merciful. All Praise is due to Allah, Lord of the Worlds, the Most Compassionate, the Most Merciful. Master of the Day of Judgement."[Surah Al-Fatiha 1:1-4]
Thus Vedism teaches the worship of the powers of Nature.

(b) Polytheism

That it teaches polytheism is also evident from the expression used in the same verse and in all the succeeding verses as well:
अग्निः पूर्वेभिर्र्षिभिरीड्यो नूतनैरुत | स देवानेह वक्षति ||
 
"He (Agni) shall bring hitherward the gods." [Rigveda 1:1:2]
 
अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि | स इद्देवेषु गछति ||
 
"Verily goes to the gods."[verse 4]
 
अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः | देवो देवेभिरा गमत ||
 
"May Agni, priest, the god, come hither with the gods." [verse 5]
 
The number of gods in Hindu Pantheon is given as 33 in one place (Rigveda 1:34:11), which says,
आ नासत्या तरिभिर एकादशैर इह देवेभिर यातम मधुपेयम अश्विना | परायुस तारिष्टं नी रपांसि मर्क्षतं सेधतं दवेषो भवतं सचाभुवा ||
 
"Come, O Nasatyas, with the thrice-eleven Gods; come, O ye Asvins, to the drinking of the meath. Make long our days of life, and wipe out all our sins: ward off our enemies; be with us evermore."
 
Similarly it is mentioned in Rigveda 8:30:2,
इति सतुतासो असथा रिशादसो ये सथ तरयश्च तरिंशच्च | मनोर्देवा यज्ञियासः ||
 
"Thus be ye lauded, ye destroyers of the foe, ye Three-and-Thirty Deities, The Gods of man, the Holy Ones."
 
In Rigeveda 10:52:6 the number is 3,339. It says,
तरीणि शता तरी सहस्राण्यग्निं तरिंशच्च देवा नवचासपर्यन | औक्षन घर्तैरस्त्र्णन बर्हिरस्मा आदिद्धोतारं नयसादयन्त ||
 
"The Deities three thousand, three hundred and thirty-nine, have served and honoured Agni, Strewn sacred grass, anointed him with butter, and seated him as Priest, the Gods' Invoker."
 
Later Hinduism has gone still further by saying that there are no less than 33 crores of them.

(c) Pantheism

Why not then say that everything is God, and God is everything? The Purusha Sukta (Rigveda 10:90) which every orthodox Brahmin is expected even now to recite daily in his prayers shows that Pantheism is also taught in the later portions of the Vedas:
पुरुष एवेदं सर्वं यद भूतं यच्च भव्यम | उताम्र्तत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||
 
"This Purusha(i.e. Brahma or God) is all that yet has been and all that is to be." [verse 2]
 
The caste system which has proved the curse of India is likewise taught in the same hymn:
बराह्मणो.अस्य मुखमासीद बाहू राजन्यः कर्तः | ऊरूतदस्य यद वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ||
 
"The Brahmana was his (Purusha's) mouth. Of both his arms was the Kshatriya made. His thighs became the Vaishya. From his feet the Sudra produced."[verse 12]
 

Religion of the Upanishads

The Upanishads reject the Karma, Kanda or Salvation by means of sacrifices and other rituals taught in the four Vedas and Brahmanas, and advocate the Gnana-Kanda or the theory of Salvation by knowledge. Hence they consist of speculations about the individual souls (atma) and the Supreme soul (Param-atma), and about the relationship subsisting between them, their aim being to get rid of man's earthly existence by absorption of the individual soul into the World Soul through correct or true knowledge. They teach that the Universe or Nature (Prakriti) is unreal or Maaya, that is to say, it does not really exist but it only an illusion of the mind. What really exists in the Supreme Soul or Brahman, and the individual souls are all emanations from Him and identical with Him. Only they do not know it, as Brahman has invested Himself/Itself with the Maaya, and they also are under the influence of the same mystic power. The individual souls can be disillusioned only by means of Correct knowledge, and as soon as this consummation is reached, they know themselves to be Brahman, and get absorbed into Him. The famous formula referring to this theory is 'Tat tvam asi'तत् त्वम् असि meaning 'That art thou', whoever knows this 'becomes the All'. Even the gods are not able to prevent him from becoming it. For he becomes their self. [Brihadaranyak Upanishad 1:4:6]
This theory is known as the Vedanta, the essence of the teaching of the Vedas, and has taken an immense hold on the minds of the people and lent a deeper colour to all subsequent literature. A Christian missionary asked a Brahmin, "Who and where is Brahman?" "He is talking to you," was the prompt reply.
A Vedantist once began to dilate upon the truth of his belief in the presence of a king and vehemently maintained that the whole world was Mithya or unreal, imaginary: whereupon an elephant was ordered to be brought quite near to him and the man fled in terror. "Why do you run away for your life? The elephant is Mithya" said the king. But the Vedantist proved himself equal to the occasion and without a moment's hesistation replied that the running away too was Mithya.
Such is the fool's paradise in which most of the misguided Hindus live. The expression that is often heard on their lips, and which has unfortunately recently been made famous by Dr. Zakir Naik through his televised public talks:
EKAM EVA ADVITIYAM
meaning 'One only without a second'
It does not mean that they believe in the 'Only One True God' but it is the Vedantic or Pantheistic formula which asserts that the only real existence of the World Soul and the identity of the individual souls within it, totally denying the existence of the phenomenal world.

Religion of the Puranas

The characteristic of popular Hinduism of today is the belief in Divine incarnations, idolatory and caste. Popular Hinduism believes in the doctrine of Trimurti or Hindu Trinity as Brahma, Vishnu and Shiva, in their characteristic of the Creator, Preserver and Destroyer of the Universe.
Vishnu-Worship
The distinct feature of Vishnu worship is the incarnation of God. When wickedness in the world increases Vishnu is said to take upon himself the form of an animal or man in order to be able to protect the good and to punish the bad. The principle incarnations He is said to have so far assumed are those of (1) a fish, (2) a tortoise, (3) a Boar, (4) a man-lion (5) a Dwarf, (6) a Brahmin hero called Parasu Ram, (7) a Kshatriya Prince, the hero of Ramayana, (8) a shepherd Prince Krishna and (9) a Kshatriya heretic, Buddha.
Krishna declares:
 
"On an occasion of marriage, or of enjoying a woman, or when life is in danger, or when one's entire property is about to be taken away, or for the sake of a Brahmin, falsehood may be uttered. These five kinds of falsehood have been declared to be sinless. On these occasions falsehood would become truth and truth would become falsehood." [Mahabharata Book 8; Karna Parva; Section 69]
 
Cow Worship
It is natural for Indians to set a high value upon the cow on account of its utility, but the worship the Hindus pay to it is irrational and absurd to a degree. It is considered to be the most sacred of all animals. Every part of its body is considered to be inhabited by some deity or other. Even its excreta are considered to be most sacred. Its urine is looked upon as the best of all holy waters; a sin destroying liquid which sanctifies everything it touches, while nothing purifies like cow-dung. The ashes of its dung sprinkled over a sinner are able to convert him into a saint.
Veneration of cow in Hindu culture
Present day Hindu culture is pivoted solely on the cow. Its material and spiritual concepts are both engulfed in cow worship. Such an animal worship is known as zoolatry. This is a vestide of animistic cultures among whom the worship of monkeys, sheep, elephants, cows and even snakes was prevalent. Animal worship culminated in the taking of human beings for gods so that the silhouettes were stamped on the coins and painted on the flags, and upon their honour depended the glory and honour of their realms.
Among cultivators cow worship is not a strange thing. In many countries, notably, India, Iran and Egypt, it was prevalent. Among Hindus veneration of the cow is referred to in the Vedas as Puranas and in Hindu Jurisprudence and folklore. In the Vedas several verses refer to saluting and prostrating before the cow as the following sections illustrate:
 
"Prajapati and Parameshthin are the two horns, Indra is the head, Agni the forehead, Yama the joint of the neck. King Soma is the brain, Sky is the upper jaw, Earth is the lower jaw... All worlds and all the gods are as the cow from head to foot." [Atharvaved Kaand 9: Sookt 7]
"You are being created and have been created for salutations and prostrations. Salutations and prostration to you, O image of God, to your hair, to your hooves." [Atharva 10:10]
 
Curiously enough, the Vedic Rishis likened the chanting of their mantras (hymn) to the lowing of the cows:
अभि विप्रा अनूषत गावो वत्सं न मातरः | इन्द्रं सोमस्य पीतये ||
 
"As the cows moo in the presence of their calves so do Brahmins recite their mantras while drinking the soma juice in the presence of Indra devta." [Rigveda 9:12:2]
 
In old Vedic timesthe pious people picked out the grain from the cow-dung, and then ate it. They also squeezed out its water and drank it (Mahabharata). Its urine was considered a source of redemption of sins and a means of cow-dung bathed with water extracted thus. Krishna Ji revered the bull by stroking its back before mounting it. In short, in Hindu religion the cow in venerated to an extent which gods and godesses and even God Himself does not merit.
Cow-Worship and the humiliation of man
It is to be noted that the sacredness of the cow as compared with the scant regard for human life has come to this that Swami Dayanand Saraswati in accordance with the Vedas, opines that the blood of thousands or hundreds of thousands of humans, may be shed to please these animals; (See his translation of Yajurveda 33:14 and Rigveda 1:121:10)
In Vedic times, there lived an untouchable people in a village named Kikat, in todays Bihar. The used to rear cattle. Obviously to the Aryans this was a crime. So they invoked their god Indra to wage war against them and loot their cows.
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"O Indra, what do the cows make for you among the Kikatas. They neither yield milk for your offerings, nor do they warm the vessel of libation. Bring to us these cows, bring to us also the wealth of Pramagand (their King). O Brave one, grant us the possessions of the people of low status." [Rigveda 3:53:14]
 
