Monday, October 7, 2013

जीव हत्तिया और मासाहार (विज्ञान तर्क और धर्म ग्रन्थ)


जीव हत्तिया और मासाहार (विज्ञान तर्क और धर्म गर्न्थो के आधार पर एक विवेचन ) 

खाने-पीने के मामले में कुछ चीज़ें इनसान के लिए हलाल{जायज} हैं और कुछ चीज़ें हराम{निषेद्ध} हैं। हलाल और हराम का यह फ़र्क़ किस बुनियाद पर क़ायम होता है ?
एक वर्ग का यह कहना है कि अस्ल हराम काम यह है कि किसी ज़िन्दगी को हलाक किया जाए। इस मामले में उनका फ़ार्मूला यह है-किसी जीव को मारना वर्जित है और किसी जीव को न मारना सबसे बड़ी नेकी है-
Killing a sensation is sin and vice versa .
यह नज़रिया यक़ीनी तौर पर एक बेबुनियाद नज़रिया है। इसका सबब यह है कि मौजूदा दुनिया में यह सिरे से क़ाबिले अमल ही नहीं है, जैसा कि इस लेख में दूसरे मक़ाम पर बयान किया जाएगा। जीव को मारना हमारा अख्तियार (Option) नहीं है। इनसान जब तक ज़िन्दा है, वह जाने-अन्जाने तौर पर असंख्य जीवों को मारता रहता है। जो आदमी इस ‘पाप‘ से बचना चाहे, उसके लिए दो चीज़ों में से एक का अख्तियार (Option) है। या तो वह खुदकुशी करके अपने आप को ख़त्म कर ले या वह एक और दुनिया बना ले जिसके नियम इस मौजूदा दुनिया के नियमों से अलग हों।
इस्लाम में भोजन में हलाल और हराम का सिद्धांत बुनियादी तौर पर यह है कि चन्द ख़ास चीज़ों को इस्लाम में हराम क़रार दिया गया है। इनके अलावा बाक़ी तमाम चीज़ें इस्लाम में जायज़ आहार की हैसियत रखती हैं।
हलाल और हराम का यह उसूल जो इस्लाम ने बताया है, वह प्रकृति के नियमों पर आधारित है। आज भी एक छोटे से वर्ग को छोड़कर सारी दुनिया हलाल और हराम के इसी उसूल का पालन कर रही है। यह छोटा सा वर्ग भी महज़ कहने के लिए अपना नज़रिया बताता है, वर्ना जहां तक अमल का ताल्लुक़ है, वह भी व्यवहारतः इसी प्राकृतिक नियम पर क़ायम है। मस्लन ये तमाम लोग आम तौर पर दूध और दही वग़ैरह इस्तेमाल करते हैं। पहले ये लोग इस ग़लतफ़हमी में मुब्तिला थे कि दूध और दही वग़ैरह जीव रहित आहार हैं, लेकिन अब वैज्ञानिक रूप से यह साबित हो चुका है कि ये सब पूरी तरह जैविक आहार हैं। जिस आदमी को इस बात पर शक हो, वह किसी भी क़रीबी प्रयोगशाला (laboratory) में जाकर सूक्ष्मदर्शी (microscope) में दूध और दही को देख ले। एक ही नज़र में वह जान लेगा कि इस मामले में हक़ीक़त क्या है ?
इस्लाम में हलाल जानवर और हराम जानवर का जो फ़र्क़ किया गया है, वह बुनियादी तौर पर इस उसूल पर आधारित है कि मांसाहारी जानवर हराम हैं और वे जानवर हलाल हैं जो मांसाहारी नहीं हैं। इसका कारण यह है कि जो जानवर जीवों को अपना आहार बनाते हैं, उनका मांस इनसान के लिए सेहत के ऐतबार से ठीक नहीं होता। दूसरे जानवरों का मामला यह है उनके अन्दर ख़ास कुदरती निज़ाम होता है जिसके मुताबिक़ ऐसा होता है कि ज़मीन पर उपजी हुई जो चीज़ वे खाते हैं उसे वे विशेष क्रिया द्वारा प्रोटीन में तब्दील करते हैं और इस तरह वह हमारे लिए स्वास्थ्यवर्धक और सुपाच्य बन जाता है।

आहारः इनसान की ज़रूरत
भोजन इनसान की अनिवार्य ज़रूरत है। पुराने ज़माने में आहार के सिर्फ़ दो मतलब हुआ करते थे- ‘ज़ायक़ा लेना और भूख मिटाना‘, लेकिन मौजूदा ज़माने में ये दोनों चीज़ें इज़ाफ़ी बन चुकी हैं। आधुनिक युग में वैज्ञानिक शोध के बाद यह मालूम हुआ कि भोजन का मक़सद है कि जिस्म को ऐसा आहार मुहैया करना जिसे मौजूदा ज़माने में संतुलित आहार (balanced diet) कहा जाता है। जिसमें बुनियादी तौर पर 6 तत्व शामिल हैं-
A balance diet is one which cotains carbohydrate, protein, fat, vitamins, mineral salts and fibre in the correct proportions .

