Thursday, December 3, 2015

तो सीता को राम को छोड़ देना चाहिए था?


क्या अपनी पत्नी को ‘पवित्र’ साबित करने के लिए उसे आग पर बैठने को मजबूर करना डिमॉक्रेसी है? अगर हमारी सरकार इसे डिमॉक्रेसी मानती है और इस पर नाज करती है, तो ऐसी डिमॉक्रेसी सरकार को ही मुबारक। हमारा काम इसके बगैर भी चल जाएगा। कल लोकसभा के शरद सत्र को संबोधित करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि यह देश तो शुरू से डेमोक्रेटिक रहा है। अपनी बात का सबूत उन्होंने इस रूप में दिया कि श्रीराम ने अपनी प्रजा के एक शख्स के कहने पर अपनी प्राणों से प्यारी पत्नी को आग पर बिठा दिया। 

क्या मंत्री जी के मुताबिक, सीता को आग पर बैठाना एक आदर्श लोकतांत्रिक कृत्य है? क्या आज भी किसी महिला पर कोई उंगली उठाए तो उसे अपने ‘पवित्र’ होने की परीक्षा देनी पड़ेगी? राम के दौर में यह परीक्षा आग में बैठकर दी जाती थी तो आज इसकी शक्ल क्या होगी? क्या जिस व्यवस्था में यह सब करना जरूरी होगा, उसे डिमॉक्रेसी कहा जाएगा?

मंत्री महोदय, यह डिमॉक्रेसी नहीं, महिला का अपमान है, उस पर अत्याचार है। संसार के किसी भी लोकतंत्र में इसे दंडनीय कृत्य ही समझा जाएगा। इस घटना को डिमॉक्रेसी का जामा पहनाकर आप क्या महिलाओं की हालत और खराब करने की दिशा में नहीं बढ़ रहे हैं?

ध्यान रहे, अग्निपरीक्षा के बाद भी सीता को एक परपुरुष द्वारा अपहृत किए जाने के उस कथित ‘कलंक’ से मुक्ति नहीं मिली थी। कुछ ही समय बाद उनके ‘प्राणों से प्यारे’ पति ने उन्हें गर्भवती अवस्था में ही घने जंगल में छुड़वा दिया था। अब से पंद्रह सदी पहले महाकवि भवभूति ने अपनी रचना उत्तर रामचरितम में लिखा- ‘वनवासिनी सीता का विलाप सुनकर हिरनियों ने आधे चबाए ग्रास मुंह से गिरा दिए। मोरों ने नाचना छोड़ दिया और नदियों ने अपनी लहरें रोक लीं।’

इसी ग्रंथ में सीता आगे थोड़ा स्थिरचित्त होने के बाद विदा ले रहे लक्ष्मण से कहती हैं- ‘जाकर उस राजा से कहना कि एक प्रजा की तरह मेरा भी पालन करे।’ जो लोग आज आमिर खान के खिलाफ ऐसे जोक शेयर कर रहे हैं कि ‘अगर किरण राव अपने पति के साथ सुरक्षित नहीं हैं तो देश से पहले उन्हें अपने पति को छोड़ देना चाहिए’, वे क्या उसी बुलंदी के साथ यह भी कहेंगे कि सीता को इतनी यातनाओं से गुजरने के बजाय अपने पति को छोड़ देना चाहिए था?

POSTED by पूनम पांडे : http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/nonstop/

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