On the basis of this clear prnouncement, non-Aryans and untouchables have no right to keep cows. Aryans and Brahmins whenever they wish can kill them and appropriate their possessions. Hindu culture thus becomes the culture of the progress, civilization and welfare of the Aryan people alone.
Status of the cow
The fact remains that Hindu culture is based on the cow. Actually it is cow-worship as may be inferred from the discussion so far. As the Noble Qur'an states,
 
"And their hearts absorbed (the worship of) the calf because of their disbelief." [Surah Baqarah 2:93]
 
The cow is also called mother and this is a relic of the age of ignorance. In primitive times when the mother of a young child died, the child too would die of malnutrition after two or three days. The father did not know how to save the child's life as a substitute for the mother's milk was not known. By chance, some wise person thought of the idea of giving goat's milk to the child. As the goat was easier to control and milk than the cow, goat's milk was used to save the infant's life. Later on the cow was tamed for this purpose. From then on the polytheists began to call the cow 'mata' i.e. mother. But other animals as well, such as goats, sheep, camels, supply milk as substitute for mother's milk; yet they are never called 'mother'. Strangely enough, in this age of science when so many baby-foods have been invented, none of these is called 'mother', yet wealthy and educated Hindus still apply this epithet to the cow alone.
The nation which cannot differentiate between a cow's tail and a man's head, lives in an extreme abyss of culture. The cow is at the utmost an animal, while even the most degraded man, being still a human being, is yet far superior to a cow.

Religion of the Gita

Since Mahabharata fails to serve as a handy and useful book of the essence of Hinduism, the present day educated Hindus are adopting the Bhagvat Gita as their guide.
Like all the other scriptures this famous poem too fails to teach True Religion to mankind. It is a highly Philosophic poem just as ill-suited to teach Religion as Berkley's Principle of Human Knowledge or Milton's Paradise Lost can be. The principle of its composition is Eclecticism and tries to combine Sankhya, Yoga, and Vedanta teaching into one whole to support the Vaishnava theory of Krishna's deification.But is does promote ideas like Polytheism and Caste. Krishna claims to be the author of the caste system in India:
 
"The four Castes were created by me according to the appointment of qualities and works." [Gita 4:13]
 
The Gita does not insist on the worship of the One and Only True God but promotes belief in polytheism:
 
"Those who worship gods go to the gods" [9:25]
 
 
"Worship the gods thereby; The gods shall yield thee grace." [3:3]
 
That there are inconsistencies in the Bhagvad Gita is admitted today even by Hindu scholars. For example at Chapter 9, stanza 29 Krishna declares that 'none is hateful to me, none dear.' And yet the remarkable verses at the close of Chapter 12 contradict it, 'Linked by no ties to earth, steadfast in Me, That man I love'. At Gita Chapter 5, stanza 15 it is said, that 'the Lord receives the sin and merit of none.' Yet at Chapter 5, stanza 29, and again at Chapter 9, stanza 24, Krishna calls himself 'the Lord and enjoyer' of all sacrifices and penances. How, it may well be asked, can the Supreme Being 'enjoy' that which he does not even 'receive'?
The doctrine of transmigration is the basis from which the argument of Bhagvad Gita takes its start. Matter and spirit are without beginning (13:20). God (Krishna-Vishnu) is eternal, almighty, unborn, without beginning, the great Lord of the World (10:3). He is different not only from the fleeting world, but also from the changeless and indestructible energy of all beings. Vishnu is born from age to age (4:6-8). Krishna-Vishnu is wholly distinct from Brahma and Brahman is distinctly a lower deity than Krishna (11:15,37). In 12:1-7, the two classes, those who believe in a personal God Krishna-Vishnu, i.e. theists, and those who believe in Brahma ,i.e. pantheists are contrasted, and preference is given to former. In other words, final bliss is difficult of attainment for those who follow the Vedas and seek the heaven of Brahma. All external observances and duties prescribed by the Vedas are held to be mischievous and thrown overboard (7:20; 18:34,66). The Vedas and the works enjoined by them cannot win one the vision of the Divine (11:48,53). What a contempt is expressed for the Vedas in the following words: "Steady understanding does not belong to those, whose minds are drawn by that flowery talk (i.e. Vedas) which is full of ordinances of specific acts for the attainment of pleasures and power, and which promises birth as the fruit of acts- that flowery talk which those unwise ones utter, who are enamoure of Vedic words, who say there is nothing else, who are full of desires, an whose goal is heaven. The Vedas merely relate to the effects of the three qualities; do you, O Arjuna! rise above those effects of the three qualities." (2:42-45). Thus the Vedas are being spoken of in very disparaging terms and the followers of Krishna were inimical to the Vedas.
This was in brief about Hinduism and in our future articles all the topics discussed here would be dealt with in detail separately.

REFERENCES
[1] Asiatic Studies, Vol 1, pp 2, 3

इस्लाम आतंक या आदर्श?