इन तत्वों में से प्रोटीन (protein) की अहमियत बहुत ज़्यादा है क्योंकि प्रोटीन का हमारे जिस्म की बनावट में बुनियादी हिस्सा है।
Protein is the main building block of our body .

प्रोटीन का सबसे बड़ा ज़रिया मांसाहार है। मांस से हमें उत्तम प्रोटीन मिलता है। मांस के अलावा अन्य चीज़ों से भी कुछ प्रोटीन मिलती है लेकिन वह अपेक्षाकृत निम्न स्तरीय होती है।
Meat is the best source for high-quality protein .
Plant protein is of a lower biological value .

मज़ीद यह कि मांसीय प्रोटीन और ग़ैर-मांसीय प्रोटीन का विभाजन भी सिर्फ़ समझने की ग़र्ज़ से है, वह वास्तविक विभाजन नहीं है। इसलिये कि सूक्ष्मदर्शी के अविष्कार के बाद वैज्ञानिकों ने जो अध्ययन किया है उससे मालूम होता है कि सभी खाद्य सामग्री के अन्दर बेशुमार बैक्टीरिया मौजूद रहते हैं जो पूरी तरह जीवधारी होते हैं। मांस से भिन्न जिन खाद्य चीज़ों के बारे में समझा जाता है कि उनमें बड़ी मात्रा में प्रोटीन होता है मस्लन दूध, दही, पनीर वग़ैरह, वे सब बैक्टीरिया की सूक्ष्म प्रक्रिया के ज़रिये ही अंजाम पाता है। बैक्टीरिया का अमल अगर उसके अन्दर न हो तो किसी भी ग़ैर-मांसीय भोजन से प्रोटीन हासिल नहीं किया जा सकता।
बैक्टीरिया को विज्ञान की भाषा में माइक्रो-ओर्गेनिज्म (Micro organism) कहा जाता है, यानि सूक्ष्म जीव। इसके मुक़ाबले में बकरी और भेड़ वग़ैरह की हैसियत मैक्रो-ओर्गेनिज्म (macro-organism) की है यानि विशाल जीव। इस हक़ीक़त को सामने रखिये तो यह कहना बिल्कुल सही होगा कि
हर आदमी व्यवहारतः मांसाहार कर रहा है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि तथाकथित शाकाहारी उसे सूक्ष्म जीवों के रूप में ले रहे हैं और नॉन-वेजिटेरियन लोग उसे बड़े जीवों के रूप में ले रहे हैं।
दूसरे अल्फ़ाज़ में यह कि हर इनसान का पेट एक बहुत बड़ा स्लॉटर हाउस की हैसियत रखता है। इस अदृष्ट स्लॉटर हाउस में रोज़ाना मिलियन एंड मिलियन सूक्ष्म जीव ख़त्म होते रहते हैं। इनकी संख्या इतनी ज़्यादा होती है कि सारी दुनिया में बड़े जानवरों के जितने स्लॉटर हाउस हैं उन सबमें कुल जितने जानवर मारे जाते हैं उनसे असंख्य गुना ज़्यादा ये सूक्ष्म जीव मारे जाते हैं।
इस सारे मामले का ताल्लुक़ रचयिता की सृष्टि योजना से है। उस रचयिता ने सृष्टि का जो विधान निश्चित किया है, वह यही है कि इनसान के जिस्म की आहार संबंधी ज़रूरत ज़िन्दा जीवों (living organism) के ज़रिये पूरी हो। प्राकृतिक योजना के मुताबिक़ ज़िन्दा जीवों को अपने अन्दर दाखि़ल किये बिना कोई मर्द या औरत अपनी ज़िन्दगी को बाक़ी नहीं रख सकता। उस रचयिता के विधान के मुताबिक़ ज़िन्दा चीज़ें ही ज़िन्दा वजूद की खुराक बनती हैं। जिन चीज़ों में ज़िन्दगी न हो, वे ज़िन्दा लोगों के लिए खुराक की ज़रूरत पूरी नहीं कर सकतीं। इसका मतलब यह है कि वेजिटेरियनिज़्म (vegetarianism) और नॉनवेजिटेरियनिज़्म (non-vegetarianism) की परिभाषायें सिर्फ़ साहित्यिक परिभाषाएं हैं, वे वैज्ञानिक परिभाषाएं नहीं हैं।
इसका दूसरा मतलब यह है कि इस दुनिया में आदमी के लिये इसके सिवा कोई चॉइस (choice) नहीं है कि वह नॉन-वेजिटेरियन बनने पर राज़ी हो। जो आदमी ख़ालिस वेजिटेरियन बनकर ज़िन्दा रहना चाहता हो, उसे अपने आप को या तो मौत के हवाले करना होगा या फिर उसे एक और दुनिया रचनी होगी जहां के नियम मौजूदा दुनिया के नियमों से अलग हों। इन दो के सिवा कोई दूसरी चॉइस (choice) इनसान के लिये नहीं है।