जब मुझे सत्य का ज्ञान हुआ  
कई साल पहले दैनिक जागरण में श्री बलराज बोधक का लेख ' दंगे क्यों होते हैं?' पढ़ा, इस लेख में हिन्दू-मुस्लिम दंगा होने का कारण क़ुरआन मजीद में काफिरों से लड़ने के लिए अल्लाह के फ़रमान बताये गए थे.लेख में क़ुरआन मजीद की वह आयतें भी दी गयी थीं.
इसके बाद दिल्ली से प्रकाशित एक पैम्फलेट ( पर्चा ) ' क़ुरआन की चौबीस आयतें, जो अन्य धर्मावलम्बियों से झगड़ा करने का आदेश देती हैं.' किसी व्यक्ति ने मुझे दिया. इसे पढने के बाद मेरे मन में जिज्ञासा हुई कि में क़ुरआन पढूं. इस्लामी पुस्तकों कि दुकान में क़ुरआन का हिंदी अनुवाद मुझे मिला. क़ुरआन मजीद के इस हिंदी अनुवाद में वे सभी आयतें मिलीं, जो पैम्फलेट में लिखी थीं. इससे मेरे मन में यह गलत धारणा बनी कि इतिहास में हिन्दू राजाओं व मुस्लिम बादशाहों के बीच जंग में हुई मार-काट तथा आज के दंगों और आतंकवाद का कारण इस्लाम है. दिमाग भ्रमित हो चुका था.इस भ्रमित दिमाग से हर आतंकवादी घटना मुझे इस्लाम से जुड़ती दिखाई देने लगी.
इस्लाम, इतिहास और आज कि घटनाओं को जोड़ते हुए मैंने एक पुस्तक लिख डाली ' इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास ' जिसका अंग्रेजी अनुवाद 'The History of Islamic Terrorism' के नाम से सुदर्शन प्रकाशन,सीता कुंज,लिबर्टी गार्डेन,रोड नंबर 3, मलाड (पशचिम) मुंबई 400 064 से प्रकाशित हुआ.
मैंने हाल में इस्लाम धर्म के विद्वानों ( उलेमा ) के बयानों को पढ़ा कि इस्लाम का आतंकवाद से कोई सम्बन्ध नहीं है. इस्लाम प्रेम सदभावना व भाईचारे का धर्म है.किसी बेगुनाह को मारना इस्लाम के विरुद्ध है। आतंकवाद के खिलाफ़ फ़तवा भी जरी हुआ है।
इसके बाद मैंने क़ुरआन मजीद में जिहाद के लिए आई आयतों के बारे में जानने के लिए मुस्लिम विद्वानों से संपर्क किया,जिन्होंने मुझे बताया कि क़ुरआन मजीद कि आयतें भिन्न -भिन्न तत्कालीन परिस्तिथियों में उतरीं। इसलिए क़ुरान मजीद का केवल अनुवाद ही देखकर यह भी देखा जाना ज़रूरी है कि कौनसी आयत किस परिस्तिथियों में उतरी तभी उसका सही मक़सद पता चल पाएगा ।
साथ ही ध्यान देने योग्य है कि क़ुरआन इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्लल्लाहु  अलैहि व सल्लम ) पर उतरा गया था। अत: क़ुरआन को सही मायने में जानने के लिए पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्लल्लाहु  अलैहि व सल्लम ) कि जीवनी से परिचित होना भी ज़रूरी भी है।
विद्वानों ने मुझसे कहा -" आपने क़ुरआन माजिद की जिन आयतों का हिंदी अनुवाद अपनी किताब में लिया है, वे आयतें अत्याचारी काफ़िर मुशरिक लोगों के लिए उतारी गयीं जो अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) से लड़ाई करते और मुल्क में फ़साद करने के लिए दौड़े फिरते थे। सत्य धर्म की रह में रोड़ा डालने वाले ऐसे लोगों के विरुद्ध ही क़ुरआन में जिहाद का फ़रमान है।
उन्होंने मुझसे कहा कि इस्लाम कि सही जानकारी न होने के कारण लोग क़ुरआन मजीद कि पवित्र आयतों का मतलब समझ नहीं पाते। यदि आपने पूरी क़ुरआन मजीद के साथ हज़रात मुहम्मद ( सल्लालाहु अलैहि व सल्लम )  कि जीवनी पढ़ी होती, तो आप भ्रमित न होते ।"
मुस्लिम विद्वानों के सुझाव के अनुसार मैंने सब से पहले पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद कि जीवनी पढ़ी। जीवनी पढ़ने के बाद इसी नज़रिए से जब मन की शुद्धता के साथ क़ुरआन मजीद शुरू से अंत तक पढ़ी, तो मुझे क़ुरआन  मजीद कि आयतों का सही मतलब और मक़सद समझ आने लगा ।
सत्य सामने आने के बाद मुझे अपनी भूल का अहसास हुआ कि मैं अनजाने में भ्रमित था और इसी कारण ही मैंने अपनी किताब ' इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास ' में आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ा है जिसका मुझे हार्दिक खेद है ।
मैं अल्लाह से, पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल०) से और सभी मुस्लिम भाइयों से सार्वजानिक रूप से माफ़ी मांगता हूँ तथा अज्ञानता में लिखे व बोले शब्दों को वापस लेता हूं। सभी जनता से मेरी अपील है कि ' इस्लामिक आतंकवाद का इतिहास ' पुस्तक में जो लिखा है उसे शुन्य समझें ।
स्वामी लक्ष्मिशंकाराचार्य
ए-1601 , आवास विकास कालोनी ,
हंसपुरम,नौबस्ता, कानपुर-208 021
भाग 1
शुरुआत कुछ इस तरह हुई कि सहित दुनिया में यदि कहीं विस्फोट हो या किसी व्यक्ति अथवा व्यक्तियों कि हत्या हो और उस घटना में संयोगवश मुस्लमान शामिल हो तो उसे इस्लामिक आतंकवाद कहा गया।
थोड़े ही समय में मिडिया सहित कुछ लोगों ने अपने-अपने निजी फ़ायदे के लिए इसे सुनियोजित तरीके से इस्लामिक आतंकवाद कि परिभाषा में बदल दिया। इस सुनियोजित प्रचार का परिणाम यह हुआ कि आज कहीं भी विस्फ़ोट हो जाए उसे तुरंत इस्लामिक आतंकवाद घटना मानकर ही चला जाता है ।
इसी माहौल में पूरी दुनिया में जनता के बीच मिडिया के माध्यम से और पश्चिमी दुनिया सहित कई अलग-अलग देशों में अलग-अलग भाषाओँ में सैंकड़ों किताबें लिख-लिख कर यह प्रचारित किया गया कि दुनिया में आतंकवाद की जड़ इस्लाम है।
इस दुष्प्रचार में यह प्रामाणित किया गया कि क़ुरआन में अल्लाह कि आयतें मुसलमानों को आदेश देती हैं कि -वे, अन्य धर्म को मानने वाले काफ़िरों से लड़ें उनकी बेरहमी के हत्या करें या उन्हें  आतंकित ज़बरदस्ती मुस्लमान बनाएं , उनके पूजास्थलों नष्ट करें-यह जिहाद है और इस जिहाद करने वाले को अल्लाह जन्नत देगा। इस तरह योजनाबद्ध तरीक़े से इस्लाम को बदनाम करने के लिये उसे निर्दोषों कि हत्या कराने वाला आतंकवादी धर्म  घोषित कर दिया गया और जिहाद का मतलब आतंकवाद बताया गया ।
सच्चाई क्या है? यह जानने के लिये हम वही तरीक़ा अपनायेंगे जिस तरीक़े से हमें सच्चाई का ज्ञान हुआ था। मेरे द्वारा शुद्ध मन से किये गये इस पवित्र प्रयास में यदि अनजाने में कोई ग़लती हो गयी हो तो उसके लिए पाठक मुझे क्षमा करेंगे ।
इस्लाम के बारे में कुछ भी प्रमाणित करने के लिए यहाँ हम तीन कसौटियों को लेंगे ।
1- क़ुरआन मजीद में अल्लाह के आदेश
2- पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) की जीवनी
3- हज़रत मुहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) की कथनी यानी हदीस
इन तीन कसौटियों से अब हम देखते हैं कि:
[ क्या वास्तव में इस्लाम निर्दोषों से लड़ने और उनकी हत्या करने व हिंसा फैलाने का आदेश देता है?
[ क्या वास्तव में इस्लाम दूसरों के पूजाघरों को तोड़ने का आदेश देता है?
[ क्या वास्तव में इस्लाम लोगों को ज़बरदस्ती मुस्लमान बनाने का आदेश देता है?
[ क्या वास्तव में हमला करने, निर्दोषों की हत्या करने व आतंक फैलाने का नाम जिहाद है?
[ क्या  वास्तव में इस्लाम एक आतंकवाद धर्म है?
सर्वप्रथम यह बताना आवश्यक है कि हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) अल्लाह के महत्वपूर्ण एवं अंतिम पैग़म्बर हैं । अल्लाह ने आसमान से क़ुरआन को आप पर ही उतारा। अल्लाह के रसूल होने के बाद जीवन पर्यन्त 23 सालों तक आप ( सल्ल० ) ने जो किया, वह क़ुरआन के अनुसार ही किया ।
दूसरे शब्दों में हज़रत मुहम्मद ( सल्ल०) के जीवन के यह 23 साल क़ुरान या इस्लाम का व्यावहारिक रूप हैं। अत: क़ुरआन या इस्लाम को जानने का सबसे महत्वपूर्ण और आसान तरीका हज़रत मुहम्मद ( सल्ल०) की पवित्र जीवनी है, यह मेरा स्वयं का अनुभव है। आपकी जीवनी और क़ुरआन मजिद पढ़कर पाठक स्वयं निर्णय कर सकते हैं कि इस्लाम एक आतंक है? या आदर्श ।
उलमा-ए-सियर ( यानि पवित्र जीवनी लिखने वाले विद्वान  ) लिखते हैं कि- पैग़म्बर मुहम्मद सल्लालाहु अलैहि व सल्लम का जन्म मक्का के क़ुरैश क़बीले के सरदार अब्दुल मुत्तलिब के बेटे अब्दुल्लाह के घर सन् 570 ई० में हुआ । मुहम्मद ( सल्ल०) के जन्म से पहले ही उनके पिता अब्दुल्लाह का निधन हो गया था । आप ( सल्ल०) जब 6 साल के हुए, तो उनकी मां आमिना भी चल बसीं । 8 साल की उम्र में दादा अब्दुल मुत्तलिब का भी देहांत हो गया तो चाचा अबू-तालिब के सरंक्षण में आप ( सल्ल०) पले-बढ़े।
24 वर्ष की आयु में में आप ( सल्ल०) का विवाह ख़दीजा से हुआ। ख़दीजा मक्का के एक बहुत ही स्मृध्शाली व सम्मानित परिवार की विधवा महिला थीं ।
उस समय मक्का के लोग काबा की 360 मूर्तियों की उपासना करते थे । मक्का में मूर्ती का प्रचलन साम ( सीरिया ) से आया । वहाँ सबसे पहले जो मूर्ती स्थापित की गयी वह 'हूबल' नाम के देवता की थी, जो सीरिया से लाई गयी थी । इसके बाद ' इसाफ' और ' नाइला ' की मूर्तियाँ ज़मज़म नाम के कुँए पर स्थापित की गयीं । फिर हर क़बीले ने अपनी-अपनी अलग-अलग मूर्तियाँ स्थापित कीं। जैसे क़ुरैश क़बीले ने ' उज्ज़ा' की । ताइफ़ के क़बीले सकीफ़ ने ' लात ' की । मदीने के औस और  खजरज़ क़बीलों ने ' मनात '  की । ऐसे ही  वद, सुआव, यगुस, सौउफ़ , नसर , आदि प्रमुख मूर्तियाँ थीं । इसके अलावा हज़रत इब्राहीम, हज़रत इस्माईल , हज़रत ईसा आदि की तस्वीरें व मूर्तियाँ खाना काबा में मौजूद थीं ।
ऐसी परिस्तिथियों में 40 वर्ष की आयु में आप ( सल्ल० ) को प्रथम बार रमज़ान के महीने में मक्का से 6 मील की दूरी पर 'गारे हिरा' नामक गुफ़ा में एक फ़रिश्ता जिबरील से अल्लाह का सन्देश प्राप्त हुआ । इसके बाद अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद ( सल्ल०) को समय-समय पर अल्लाह के आदेश मिलते रहे । अल्लाह के यही आदेश,क़ुरआन है ।
आप ( सल्ल०) लोगों को अल्लाह का पैग़ाम देने लगे कि ' अल्लाह एक है उसका कोई शरीक नहीं । केवल वही पूजा के योग्य है । सब लोग उसी कि इबादत करो । अल्लाह ने मुझे नबी बनाया है ।  मुझ पर अपनी आयतें उतारी हैं ताकि मैं लोगों को सत्य बताऊँ, सीधी सत्य कि रह दिखाऊँ ।' जो लोग मुहम्मद ( सल्ल०) के पैग़ाम पर ईमान ( यानी विश्वास ) लाये, वे मुस्लिम अथार्त मुस्लमान कहलाये ।
बीवी खदीजा  ( रज़ि० ) आप पर विश्वास लाकर पहली मुस्लमान बनीं ।  उसके बाद चचा अबू-तालिब के बेटे अली  ( रज़ि० ) और मुंह बोले बेटे ज़ैद  व आप ( सल्ल० ) के गहरे दोस्त ( रज़ि०) ने मुस्लमान बनने के लिये " अश्हदु अल्ला इल्लाल्लाहू व अश्हदु अन्न मुहम्मदुरसुलुल्लाह " यानि " मैं गवाही देता हूँ , अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है और मुहम्मद ( सल्ल०) अल्लाह के रसूल हैं ।" कह कर इस्लाम क़ुबूल किया ।
मक्का के अन्य लोग भी ईमान  ( यानि विश्वास ) लाकर मुस्लमान बनने लगे ।  कुछ समय बाद ही क़ुरैश के सरदारों को मालूम हो गया कि आप ( सल्ल०) अपने बाप-दादा के धर्म बहुदेववाद और मूर्तिपूजा के स्थान पर किसी नए धर्म का प्रचार कर रहे हैं और बाप-दादा के दीन को समाप्त कर रहे हैं ।  यह जानकार आप ( सल्ल०) के अपने ही क़बीले क़ुरैश के लोग बहुत क्रोधित हो गये । मक्का के सारे बहुईश्वरवादी काफ़िर सरदार इकट्ठे होकर मुहम्मद ( सल्ल०) कि शिकायत लेकर आप के चचा अबू-तालिब के पास गये ।  अबू-तालिब ने मुहम्मद ( सल्ल० ) को बुलवाया और कहा-" मुहम्मद ये अपने क़ुरैश क़बीले के असरदार सरदार हैं. ये चाहते हैं कि तुम यह प्रचार न करो कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं है और अपने बाप-दादा के धर्म पर क़ायम रहो ।"
मुहम्मद ( सल्ल०) ने ' ला इला-ह इल्लल्लाह ' ( अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं है ) इस सत्य का प्रचार छोड़ने से इंकार कर दिया । क़ुरैश सरदार क्रोधित होकर चले गये ।इसके बाद इन क़ुरैश सरदारों ने तय किया कि अब हम मुहम्मद को हर प्रकार से कुचल देंगे । और उनके साथियों को बेरहमी के साथ तरह-तरह स्व सताते, अपमानित करते और उन पर पत्थर बरसाते ।
इसके बाद आप ( सल्ल० ) ने उनकी दुष्टता का जवाब सदैव सज्जनता और सद्व्यवहार से ही दिया ।
मुहम्मद ( सल्ल० ) व आपके साथी मुसलमानों के विरोध में क़ुरैश का साथ देने के लिए अरब के और बहुत क़बीले थे । जिन्होंने आपस में यह समझौता कर लिया था कि कोई क़बीला किसी मुस्लमान को पनाह नहीं देगा । प्रत्येक क़बीले कि ज़िम्मेदारी थी, जहाँ कहीं मुस्लमान मिल जाएँ उनको ख़ूब मारें-पीटें और हर तरह से अपमानित करें, जिससे कि वे अपने बाप-दादा  के धर्म कि ओर लौट आने को मजबूर हो जाएँ ।
दिन प्रतिदन उन के अत्यचार बढ़ते गये । उन्होंने निर्दोष असहाय मुसलमानों को क़ैद किया, मारा-पीटा, भूखा-प्यासा रखा । मक्के कि तपती रेत पर नंगा लिटाया , लोहे की गर्म छड़ों से दाग़ा और तरह-तरह के अत्याचार किये ।
उदाहरण के लिए हज़रत यासिर ( रज़ि०) और बीवी हज़रत सुमय्या ( रज़ि० ) तथा उनके पुत्र हज़रत अम्मार ( रज़ि०) मक्के के ग़रीब लोग थे और इस्लाम क़ुबूल कर मुस्लमान बन गये थे । उनके मुस्लमान बनने से नाराज़ मक्के के काफ़िर उन्हें सज़ा देने के लिए जब कड़ी दोपहर हो जाती, तो उनके कपड़े उतार उन्हें तपती रेत लिटा देते ।
हज़रत यासिर ( रज़ि०) ने इन ज़ुल्मों को सहते हुए तड़प-तड़प कर जान दे दी । मुहम्मद ( सल्ल०) व मुसलमानों के सबसे बड़ा विरोधी अबू ज़हल बड़ी बेदर्दी से सुमय्या  ( रज़ि०) के पीछे पड़ा रहता । एक दिन उन्होंने अबू-जहल को बददुआ दे दी जिससे नाराज़ होकर अबू-जहल ने भाला मार कर हज़रत सुमय्या  ( रज़ि०) का क़त्ल कर दिया । इस तरह इस्लाम में हज़रत सुमय्या ( रज़ि० ) ही सबसे पहले सत्य की रक्षा के लिए शहीद बनीं ।
दुष्ट क़ुरैश, हज़रत अम्मार ( रज़ि०) को लोहे का कवच पहना कर धूप में लिटा देते । लिटाने के बाद मारते-मारते बेहोश कर देते ।
इस्लाम क़ुबूल कर मुस्लमान बने हज़रत बिलाल (रज़ि०), कुरैश सरदार उमैय्या के ग़ुलाम थे। उमैय्या ने यह जानकर कि बिलाल मुस्लमान बन गये हैं, उनका खाना पीना बंद कर दिया। ठीक दोपहर में भूखे-प्यासे ही वह उन्हें बहार पत्थर पर लिटा देता और छाती पर बहुत भारी पत्थर रखवा कर कहता -" लो मुसलमान बनने का मज़ा चखो।"
उस समय जितने भी ग़ुलाम,मुसलमान बन गये थे इन पर इसी तरह अत्याचार हो रहे थे। हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के जिगरी दोस्त अबू-बक्र ( रज़ि०) ने उन सब को ख़रीद-ख़रीद कर ग़ुलामी से आज़ाद कर दिया।
काफ़िर कुरैश यदि किसी मुस्लमान को क़ुरान की आयतें पढ़ते सुन लेते या नमाज़ पढ़ते देख लेते, तो पहले उसकी बहुत हंसी उड़ाते फिर उसे बहुत सताते। इस डर के कारण मुसलमानों को नमाज़ पढ़नी होती छिपकर पढ़ते और क़ुरान पढ़ना होता तो धीमी आवाज़ से पढ़ते।
एक दिन क़ुरैश काबा में बैठे हुए थे। अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद ( रज़ि०) काबा के पास नमाज़ पढने लगे, तो वहां बैठे सारे काफ़िर क़ुरैश उन पर टूट पड़े और उन्होंने अब्दुल्लाह को मारते-मारते बे-दम कर दिया।
जब मक्का में काफ़िरों के अत्याचारों के कारण मुसलमानों का जीना मुश्किल हो गया तो मुहम्मद ( सल्ल०) ने उनसे कहा: " हबशा चले जाओ"
हबशा का बादशाह नाज्जाशी ईसाई था। अल्लाह के रसूल का हुक्म पते ही बहुत से मुसलमान हबशा चले गये। जब क़ुरैश को पता चला, तो उन्होंने अपने दो आदमियों को दूत बना कर हबशा के बादशाह के भेज कर कहलवाया कि " हमारे यहाँ के कुछ मुजरिमों ने भाग कर आपके यहाँ शरण ली है। इन्होंनें हमारे धर्म से बग़ावत की है और आपका ईसाई धर्म भी नहीं स्वीकारा, फिर भी आपके यहाँ रह रहे हैं। ये अपने बाप-दादा के धर्म से बग़ावत कर एक नया धर्म लेकर चल रहे हैं, जिसे न हम जानते हैं और न आप। इनको लेने हम आए हैं।