इतिहास की वैचारिक ग़लतियां
दर्शन कल्पना जनित ज्ञान (speculative sciences) में से एक है। दर्शन एक प्राचीन कालीन ज्ञान है। दुनिया के बड़े-बड़े दिमाग़ दार्शनिक चिंतन में व्यस्त रहे हैं, लेकिन लम्बे इतिहास के बावजूद दार्शनिकों का वर्ग इनसान को कोई पॉज़िटिव चीज़ न दे सका, बल्कि दर्शन ने सिर्फ़ इनसान की वैचारिक पेचीदगियों में इज़ाफ़ा किया। फ़ारसी शायर ने बिल्कुल सही कहा हैः
फ़लसफ़ी सिर्रे हक़ीक़त न तवानस्त कशूद
गश्त राज़ दिगर आं राज़ के फ़शामी कर्द
फ़लसफ़े ने इनसान को चीज़ें दीं, उन्हें एक लफ़्ज़ में वैचारिक भ्रम कहा जा सकता है यानि ऐसी कल्पनाएं जो हक़ीक़त पर आधारित न हों। विचार का इतिहास इन मिसालों से भरा हुआ है।
सभी दार्शनिकों की साझा ग़लती यह रही है कि हरेक के ज़हन में चीज़ों का एक आदर्श मॉडल ¼ideal model½ बसा हुआ था, जो कभी और किसी दौर में हासिल न हो सका। इसका कारण यह था कि दार्शनिकों का यह मॉडल दुनिया के बारे में इसके रचयिता की सृष्टि योजना के अनुकूल नहीं था। रचयिता ने इस दुनिया को इम्तेहान के लिये पैदा किया है, न कि इनाम के लिये। इसी इम्तेहान के लिये इनसान को आज़ादी दी गई है। इम्तेहान की यह आज़ादी इस राह में रूकावट है कि इस दुनिया में कभी कोई आदर्श व्यवस्था क़ायम हो सके।
आदर्श व्यवस्था सिर्फ़ उस वक़्त बन सकती है, जब कि सभी लोग बिना अपवाद के अपनी आज़ादी का बिल्कुल सही इस्तेमाल करें। विभिन्न कारणों से ऐसा होना कभी मुम्किन नहीं है। इसलिये इस दुनिया में आदर्श व्यवस्था का बनना भी कभी मुम्किन नहीं है। इतिहास के सभी दार्शनिक इस हक़ीक़त से बेख़बर थे। यही वजह है कि सभी दार्शनिक अपने ज़हन के मुताबिक़ आदर्श व्यवस्था का सपना देखते रहे, मगर प्रकृति के नियम के मुताबिक़ उनका यह सपना कभी पूरा न हो सका। यहां बतौर नमूना चन्द मिसालें दर्ज की जाती है ।
1- प्लेटो ¼Plato½ प्राचीन यूनान का एक मशहूर दार्शनिक है। उसने 387 ई.पू. में एथेन्स (Athens) में एक रॉयल एकेडमी क़ायम की। उसका मक़सद शासक वर्ग को शिक्षित करके दार्शनिक राजा बनाना था। उसका लक्ष्य यह था कि इस एकेडमी में तैयारशुदा दार्शनिक राजा यूनान में आयडियल इस्टेट क़ायम करेंगे जो सारी दुनिया के लिये एक आदर्श राज्य होगा। शहज़ादा सिकन्दर (Alexander) प्लेटो का प्रिय शिष्य था। अपने बाप फ़िलिप के मरने के बाद 336 में वह यूनान का राजा बन गया लेकिन तख़्त पर बैठने के बाद ही वह फ़िलॉस्फ़र किंग बनने के बजाय एक्सप्लॉयटर किंग (Exploiter king) बन गया। आदर्श राज्य क़ायम करने के बजाय उसका उद्देश्य यह हो गया कि वह सारी दुनिया में अपना एकछत्र राज्य क़ायम करे। प्लेटो के सपने के बजाय वह लॉर्ड एक्टिन के इस कथन की मिसाल बन गयाः

Power corrupts and absolute power corrupts absolutely .