बादशाह नाज्जाशी ने मुसलमानों से पुछा: " तुम लोग कौन सा ऐसा नया धर्म लेकर चल रहे हो, जिसे हम नहीं जानते?"
इस पर मुसलमानों की ओर से हज़रत जाफ़र ( रज़ि०) बोले-हे बादशाह! पहले हम लोग असभ्य और गंवार थे। बुतों की पूजा करते थे, गंदे काम करते थे, पड़ोसियों से व आपस में झगड़ा करते रहते थे। इस बीच अल्लाह ने हम में अपना एक रसूल भेजा। उसने हमें सत्य-धर्म इस्लाम की ओर बुलाया। उसने हमें अल्लाह का पैग़ाम देते हुए कहा:"हम केवल एक ईश्वर की पूजा करें ,बेजान बुतों की पूजा छोड़ दें, सत्य बोलें और पड़ोसियों के साथ अच्छा व्यवहार करें, किसी के साथ अत्याचार और अन्याय न करें, व्यभिचार और गंदे कार्यों को छोड़ दें,अनाथों का माल न खायें, पाक दामन औरतों पर तोहमत न लगाएं, नमाज़ पढ़ें और खैरात यानी दान दें।"
हमने उस के पैग़ाम को व उसको सच्चा जाना और उस पर ईमान यानि विश्वास लाकर मुस्लमान बन गए ।
हज़रत जाफ़र ( रज़ि०) के जवाब से बादशाह नाज्जाशी बहुत प्रभावित  हुआ। उसने दूतों को यह कह कर वापस कर दिया की यह लोग अब यहीं रहेंगे।
 मक्का में ख़त्ताब के पुत्र  उमर बड़े ही क्रोधी किन्तु बड़े बहादुर साहसी योद्धा थे । अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) ने अल्लाह से प्रार्थना की कि यदि उमर ईमान लाकर  मुस्लमान बन जाएं तो इस्लाम को बड़ी मदद मिले, लेकिन उमर मुसलमानों के लिए बड़े ही निर्दयी थे। जब उन्हें मालूम हुआ की नाज्जाशी ने मुसलमानों को अपने यहाँ शरण दे दी है तो वह बहुत क्रोधित हुए । उमर ने सोचा सारे फ़साद की जड़ मुहम्मद ही है, अब मैं उसे ही मार कर फ़साद की यह जड़ समाप्त कर दूंगा।
ऐसा सोच कर, उमर तलवार उठा कर चल दिए। रस्ते में उनकी भेंट नुएम-बिन-अब्दुल्लाह से हो गयी जो पहले ही मुस्लमान बन चुके थे, लेकिन उमर को यह पता नहीं था। बातचीत में जब नुऐम को पता चला कि उमर, अल्लाह के रसूल ( सल्ल०) का क़त्ल करने जा रहे हैं तो उन्होंने उमर के इरादे का रुख़ बदलने के लिए कहा: " तुम्हारी बहन-बहनोई मुस्लमान हो गए हैं, पहले उनसे तो निबटो।"
यह सुनते ही कि उनकी बहन और बहनोई मुहम्मद का दीन इस्लाम क़ुबूल कर मुस्लमान बन चुके हैं, उमर ग़ुस्से से पागल हो गए और सीधा बहन के घर जा पहुंचे।
भीतर से कुछ पढने कि आवाज़ आ रही थी । उस समय खब्बाब ( रज़ि०) क़ुरान पढ़ रहे थे। उमर कि आवाज़ सुनते ही वे डर के मारे अन्दर छिप गए। क़ुरआन के जिन पन्नों को वे पढ़ रहे थे, उमर की बहन फ़ातिमा ( रज़ि०) ने उन्हें छिपा दिया, फिर बहनोई सईद ( राज़ी0) ने दरवाज़ा खोला
उमर ने यह कहते हुए कि "क्या तुम लोग सोचते हो कि तुम्हारे मुस्लमान बनने की मुझे खबर नहीं है?" यह कहते हुए उमर ने बहन-बहनोई   को मारना-पीटना शुरू कर दिया और इतना मारा कि बहन का सर फट गया । किन्तु इतना मार खाने के बाद भी बहन ने इस्लाम छोड़ने से इंकार कर दिया।
बहन के द्रढ़ संकल्प ने उमर के इरादे को हिला कर रख दिया । उन्होंने अपनी बहन से क़ुरआन के पन्ने दिखाने को कहा । क़ुरआन के उन पन्नों को पढ़ने के बाद उमर का मन भी बदल गया । अब वह मुस्लमान बनने का इरादा कर मुहम्मद ( सल्ल० ) से मिलने चल दिए।
उमर ने अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) से विनम्रतापूर्वक कहा: " मैं इस्लाम स्वीकार करने आया हूं। मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के आलावा कोई पूज्य नहीं है और मुहम्मद ( सल्ल० ) अल्लाह के रसूल हैं । अब मैं मुस्लमान हूं।"
इस तरह मुसलमानों की संख्या निरंतर बढ़ रही थी । इसे रोकने के लिए क़ुरैश ने आपस में एक समझौता किया । इस समझौते के अनुसार क़ुरैश  के सरदार आप ( सल्ल० ) के परिवार मुत्तलिब ख़ानदान के पास गए और कहा: : मुहम्मद को हमारे हवाले कर दो । हम उसे क़त्ल कर देंगे और इस खून के बदले हम तुमको बहुत सा धन देंगे। यदि ऐसा नहीं करोगे तो हम सब घेराव करके तुम लोगों को नज़रबंद रखेंगे । न तुमसे कभी कुछ ख़रीदेंगे,न बेचेंगे और न ही किसी प्रकार का लेन-देन करेंगे । तुम सब भूख से तड़प-तड़प का मर जाओगे ।"
लेकिन मुत्तलिब ख़ानदान ने मुहम्मद ( सल्ल०) को देने से इंकार कर दिया, जिसके कारण मुहम्मद ( सल्ल० ) अपने चचा अबू-तालिब और समूचे ख़ानदान के साथ एक घाटी में नज़रबंद कर दिए गए । भूख के कारण उन्हें पत्ते तक खाना पड़ा । ऐसे कठिन समय में मुसलमानों के कुछ हमदर्दों के प्रयास से यह नज़रबंदी समाप्त हुई ।इसके कुछ  दिनों के  बाद  चचा  अबू-तालिब चल बसे । थोड़े ही दिनों के बाद बीवी ख़दीजा ( रज़ि०) भी नहीं रहीं।
मक्का के काफ़िरों ने बहुत कोशिश की कि मुहम्मद  ( सल्ल० ) अल्लाह का पैग़ाम पहुँचाना छोड़ दें। चचा अबू-तालिब कि मौत के बाद उन काफ़िरों के हौसले बहुत बढ़ गए । एक दिन आप ( सल्ल०) काबा में नमाज़ पढ़ रहे थे कि किसी ने औझड़ी ( गंदगी ) लाकर आपके ऊपर डाल दी, लेकिन आप ने न कुछ बुरा-भला कहा और न कोई बददुआ दी ।
इसी प्रकार एक बार आप ( सल्ल० ) कहीं जा रहे थे , रस्ते में किसी ने आप के सर पर  मिटटी डाल दी । आप घर वापस लौट आए । पिता पर लगातार हो रहे अत्याचारों को सोच का बेटी फ़ातिमा आप का सर धोते हुए रोनें लगीं । आप ( सल्ल० ) ने बेटी को तसल्ली देते ही कहा: " बेटी रो मत! अल्लाह तुम्हारे बाप की मदद करेगा ।"
मुहम्मद ( सल्ल०) जब क़ुरैश के ज़ुल्मों से तंग आ गए और उनकी ज़्यादतियां असहनीय हो गयीं, तो आप ( सल्ल० ) ताइफ़ चले गए. लेकिन यहाँ किसी ने आप को ठहराना तक पसंद नहीं किया । अल्लाह के पैग़ाम को झूठा कह कर आप को अल्लाह का रसूल मानने से इंकार कर दिया ।
सक़ीफ़ क़बीले के सरदार ने ताइफ़ के गुंडों को आप के पीछे लगा दिया , जिन्होंने पत्थर मार-मार कर आप को बुरी तरह ज़ख़्मी कर दिया । किसी तरह आप ने अंगूर के एक बाग़ में छिप कर अपनी जान बचाई ।
मक्के के क़ुरैश को जब ताइफ़ का सारा हाल मालूम हुआ, तो वो बड़े खुश हुए और आप की खूब हंसी उड़ायी । उन्होंने आपस में तय किया कि मुहम्मद अगर वापस लौट कर मक्का आए तो उन का क़त्ल कर देंगे ।
आप ( सल्ल० ) ताइफ़ से मक्का के लिए रवाना हुए । हिरा नामक स्थान पर पहुंचे तो वहां पर क़ुरैश के कुछ लोग मिल गये । ये लोग आप  ( सल्ल० ) के हमदर्द थे उनसे मालूम हुआ कि क़ुरैश आप का क़त्ल करने को तैयार बैठे हैं ।
अल्लाह के रसूल अपनी बीवी ख़दीजा के एक रिश्तेदार अदि के बेटे मुतईम कि पनाह में मक्का में दाखिल हुए । चूँकि मुतईम आपको पनाह दे चुके थे, इसलिए कोई कुछ न बोला लेकिन आप ( सल्ल०) जब काबा पहुंचे, तो अबू-जहल ने आप कि हंसी उड़ाई ।
आपने लगातार अबू-जहल के दुर्व्यवहार को देखते हुए पहली बार उसे सख्त चतावनी दी और साथ ही क़ुरैश सरदारों को भी अंजाम भुगतने को तैयार रहने को कहा ।
इसके बाद अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) ने अरब के अन्य क़बीलों को इस्लाम कि और बुलाना शुरू किया इससे मदीना में इस्लाम फैलने लगा ।
मदीना वासियों ने अल्लाह के रसूल कि बातों पर ईमान ( यानि विश्वास ) लाने के साथ आप ( सल्ल० ) की सुरक्षा करने का भी प्रतिज्ञा की । मदीना वालों ने आपस में तय किया कि इस बार जब हज करने मक्का जायेंगे , अपने प्यारे रसूल ( सल्ल० ) को मदीना आने का निमंत्रण देंगे ।
जब हज का समय आया , तो मदीने से मुसलमानों और ग़ैर मुसलमानों का एक बड़ा क़ाफ़िला हज के लिए मक्का के लिए चला । मदीना के मुसलमानों  की आप ( सल्ल० ) से काबा में मुलाक़ातहुई । इनमें से 75 लोगों ने जिनमें दो औरतें भी थीं पहले से तय की हुई जगह पर रात में फिर अल्लाह के रसूल से मुलाक़ात की । अल्लाह के रसूल  ( सल्ल० ) से बातचीत करने के बाद मदीना वालों ने सत्य की और सत्य को बताने वाले अल्लाह के रसूल  ( सल्ल० ) की रक्षा करने की बैत ( यानि प्रतिज्ञा ) की ।
रात में हुई प्रतिज्ञा की ख़बर क़ुरैश को मिल गई थी । सुबह क़ुरैश को जब पता चला की मदीना वाले निकल गए ,तो उन्होंने उन का पीछा किया पर वे पकड़ में न आये । लेकिन उनमें एक व्यक्ति सआद ( रज़ि०) पकड़ लिये गए । क़ुरैश उन्हें मरते-पीटते बाल पकड़ कर घसीटते हुए मक्का लाए ।
मक्का के मुसलमानों के लिये क़ुरैश के अत्याचार असहनीय हो चुके थे । इससे आप ( सल्ल० ) ने मुसलमानों को मदीना चले जाने ( हिजरत ) के लिये  कहा और हिदायत दी कि एक-एक , दो-दो करके निकलो ताकि क़ुरैश तुम्हारा इरादा भांप न सकें । मुसलमान चोरी-छिपे मदीने की ओर जाने लगे । अधिकांश मुस्लमान निकल गए लेकिन कुछ क़ुरैश की पकड़ में आ गए और क़ैद कर लिये गए । उन्हें बड़ी बेरहमी से सताया गया ताकि वे मुहम्मद ( सल्ल० ) के बताये धर्म को छोड़ कर अपने बाप-दादा के धर्म में लौट आएं ।
अब मक्का में इन बंदी मुसलमानों के अलावा अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ), अबू-बक्र (रज़ि० ), और अली ( रज़ि० ) ही बचे थे ,जिन पर काफ़िर क़ुरैश घात लगाये बैठे थे ।
मदीना के लिये मुसलमानों की हिजरत से यह हुआ कि मदीना में इस्लाम का प्रचार-प्रसार शुरू हो गया । लोग तेज़ी से मुसलमान बनने लगे ।मुसलमानों का ज़ोर बढ़ने  लगा । मदीना में मुसलमानों की बढ़ती ताक़त देखकर क़ुरैश चिंतित हुए । अत: एक दिन क़ुरैश अपने मंत्रणागृह 'दरुन्न्दवा ' में  जमा हुए । यहाँ सब ऐसी तरकीब सोचने लगे जिससे मुहम्मद का ख़ात्मा हो जाये और इस्लाम का प्रवाह रुक जाये । अबू-जहल के प्रस्ताव पर सब की राय से तय हुआ कि क़बीले से एक-एक व्यक्ति को लेकर एक साथ मुहम्मद पर हमला बोलकर उन कि हत्या कर दी जाए । इससे मुहम्मद के परिवार वाले तमाम सम्मिलित क़बीलों का मुक़ाबला नहीं कर पायेंगे और समझौता करने को मजबूर हो जायेंगे ।
फिर पहले से तय कि हुई रात को काफिरों ने हत्या के लिए मुहम्मद ( सल्ल० ) के घर को हर तरफ से घेर लिया जिससे कि मुहम्मद ( सल्ल०) के बाहर निकलते ही आप कि हत्या कर दें । अल्लाह ने इस ख़तरे से आप ( सल्ल० ) को सावधान कर दिया । आप ( सल्ल० ) ने अपने चचेरे भाई अली ( रज़ि० ) जो आपके साथ रहते थे से कहा:-
" अली ! मुझ को अल्लाह से हिजरत का आदेश मिल चुका है । काफ़िर हमारी हत्या के लिए हमारे घर को घेरे हुए हैं । मैं मदीना जा रहा हूँ तुम मेरी चादर ओढ़ कर सो जाओ , अल्लाह तुम्हारी रक्षा करेगा , बाद में तुम भी मदीना चले आना । "
हजरत मुहम्मद ( सल्ल० ) अपने प्रिय साथी अबू-बक्र ( रज़ि० ) के साथ मक्का से मदीना के लिए निकले । मदीना , मक्का से उत्तर दिशा की ओर है , लेकिन दुश्मनों को धोखे में रखने के लिये आप ( सल्ल० ) मक्का से दक्षिण दिशा में यमन के रास्ते पर सौर की गुफ़ा में पहुंचे । तीन दिन उसी गुफ़ा में ठहरे रहे । जब आप ( सल्ल० ) व हज़रत अबू-बक्र ( रज़ि० ) की तलाश बंद हो गयी तब आप ( सल्ल० ) व अबू-बक्र ( रज़ि० ) गुफ़ा से निकल कर मदीना की ओर चल दिये ।कई दिन-रात चलने के बाद 24 सितम्बर सन 622  ई० को मदीना से पहले कुबा नाम की एक बस्ती में पहुंचे जहाँ के कई परिवार आबाद थे । यहाँ आपने एक मस्जिद की बुनियाद डाली, जो ' कुबा मस्जिद ' के नाम से प्रसिद्ध है । यहीं पर अली ( रज़ि० ) की आप से ( सल्ल०) से मुलाक़ात हो गई । कुछ दिन यहाँ ठरहने के बाद आप ( सल्ल० ) मदीना पहुंचे । मदीना पहुँचने पर आप ( सल्ल० ) का सब ओर भव्य हार्दिक स्वागत हुआ ।
अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) के मदीना पहुँचने के बाद वहां एकेश्वरवादी सत्य-धर्म इस्लाम बड़ी तेज़ी से बढ़ने लगा । हर ओर ' ला इला-ह इल्लल्लाह मुहम्म्दुर्रुसूल्ल्लाह ' यानि ' अल्लाह के अलावा कोई पूज्य नहीं और मुहम्मद ( सल्ल० ) अल्लाह के रसूल हैं ।' की गूँज सुनाई देने लगी ।
काफ़िर क़ुरैश , मुनाफिकों ( यानि कपटाचारियों ) की मदद से मदीना की ख़बर लेते रहते । सत्य धर्म इस्लाम का प्रवाह रोकने के लिये , अब वे मदीना पर हमला करने की योजनायें बनाने लगे ।
एक तरफ़ क़ुरैश लगातार कई सालों से मुसलमानों पर हर तरह के अत्याचार करने के साथ-साथ उन्हें नष्ट करने पर उतारू थे , वहीँ दूसरी तरफ़ आप ( सल्ल० ) पर विश्वास लेन वालों ( यानी मुसलमानों ) को अपना वतन छोड़ना पड़ा , अपनी दौलत , जायदाद छोड़नी पड़ी इसके बाद भी मुस्लमान सब्र का दमन थामे ही रहे । लेकिन अत्याचारियों ने मदीना में भी उनका पीछा न छोड़ा और एक बड़ी सेना के साथ मुसलमानों पर हमला कर दिया ।जब पानी सिर से ऊपर हो गया तब अल्लाह ने भी मुसलमानों  को लड़ने की इजाज़त दे दी । अल्लाह का हुक्म आ पहुंचा -" जिन मुसलमानों से  ( खामखाह ) लड़ाई की जाती है; उन को इजाज़त है ( कि वे भी लड़ें ), क्योंकि उन पर ज़ुल्म हो रहा है और ख़ुदा ( उनकी मदद करेगा, वह ) यक़ीनन उन की मदद पर क़ुदरत रखता है ।"-कुरआन, सूरा 22, आयत 39
असत्य के लिए लड़ने वाले अत्याचारियों से युद्ध करने का आदेश अल्लाह की ओर से आ चुका था । मुसलमानों को भी सत्य-धर्म इस्लाम की रक्षा के लिए तलवार उठाने की इजाज़त मिल चुकी थी ।अब जिहाद ( यानि असत्य और आतंकवाद के विरोध के लिए प्रयास  ) शुरू हो गया ।
सत्य की स्थापना के लिए और अन्याय , अत्याचार तथा आतंक की समाप्ति के लिए किये गए जिहाद ( धर्मरक्षा व आत्मरक्षा के लिए युद्ध ) में अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) की विजय होती रही । मक्का व आस पास के काफ़िर मुशरिक औंधे  मुंह गिरे ।
इसके बाद पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० )  दस हज़ार मुसलमानों की सेना के साथ मक्का में असत्य व आतंकवाद की जड़ को समाप्त करने के लिए चले । अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) की सफ़लताओं और मुसलमानों की अपार शक्ति को देख मक्का के काफ़िरोंने हतियार डाल दिए । बिना किसी खून-खराबे के मक्का फ़तेह कर लिया गया । इस तरह सत्य और शांति की जीत तथा असत्य और आतंकवाद की हार हुई ।
मक्का । वही मक्का जहाँ कल अपमान था, आज स्वागत हो रहा था । उदारता और दयालुता की मूर्ति बने अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) ने सभी लोगों को माफ़ कर दिया , जिन्होनें आप और मुसलमानों पर बेदर्दी से ज़ुल्म किया तथा अपना वतन छोड़ने को मजबूर किया था । आज वे ही मक्का वाले अल्लाह के रसूल के सामने ख़ुशी से कह रहे थे -
"ला इला-ह इल्लल्लाह  मुहम्म्दुर्रसूलुल्लाह "
और झुंड के झुंड प्रतिज्ञा ले रहे थे :
" अश्हदु अल्ला इलाहा इल्लल्लाहु व अश्हदु अन्न मुहम्म्दुर्रसूलुल्लाह"
( मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं और मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद ( सल्ल० ) अल्लाह के रसूल हैं । )
हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की पवित्र जीवनी पढ़ने के बाद मैंने पाया कि आप ( सल्ल० ) ने एकेश्वरवाद के सत्य को स्थापित करने के लिए अपार कष्ट झेले ।
मक्का के काफ़िर सत्य कि राह में रोड़ा डालने के लिए आप को तथा आपके बताये सत्य पर चलने वाले मुसलमानों को लगातार तेरह सालों तक हर तरह से प्रताड़ित व अपमानित करते रहे । इस घोर अत्याचार के बाद भी आप ( सल्ल० ) ने धैर्य बनाये रखा । यहाँ तक कि आप को अपना वतन छोड़ कर मदीना जाना पड़ा । लेकिन मक्का के मुशरिक कुरैश ने आप ( सल्ल० ) का व मुसलमानों का पीछा यहाँ भी नहीं छोड़ा । जब पानी सिर से ऊपर हो गया तो अपनी व मुसलमानों कि तथा सत्य कि रक्षा के लिए मजबूर होकर आप को लड़ने पड़ा । इस तरह आप पर व मुसलमानों पर लड़ाई थोपी गई 