आयडियलिज़्म की यह दार्शनिक कल्पना पूरे इतिहास में छाई रही है। आयडियल इस्टेट, आयडियल समाज, आयडियल सिस्टम का लक्ष्य हमेशा तमाम दार्शनिकों और चिंतकों का ऐसा सुनहरा सपना रहा है जो कभी पूरा न हो सका। उसकी वजह यह थी कि कि यह सपना इस ग़लत विचार पर आधारित था कि मौजूदा दुनिया में आयडियल जीवन मिलना सिर्फ़ जन्नत में ही संभव है। मौजूदा दुनिया सिर्फ़ इसलिये बनी है कि इनसान यहां अपने आपको जन्नत का पात्र सिद्ध कर सके, ताकि वह मरने के बाद जन्नत की आयडियल दुनिया में जगह पा सके। जिस तरह एक विद्यार्थी को परीक्षा कक्ष में अपना वांछित जॉब नहीं मिल सकता, उसी तरह मौजूदा दुनिया में किसी इनसान को आयडियल जन्नत कभी नहीं मिल सकती।
2- उन्नीसवीं सदी ईस्वी में जब वैज्ञानिक परीक्षण का तरीक़ा दुनिया में प्रचलित हुआ तो दार्शनिकों के अन्दर एक नया विचार पैदा हुआ जिसका यह कहना था कि हक़ीक़त वही है जिसे देखा जा सकता ¼observable½ हो, जिसे मालूम साइंसी तरीक़ों के मुताबिक़ सत्यापित ¼verify½ किया जा सकता हो। इसी सोच के तहत बहुत से मत बने। मस्लन उन्नीसवीं सदी का फ्ऱेंच दार्शनिक ऑगस्ट कॉम्टे (Auguste Comte) का पॉज़िटिविज़्म (Positivism) और बीसवीं सदी के जर्मन दार्शनिक रूडोल्फ़ कारनेप (Rudolf Carnap) का लॉजिकल पॉज़िटिविज़्म वग़ैरह।
इस क़िस्म के चिंतकों और दार्शनिकों ने तक़रीबन सौ साल तक दुनिया भर के ज़हनों को यह यक़ीन दिलाने की कोशिश की कि जो चीज़ देखी न जा सके वह हक़ीक़त भी नहीं है। इन नज़रियों के तहत वह दर्शन पैदा हुआ जिसे वैज्ञानिक नास्तिकवाद (scientific atheism) कहा जाता है। इन नज़रियों के मुताबिक़ ईश्वर और धर्म की मान्यताएं इल्मी ऐतबार से बेबुनियाद साबित हो गईं।
इल्मी दुनिया में वैज्ञानिक नास्तिकवाद पर चर्चा जारी था कि खुद विज्ञान ने ही इस नज़रिये को बेबुनियाद साबित कर दिया। विज्ञान में यह तब्दीली उस वक़्त आई जब कि वैज्ञानिकों ने उस हक़ीक़त को दरयाफ़्त कर लिया जिसे क्वांटम मैकेनिक्स (quantum mechanics) कहा जाता है। इस खोज को महानतम बौद्धिक विजय (greatest intellectual triumph) कहा जाता है। इस वैज्ञानिक नज़रिये का एक नतीजा यह था कि एटम को लहर समझा जाने लगा। इस वैज्ञानिक खोज में ख़ास तौर पर इन वैज्ञानिकों के नाम शामिल हैं ।
Paul Dirac, Heisenberg, Jordan, Schrodinger, Einstein