इन्हीं परीस्थितियों में सत्य कि रक्ष के लिए जिहाद ( आत्मरक्षा व धर्मरक्षा के लीयते धर्म युद्ध ) कि आयतें और अन्यायी तथा अत्याचारी काफ़िरों व मुशरिकों  को दंड देने वाली आयतें अल्लाह कि ओर से आप ( सल्ल० ) पर असमान से उतरीं 

पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) द्वारा लड़ी गई लड़ाईयां 
आक्रमण के लिए न होकर, आक्रमण व आतंकवाद से बचाव के लिए थीं, क्योंकि अत्याचारियों के साथ ऐसा किये बिना शांति की स्थापना नहीं हो सकती थी 
अल्लाह के रसूल ( सल्ल० ) ने सत्य तथा शांति के लिये अंतिम सीमा तक धैर्य रखा और धैर्य की अंतिम सीमा से युद्ध की शुरुआत होती है । इस प्रकार का युद्ध ही धर्म युद्ध ( यानि जिहाद ) कहलाता है ।
विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि कुरैश जिन्होंने आप व मुसलमानों पर भयानक अत्याचार किये थे, फ़तह मक्का ( यानि मक्का विजय ) के दिन थर-थर कांप रहे थे कि आज क्या होगा? लेकिन आप ( सल्ल० ) ने उन्हें माफ़ कर गले लगा लिया ।
पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ) की इस पवित्र जीवनी से सिद्ध होता है कि इस्लाम का अंतिम उद्देश्य दुनिया में सत्य और शांति कि स्थापना और आतंकवाद का विरोध है ।
अत: इस्लाम कि हिंसा व आतंक से जोड़ना सबसे बड़ा असत्य । यदि कोई घटना होती है तो उसको इस्लाम से या सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय से जोड़ा नहीं जा सकता ।