इस वैज्ञानिक खोज ने न्यूटन के पुराने मैकेनिक्स को इल्मी तौर पर रद्द कर दिया। अब इल्म का दरिया विशाल जगत (macro world) से गुज़र कर सूक्ष्म जगत (micro world)तक पहुंच गया यानि दिखाई देने वाली चीज़ के अलावा न दिखाई देने वाली चीज़ें भी ज्ञान का विषय बन गईं।
तर्क के नये आधार
यह एक दूरगामी नतीजों वाला इंक़लाब था जो बीसवीं सदी के शुरूआती पांच दशकों में पेश आया। इसके नतीजे में जो वैचारिक तब्दीलियां हुईं, उनमें से एक अहम तब्दीली यह थी कि तर्क का सिद्धांत (principle of reason) बदल गया। इस वैचारिक क्रांति से पहले यह समझा जाता था कि जायज़ तर्क वही है जो सीधा तर्क हो यानि तर्क निरीक्षण और परीक्षण पर आधारित हो, लेकिन अब अनुमान आधारित तर्क भी यकसां तौर पर जायज़ तर्क बन गया। जब परमाणु के सूक्ष्म पार्टिकल्स दिखाई न देने के बावजूद सिर्फ़ अनुमान की बुनियाद एक वैज्ञानिक तर्क मान लिया गया तो लाज़िमी तौर पर इसका मतलब यह भी था कि अनुमान आधारित तर्क की बुनियाद पर ईश्वर के विषय में तर्क भी ठीक उसी तरह जायज़ वैज्ञानिक तर्क है।
ईश-चिंतक ईश्वर के वजूद पर एक तर्क जो देते थे उसकी बुनियाद डिज़ाइन (argument from design) पर थी यानि जब डिज़ाइन है तो ज़रूरी है कि उसका एक डिज़ाइनर हो।इस तर्क को पहले द्वितीय स्तर का तर्क माना जाता था लेकिन अब नई वैज्ञानिक क्रांति के बाद यह तर्क भी उसी तरह अव्वल दर्जे के तर्क की सूची में आ गया जैसे कि दूसरे ज्ञात वैज्ञानिक तर्क।
3- इन्हीं वैचारिक मुग़ालतों में से एक मुग़ालता वह है जिसे डार्विनवाद कहा जाता है। इस विचार को मौजूदा ज़माने में बहुत शोहरत मिली है। इस नज़रिये के बारे में बेशुमार किताबें लिखी गई हैं और सभी यूनिवर्सिटियों में इसे बाक़ायदा कोर्स में शामिल किया गया है, लेकिन इसका वैज्ञानिक विश्लेषण कीजिये तो वह एक खूबसूरत मुग़ालते के सिवा और कुछ नहीं। डार्विनवाद को दूसरे अल्फ़ाज़ में जैव विकासवाद भी कहा जाता है।
इसका खुलासा यह है कि बहुत पहले ज़िन्दगी एक सादा ज़िन्दगी से शुरू हुई। फिर सन्तानोत्पत्ति के ज़रिये वह बढ़ती रही। हालात के असर से इसमें लगातार बदलाव होता रहा। यह बदलाव लगातार विकास यात्रा करते रहे। इस तरह एक प्राथमिक जीव मुख्तलिफ़ जातियों में बदलता चला गया। इस लम्बे अमल के दौरान एक भौतिक नियम उसका मार्गदर्शन करता रहा। यह भौतिक नियम डार्विन के अल्फ़ाज़ में ‘नेचुरल सलेक्शन‘ था।
इस नज़रिये में बुनियादी कमी यह है कि वह दो समरूप जातियों का हवाला देता है और फिर यह दावा करता है कि लम्बे जैविक विकास के ज़रिये एक जाति दूसरी जाति में तब्दील हो गई। मस्लन बकरी धीरे-धीरे जिराफ़ बन गई वग़ैरह। यह नज़रिया बकरी और जिराफ़ को तो हमें दिखाता है लेकिन वह बीच की जातियां इसकी सूची में मौजूद नहीं हैं जो तब्दीली के सफ़र अमली तौर पर दिखायें। विकासवाद के समर्थकों बीच की इन कड़ियों को ‘मिसिंग लिंक‘ कहते हैं लेकिन यह मिसिंग लिंक सिर्फ़ एक काल्पनिक लिंक है। निरीक्षण और परीक्षण के ऐतबार से इनका कोई वजूद नहीं।
इस नज़रिये की शोहरत का राज़ सिर्फ़ यह था कि वह सेक्युलर बुद्धिजीवियों को एक कामचलाऊ नज़रिया दिखाई दिया, लेकिन कोई नज़रिया इस तरह की कल्पना से साबित नहीं होता। किसी नज़रिये को साबितशुदा नज़रिया बनाने के लिए ज़रूरी है कि उसके पक्ष में ज्ञात तथ्य मौजूद हों जो उसे प्रमाणित करते हों, लेकिन डार्विनवाद को प्रमाणित करने के लिए ऐसे तथ्य मौजूद नहीं हैं। मिसाल के तौर पर डार्विनवाद के मुताबिक़ जैव विकास के लिए बहुत लम्बी अवधि दरकार है। वैज्ञानिक अनुसंधान के मुताबिक़ मौजूदा ज़मीन की आयु उसके मुक़ाबले बहुत कम है। ऐसी हालत में, अगर मान भी लें कि विकास की प्रक्रिया डार्विन के नज़रिये के मुताबिक़ पेश आई हो तो वह मौजूदा सीमित ज़मीन पर कभी घटित नहीं हो सकती।
ज़मीन की सीमित आयु के बारे में जब विज्ञान की खोज सामने आई तो उसके बाद विकास के समर्थकों ने यह कहना शुरू किया कि ज़िन्दगी कहीं बाहर किसी और ग्रह पर पैदा हुई, फिर वहां से सफ़र करके ज़मीन पर आई। इस विकासवादी नज़रिये को उन्होंने काल्पनिक तौर पर पैन्सपर्मिया का नाम दिया। अब दूरबीनों और अंतरिक्ष या़त्राओं के ज़रिये अंतरिक्ष में कुछ काल्पनिक ग्रहों की खोज शुरू हुई मगर बेशुमार कोशिशों के बावजूद अब तक यह काल्पनिक ग्रह खोजा न जा सका।
4- इसी क़िस्म का वैचारिक मुग़ालता वह है जिसे मानववाद कहा जाता है, यानि ब्रह्मण्ड की मनुष्य केन्द्रित व्याख्या। इस दर्शन के तहत ईश्वर की मान्यता को हटाकर सिर्फ़ इनसान की बुनियाद पर ज़िन्दगी की व्याख्या की जाती है। इस नज़रिये का खुलासा इन अल्फ़ाज़ में बयान किया जाता है- ‘सीट का ईश्वर से ट्रांसफ़र होकर इनसान को दे देना‘
इस नज़रिये की हिमायत में बीसवीं सदी ईस्वी में बहुत सी किताबें लिखी गईं। उन्हीं में से एक किताब वह है जो अंग्रेज़ दार्शनिक जूलियन हक्सले (मृत्युः 1975) ने तैयार करके प्रकाशित की थी। किताब के विषय के मुताबिक़ उसका टाइटिल थाःMan stands alone .
यह पूरी किताब दावा और कल्पना पर आधारित है। इसमें कोई वास्तविक तथ्य मौजूद नहीं है। मस्लन इसमें यह दावा किया गया है कि अब इनसान को ‘वह्य‘ की ज़रूरत नहीं, अब इनसान के मार्गदर्शन के लिए अक्ल बिल्कुल काफ़ी है, मगर इस दावे के समर्थन में किताब में कोई दलील मौजूद नहीं। अमरीकी वैज्ञानिक क्रेसी मारिसन (मृत्युः 1951) ने खालिस इल्मी अन्दाज़ में इस किताब का जवाब दिया। यह किताब जूलियन हक्सले के दावे को बिल्कुल बेबुनियाद साबित करती हैः Man does not stand alone .
5- बुद्धिज़्म को मौजूदा ज़माने में सेक्युलर तबक़े के दरम्यान काफ़ी शोहरत हासिल हुई। इसे यह शोहरत किसी वैज्ञानिक बुनियाद पर नहीं हुई है बल्कि सिर्फ़ एक मुग़ालते की बुनियाद पर हुई है। आम तौर पर लोग चीज़ों का वैज्ञानिक विश्लेषण करके उसकी हक़ीक़त तक पहुंचने की कोशिश नहीं करते। इस कारण अक्सर लोग भ्रामक प्रचार के शिकार हो जाते हैं। बुद्धिज़्म की मौजूदा शोहरत भी उन्हीं में से एक है।
बुद्धिस्ट फ़िलॉसॉफ़ी के मुताबिक़ इनसान नस्ल-दर-नस्ल एक लम्बा सफ़र कर रहा है। इसकी आखि़री मंज़िल निर्वाण है। इस आखि़री मंज़िल तक पहुंचने का एक निश्चित विधान है। यह कार्य और कारण का विधान है। हर औरत या मर्द अपने अमल के मुताबिक़ एक जन्म के बाद दूसरे जन्म में पैदा होते रहते हैं। कभी अच्छी हालत में और कभी बुरी हालत में। इस नज़रिये को पुनर्जन्म कहा जाता है और फिर कई मिलियन साल तक यह करते-करते वह ‘मुक्ति‘ तक पहुंचते हैं, जिसे बुद्धिज़्म में ‘निर्वाण‘ का नाम दिया गया हैः