भाग 2 
अब इस्लाम को विस्तार से जानने के लिये इस्लाम की बुनियाद क़ुरआन की ओर चलते हैं ।
इस्लाम, आतंक है ? या आदर्श । यह जानने के लिये मैं क़ुरआन माजिद की कुछ आयतें दे रहा हूँ जिन्हें मैंने मौलाना फ़तेह मोहम्मद खां जालंधरी द्वारा हिंदी में अनुवादित और महमूद एंड कंपनी मरोल पाइप लाइन मुंबई -  59 से प्रकाशित क़ुरआन माजिद से लिया है ।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि कुरआन का अनुवाद करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना पड़ता है कि किसी भी आयत का भावार्थ ज़रा भी न बदलने पाये । क्योंकि किसी भी क़ीमत पर यह बदला नहीं जा सकता । इसलिए अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग अनुवादकों द्वारा कुरआन माजिद के किये गये अनुवाद का भाव एक ही रहता है ।
क़ुरआन की शुरुआत ' बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम 'से होती है , जिसका अर्थ है -शुरू अल्लाह का नाम लेकर , जो बड़ा कृपालु , अत्यंत दयालु है ।"
ध्यान दें । ऐसा अल्लाह जो बड़ा कृपालु और अत्यंत दयालु है वह ऐसे फ़रमान कैसे जरी कर सकता है, जो किसी को कष्ट पहुँचाने वाले हों अथवा हिंसा या आतंक फैलाने वाले हों ? अल्लाह की इसी कृपालुता और दयालुता का पूर्ण प्रभाव अल्लाह के रसूल सल्ल० ) के व्यावहारिक जीवन में देखने को मिलता है ।
क़ुरआन 
की आयतों से व पैग़म्बर मुहम्मद ( सल्ल० ) की जीवनी से पता चलता है कि मुसलमानों को उन काफ़िरों से लड़ने का आदेश दिया गया जो आक्रमणकारी थे, अत्यचारी थे । यह लड़ाई अपने बचाव के लिये थीं । देखें क़ुरआन माजिद में अल्लाह के आदेश: और ( ऐ मुहम्मद ! उस वक़्त को याद करो ) जब काफ़िर लोग तुम्हारे बारे में चाल चल रहे थे कि तुम को क़ैद कर दें या जान से मार डालें या ( वतन से ) निकल दें तो ( इधर से ) वे चाल चाल रहे थे और ( उधर ) ख़ुदा चाल चाल रहा था और ख़ुदा सबसे बेहतर चाल चलने वाला है ।- क़ुरआन , सूरा 8, आयत -30 ये लोग हैं कि अपने घरों से ना-हक़ निकल दिए गये , ( उन्होंने कुछ कुसूर नहीं किया ) हां, यह कहते हैं कि हमारा परवरदिगार ख़ुदा है और अगर ख़ुदा लोगों को एक-दूसरे से न हटाता  रहता तो ( राहिबों के ) पूजा-घर और ( ईसाईयों के ) गिरजे और ( यहूदियों  की ) और ( मुसलमानों की ) मस्जिदें , जिन में ख़ुदा का बहुत-सा ज़िक्र किया जाता है, गिराई जा चुकी होतीं । और जो शख्स ख़ुदा की मदद करता है, ख़ुदा उस की मदद ज़रूर करता है । बेशक ख़ुदा ताक़त वाला और ग़ालिब ( यानी प्रभुत्वशाली ) है ।-क़ुरआन , सूरा 22, आयत - 40
ये क्या कहते हैं कि इस ने क़ुरान खुद बना लिया है ? कह दो कि अगर सच्चे हो तुम भी ऐसी दस सूरतें बना लाओ और ख़ुदा के सिवा जिस-जिस को बुला सकते हो , बुला लो ।-क़ुरआन, सूरा 11, आयत -13 ( ऐ पैग़म्बर ! ) काफ़िरों का शहरों में चलना-फिरना तुम्हें धोखा न दे ।
-क़ुरआन , सूरा 3, आयत -196
जिन मुसलमानों से ( खामखाह ) लड़ाई की जाती है, उन को इजाज़त है ( की वे भी लड़ें ), क्योंकि उन पर ज़ुल्म हो रहा है और ख़ुदा ( उन की मदद करेगा ,वह ) यक़ीनन उन की मदद पर क़ुदरत रखता है ।
-क़ुरआन, सूरा 22, आयत-39
और उनको ( यानि काफ़िर क़ुरैश को ) जहां पाओ , क़त्ल कर दो और जहां से उन्होंने तुमको निकला है ( यानि मक्का से ) वहां से तुम भी उनको  निकल दो ।
-क़ुरआन , सूरा 2, आयत-191
जो लोग ख़ुदा और उसके रसूल से लड़ाई करें और मुल्क में फ़साद करने को दौड़ते फिरें, उन की यह सज़ा है की क़त्ल कर दिए जाएं या सूली पर चढ़ा दिए जाएं या उन के एक-एक तरफ़ के हाथ और एक-एक तरफ़ के पांव कट दिए जाएँ । यह तो दुनियां में उनकी रुसवाई है और आख़िरत ( यानी क़ियामत के दिन ) में उनके लिए बड़ा ( भारी ) अज़ाब ( तैयार ) है ।
हाँ, जिन लोगों ने इस से पहले की तुम्हारे क़ाबू आ जाएं , तौबा कर ली तो जान रखो की ख़ुदा बख्शने वाला मेहरबान  है ।
-क़ुरआन , सूरा 5 , आयत-33 ,34
इस्लाम के बारे में झूठा प्रचार किया जाता है की कुरआन में अल्लाह के आदेशों के कारण ही मुस्लमान लोग ग़ैर-मुसलमानों का जीना हराम कर देते हैं, जबकि इस्लाम में कहीं भी निर्दोष से लड़ने की इजाज़त नहीं है,भले ही वह काफ़िर या मुशरिक या दुश्मन ही क्यों न हों । विशेष रूप से देखिये अल्लाह के ये आदेश:
जिन लोगों ने तुमसे दीन के बारे में जंग नहीं की और न तुम को तुम्हारे घरों से निकला,उन के साथ भलाई और इंसाफ का सुलूक करने से ख़ुदा तुम को मना नहीं करता । ख़ुदा तो इंसाफ करने वालों को दोस्त रखता है ।
-कुरआन, सूरा 60 , आयत-8
ख़ुदा उन्हीं लोगों के साथ तुम को दोस्ती करने से मना करता है , जिन्होंने तुम से दीन के बारे में लड़ाई की और तुम को तुम्हारे घरों से निकला और तुम्हारे निकलने में औरों की मदद की , तो जो  लोग ऐसों से दोस्ती करेंगे , वही ज़ालिम हैं ।
-क़ुरआन , सूरा 60 , आयत- 9
इस्लाम के दुश्मन के साथ भी ज्यादती करना मना है देखिये:
और जो लोग तुमसे लड़ते हैं, तुम भी ख़ुदा की राह में उनसे लड़ो , मगर ज्यादती न करना की ख़ुदा ज्यादती करने वालों को दोस्त नहीं रखता ।
-क़ुरआन , सूरा 2 , आयत-190
ये ख़ुदा की आयतें हैं, जो हम तुम को सेहत के साथ पढ़ कर सुनाते हैं और अल्लाह अहले-आलम ( अथार्त जनता ) पर ज़ुल्म नहीं करना चाहता ।
-क़ुरआन , सूरा 3 , आयत- 108
इस्लाम का प्रथम उद्देश्य दुनिया में शांति की स्थापना है, लड़ाई तो अंतिम विकल्प है यही तो आदर्श धर्म है, जो नीचे दी गईं इस आयत में दिखाई देता है: ऐ पैग़म्बर ! कुफ्फर से कह दो की अगर वे अपने फ़ेलों से बाज़ न आ जाएँ, तो जो चूका, वह माफ़ कर दिया जायेगा और अगर फिर ( वही हरकतें ) करने लगेंगे तो अगले लोगों का ( जो ) तरीका जरी हो चुका है ( वही उन के हक में बरता जायेगा )
-क़ुरआन  ,सूरा 8 , आयत-38
इस्लाम में दुश्मनों के साथ अच्छा न्याय करने का आदेश, न्याय का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत करता है इसे नीचे दी गई आयत में देखिये:
ऐ इमान वालों ! ख़ुदा के लिए इंसाफ़ की गवाही देने के लिए खड़े हो जाया करो और लोगों की दुश्मनी तुम को इस बात पर तैयार न करे की इंसाफ़ छोड़ दो । इंसाफ़ किया करो क़ि यही परहेज़गारी की बात है और ख़ुदा से डरते रहो । कुछ शक नहीं की ख़ुदा तुम्हारे तमाम कामों से ख़बरदार है ।
-क़ुरआन , सूरा 5 आयत- 8
इस्लाम में किसी निर्दोष कि हत्या की इजाज़त नहीं है ऐसा करने वाले को एक ही सज़ा है, खून के बदले खून । लेकिन यह सज़ा केवल क़ातिल को ही मिलनी चाहिये और इसमें ज़्यादती मना है इसे ही तो कहते हैं सच्चा इंसाफ़ । देखिये नीचे दिया गया अल्लाह का यह आदेश:
और जिस जानदार का मारना ख़ुदा ने हराम किया है, उसे क़त्ल न करना मगर जायज़ तौर पर ( यानि शरियत के फ़तवे के मुताबिक़ ) और जो शख्स ज़ुल्म से क़त्ल किया जाये , हम ने उसके वारिस को अख्तियार दिया है ( की ज़ालिम क़ातिल से बदला ले ) तो उसे चाहिये की क़त्ल ( के किसास ) में ज़्यादती न करे की वह मंसूर व फ़तेहयाब है ।
-क़ुरआन , सूरा 17 , आयत -33इस्लाम द्वारा, देश में हिंसा ( फ़साद ) करने की इजाज़त नहीं है । देखिये अल्लाह का यह आदेश: 
लोगों को उन की चीज़ें कम न दिया करो और मुल्क में फ़साद न करते फिरो।
-क़ुरआन , सूरा 26 , आयत-183
ज़ालिमों को अल्लाह की चेतावनी :
जो लोग ख़ुदा की आयतों को नहीं मानते और नबियों को ना-हक़ क़त्ल करते रहे हैं जो इंसाफ़ करने का हुक्म देते हैं , उन्हें भी मार डालते हैं उन को दुःख देने वाले अज़ाब की ख़ुश ख़बरी सुना दो ।
-क़ुरआन , सूरा 3 , आयत-21
सत्य के लिए कष्ट सहने  वाले, लड़ने-मरने वाले इश्वर की कृपा के पात्र होंगे, उस के प्रिये होंगे :तो परवरदिगार ने उन की दुआ क़ुबूल कर ली। ( और फ़रमाया ) की मैं किसी अमल करने वाले को, मर्द हो या औरत ज़ाया नहीं करता। तुम एक दुसरे की जींस हो , तो जो लोग मेरे लिए वतन छोड़ गए और अपने घरों से निकले गये  और सताये गये और लड़े और  क़त्ल किये गये में उनके गुनाह दूर कर दूंगा । और उनको बहिश्तों में दाख़िल करूंगा, जिनके नीचे नहरें बह रही हैं । ( यह ) ख़ुदा के यहां से बदला है और ख़ुदा के यहां अच्छा बदला है ।
-क़ुरआन , सूरा ३, आयत-१९५
इस्लाम को बदनाम करने के लिए लिख-लिख कर प्रचारित किया गया की इस्लाम तलवार के बल पर प्रचारित व प्रसारित मज़हब है । मक्का सहित सम्पूर्ण अरब व दुनिया के अधिकांश मुस्लमान,तलवार के जोर पर ही मुस्लमान बनाए गये थे  इस तरह इस्लाम का प्रसार जोर-ज़बरदस्ती से हुआ ।
जबकि इस्लाम में किसी को जोर ज़बरदस्ती से मुस्लमान बनाने की सख्त मनाही है 
 क़ुरआन माजिद में अल्लाह के ये आदेश :
और अगर तुम्हारा परवरदिगार ( यानि अल्लाह ) चाहता, तो जितने लोग ज़मीं पर हैं, सब के सब इमा ले आते । तो क्या तुम लोगों पर ज़बरदस्ती करना चाहते हो की वे मोमिन ( यानि मुस्लमान ) हो जाएं ।
-क़ुरआन, सूरा 10 , आयत-99
' शुरू अल्लह का नाम लेकर, जो बड़ा कृपालु, अत्यंत दयालु है ।'
( ऐ पैग़म्बर ! इस्लाम के इन नास्तिकों से ) कह दो कि ऐ काफ़िरों ! ( 1 )
जिन ( बुतों ) को तुम पूजते हो, उन को मैं नहीं पूजता , ( 2 )
और जिस ( ख़ुदा ) की मैं इबादत करता हूँ, उस की तुम इबादत नहीं करते,  ( 3 )
और ( मैं फिर कहता हूँ कि ) जिन की तुम पूजा करते हो, उन की मैं पूजा नहीं करने वाला हूँ । ( 4 )
और न तुम उसकी बंदगी करने वाले ( मालूम होते ) हो, जिसकी मैं बंदगी करता हूँ । ( 5 )
तुम अपने दीन पर, मैं अपने दीन पर । ( 6 )
-क़ुरआन , सूरा १०९, आयत-१-६
ऐ पैग़म्बर ! अगर ये लोग तुमसे झगड़ने लगें, तो कहना कि मैं और मेरी पैरवी करने वाले तो ख़ुदा के फ़रमाँबरदार ( अथार्त आज्ञाकारी ) हो चुके और अहले किताब और अन-पढ़ लोगों से कहो कि क्या तुम भी ( ख़ुदा के फ़रमाँबरदार बनते और ) इस्लाम लाते हो ? अगर ये लोग इस्लाम ले आयें तो बेशक हिदायत पा लें और अगर ( तुम्हारा कहा ) न मानें, तो तुम्हारा काम सिर्फ ख़ुदा का पैग़ाम पहुंचा देना है ।  और ख़ुदा ( अपने ) बन्दों को देख रहा है ।
-क़ुरआन , सूरा 3 , आयात-20
कह दो कि ऐ अहले किताब ! जो बात हमारे और तुम्हारे दरमियां एक ही ( मान ली गयी ) है , उसकी तरफ़ आओ, वह यह कि ख़ुदा के सिवा किसी की पूजा न करें और उसके साथ किसी चीज़ को शरीक ( यानि साझी ) न बनायें और हममें से कोई किसी को ख़ुदा के सिवा अपना करसाज़ न समझे । अगर ये लोग ( इस बात को ) न मानें तो ( उनसे ) कह दो कि तुम गवाह रहो कि हम ( ख़ुदा के ) फ़रमाँबरदार हैं ।
-क़ुरआन , सूरा 3 , आयात-64
इस्लाम में , ज़ोर ज़बरदस्ती से धर्म परिवर्तन कि मनाही के साथ-साथ इससे भी आगे बढ़ कर किसी भी प्रकार कि ज़ोर-ज़बरदस्ती कि इजाज़त नहीं है । देखिये अल्लाह का यह आदेश :
दिने इस्लाम में ज़बरदस्ती नहीं है 

-क़ुरआन , सूरा 2 , आयात-256
हाँ, जो बुरे काम करे और उसके गुनाह ( हर तरफ़ से ) उसको घेर लें तो ऐसे लोग दोज़ख ( में जाने ) वाले हैं । ( और ) हमेशा उसमें ( जलते ) रहेंगे ।
-क़ुरआन , सूरा 2 , आयात-81 निष्कर्ष- पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की जीवनी व कुरआन मजीद की आयतों को देखने के बाद स्पष्ट है की हज़रत मुहम्मद ( सल्ल० ) की करनी और कुरआन की कथनी में कहीं भी आतंकवाद नहीं है ।
इससे सिद्ध होता है की इस्लाम की अधूरी जानकारी रखने वाले ही अज्ञानता के कारन इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ते हैं ।