They all hold in common a doctrine of Karman (effects) , the law of cause and effect, which states that what one does in this present life will have its effect in the next life. (EB/VIII: 488)

यह दर्शन सिर्फ़ एक मुग़ालिता है। पुनर्जन्म का यह नज़रिया कहता है कि आदमी अपने पिछले जन्म में किये हुए कर्म के मुताबिक़ अगले जन्म में अच्छी हालत या बुरी हालत में पैदा होता है। अगर यह बात दुरूस्त है तो हरेक को अपने पिछले जन्म का हाल याद रहना चाहिए, जिस तरह जेल में सज़ा पाने वाले एक क़ैदी को अपने पिछले दिनों का जुर्म याद रहता है या तरक्की पर पहुंचने वाले एक आदमी को अपने पिछले ज़माने की वे कोशिशें याद रहती हैं जिनकी वजह से वह उस ओहदे तक पहुंचा, लेकिन जैसा कि मालूम है, दुनिया भर में बसने वाले औरतों और मर्दों को अपने पिछले जन्म के बारे में कुछ भी याद नहीं।
यह वाक़या पुनर्जन्म के दर्शन को सरासर ग़ैर-इल्मी साबित कर रहा है। मौजूदा दुनिया में मनोविज्ञान के तहत इनसान का बहुत विस्तृत अध्ययन किया गया है। इससे यह साबित हुआ है कि याद्दाश्त इनसान की शख्सियत का अकाट्य हिस्सा है। इनसानी शख्सियत को उसकी याद्दाश्त से जुदा नहीं किया जा सकता, लेकिन पुनर्जन्म के मामले में हम देखते हैं कि हर आदमी की शख्सियत एक जन्म से दूसरे जन्म की तरफ़ इस तरह सफ़र करती है कि अपने पिछले ज़माने के बारे में उसकी याद्दाश्त उसके साथ मौजूद नहीं होती। किसी आदमी के अगले जन्म में अगर उसकी पिछली शख्सियत ट्रांसफर होती है तो उसकी याद्दाश्त उसके साथ लाज़िमी तौर पर मौजूद रहनी चाहिए। यह वाक़या इस पूरे नज़रिये को सरासर बेबुनियाद साबित कर रहा है।
वैज्ञानिक चेतना के युग से पहले महज़ कल्पना के तहत इस तरह का नज़रिया माना जा सकता था लेकिन इस वैज्ञानिक युग यह बिल्कुल अस्वीकार्य हो चुका है। आधुनिक विज्ञान ने जिस तरह दूसरी तमाम मनघड़त कल्पनाओं को बेबुनियाद साबित कर दिया है, उसी तरह पुनर्जन्म की कल्पना भी अब निस्संदेह बेबुनियाद क़रार पाएगा।
6- इन्हीं वैचारिक मुग़ालतों में से एक वह है जो वेजिटेरियनिज़्म के नाम से जाना जाता है। यहां इस मामले की थोड़ा स्पष्ट किया जाना ज़रूरी है।
लोहे और पत्थर जैसी चीज़ें निर्जीव पदार्थ की हैसियत रखती हैं। इनके वजूद के लिए जीवों की ज़रूरत नहीं है, लेकिन इनसान की हैसियत एक ज़िन्दा वजूद की है। उसे जीवन की रक्षा करने के लिए जीवों की ज़रूरत है। अपने वजूद को बाक़ी रखने के लिए उसे हर लम्हा जीवनदायी आहार की ज़रूरत है। यह आहार इनसान को सब्ज़ी, फल और अनाज वग़ैरह के रूप में हासिल होता है। इन भोज्य पदार्थों को खाकर पेट में डालना ही काफ़ी नहीं है। इसके बाद एक और प्रक्रिया ज़रूरी है जिसे पाचन क्रिया कहा जाता है। यह अमल एक पेचीदा निज़ाम ए हज़्म के तहत अंजाम पाता है। इसके बाद ही ये भोज्य पदार्थ ‘ारीर का अंश बनते है। इस पाचन क्रिया में अस्ल हिस्सा ज़िन्दा बैक्टीरिया का होता है। बैक्टीरिया इतने छोटे होते हैं कि वह आंखों दिखाई नहीं देते लेकिन वे पूरे तौर पर एक ज़िन्दा वजूद होते हैं। ये बैक्टीरिया बेशुमार तादाद में इनसान के जिस्म में दाखि़ल होकर पाचन क्रिया को पूरा करते हैं। अगर बैक्टीरिया की मदद न मिले तो कोई भी आहार इनसान के लिए स्वास्थ्यवर्धक आहार न बन सके।
इस मामले को समझने के लिए एक मिसाल लीजिये। नई दिल्ली के अंग्रेज़ी अख़बार टाइम्स आॅफ़ इंडिया (26 दिसम्बर 2007) के पहले पृष्ठ पर एक नुमायां और रंगीन इश्तेहार छपा है। इसका शीर्षक मोटे अक्षरों में यह है- डेली पियो, हैल्दी जियोः
Daily piyo . healthy jiyo .

यह एक इन्टरनेशनल पेय का इश्तेहार है जिसे स्वास्थ्यवर्धक पेय बताया गया है और इसका नाम ‘याकुल्ट‘ है। यह 1935 में बनाया गया और 30 देशों मे इस्तेमाल किया जा रहा है। अब भारत में भी इसका इस्तेमाल शुरू किया गया है।
इस इश्तेहार में इसकी वैज्ञानिक व्याख्या करते हुए यह बताया गया है कि इसमें फ़ायदेमंद बैक्टीरिया बहुत बड़ी तादाद में मौजूद होते हैं, जो पाचन क्रिया में बेहद सहायक होते हैं। वे विभिन्न पहलुओं से इनसान को ताक़त देते हैं ।
Yakult is a probiotic drink that contains special beneficial bacteria , lactobacillus casie strains shirota . Every 65 ml bottle of yakult contains over 6.5 billion friendly bacteria . Yakult’s bacteria are unique and reach the intestines alive to impart various health benefits . Yakult aids digestion , builds immunity , and prevents infection .
जीवनदायी बैक्टीरिया हर पल इनसान के जिस्म में विभिन्न तरीक़ों से दाखि़ल होते रहते हैं। उपरोक्त पेय इसी अमल को ज़्यादा तेज़ करने की तदबीर है।
मालूम हुआ कि मांसीय आहार इनसान के लिए अख़ितयारी बात नहीं है, वह इनसान की मजबूराना ज़रूरत है। हर आदमी जानता है कि आहार इनसान के लिए ज़रूरी है। इस मामले में वेजिटेरियन फ़ूड और नॉन-वेजिटेरियन फ़ूड की का विभाजन सिर्फ़ एक काल्पनिक विभाजन है, वह वास्तविक विभाजन नहीं है, क्योंकि अस्ल हक़ीक़त के ऐतबार से हरेक भोजन आखि़रकार एक मांसीय आहार है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि नॉन-वेजिटेरियन फ़ूड में उसका मांसीय होना आंखों से दिखाई नहीं देता। दूसरे अल्फ़ाज़ में यह कि नॉन-वेजिटेरियन आदमी बड़े जीव(macro organism) को अपना आहार बनाता है और तथाकथित वेजिटेरियन आदमी सूक्ष्म जीवों को ( micro organism)अपना आहार बना रहा है। ज़ाहिरी तौर पर दोनों एक दूसरे से अलग दिखाई देते हैं लेकिन हक़ीक़त के ऐतबार से दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं।
प्रकृति के विरूद्ध सिद्धांत
जो लोग कहते हैं कि वेजिटेरियन फ़ूड ही इनसान के लिए सही भोजन है, वह एक ऐसी बात कहते हैं जो सिर्फ़ उनके अपने ज़हन की पैदावार है। उनके अपने ज़हन के बाहर इसकी कोई दलील मौजूद नहीं। जैसा कि अर्ज़ किया गया, इन लोगों का कलिमा यह है -जीव को मारना पाप है और जीव की रक्षा करना पुण्य है।
killing a sensation is sin and vice versa .

यह एक मनघड़त कल्पना है। इसकी कोई बुनियाद न तो प्रकृति के नियमों में है और न विज्ञान की दरयाफ़्तों में। यह नज़रिया पूरी तरह एक अप्राकृतिक नज़रिया है। मस्लन लोग इनसानी दांतों की बनावट देखकर कहते हैं इनसान के दांत मांसाहारी जानवरों से अलग होते हैं। इसलिए इनसान शाकाहारी जीव (herbivorous) है न कि मांसाहारी जीव (carnivorous)। लेकिन यह बात सही नहीं है।
अस्ल बात यह है कि इनसान के दांत मांसाहारी जानवरों से अलग नहीं बल्कि उनके सदृश होते हैं। इसका कारण यह है कि मांसाहारी जीव पशुओं का मांस कच्चा खाते हैं , इसलिए उनके दांत अलग बनाए गये हैं। लेकिन इनसान मांस को पका कर खाता है, इसलिए उनके दांत मांसाहारी जानवरों से आंशिक समानता तो ज़रूर रखते हैं लेकिन वे बिल्कुल उसके मुताबिक़ नहीं होते।
जैसा कि मालूम है कि ज़मीन का तक़रीबन 71 प्रतिशत हिस्सा समुद्र है जो कि पानी से भरा हुआ है। ज़मीन में खुश्की का हिस्सा अपेक्षाकृत बहुत कम है। जबकि कृषि पैदावार हासिल करने के लिए खुश्क ज़मीन ज़रूरी है। ज़मीन का यह दस्तयाब खुश्क हिस्सा तमाम इनसानों के लिए कृषि से प्राप्त भोजन हासिल करने के लिए बिल्कुल अपर्याप्त है। जबकि इसी सीमित खुश्क हिस्से पर इनसानी आबादियां हैं, बड़े-बड़े कारख़ाने हैं। जंगल और रेगिस्तान, पहाड़, झील और नदियां हैं। ऐसी हालत में अगर सिर्फ़ कृषि आधारित भोजन पर निर्भर रहना हो तो इनसानों के बड़े हिस्से को भुखमरी का शिकार होना पड़ेगा।
ज्ञात रहे कि इस वक़्त ज़मीन पर 7 बिलियन से ज़्यादा इनसान आबाद हैं। ऐसी हालत में कृषि आधारित भोजन की यह कमी सिर्फ़ मांसाहार से पूरी की जा सकती है, जैसाकि दुनिया में हो रहा है। उस रचयिता को यह बात मालूम थी। सो उसने समुद्रों में नॉन-वेजिटेरियन फ़ूड का बहुत बड़ा भण्डार रख दिया। इसी के साथ खुदा ने फ़िज़ाओं में उड़ने वाली चिड़ियां बनाईं और जंगलों में तरह-तरह के जानवर पैदा कर दिए। ये सब इसलिए हुआ ताकि इनसान कृषि से मिलने वाले भोजन की कमी को मांसाहार के ज़रिये पूरा कर सके।

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2 Responses to "जीव हत्तिया और मासाहार (विज्ञान तर्क और धर्म ग्रन्थ)"

  1. madarchod aapni maa ki gand kyo nahi kat kar khata

    allah tumhe shabaski dega

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